Saturday, November 13, 2010

एन डी टीवी इमैजिन को शर्म आनी चाहिये...।

झाँसी के लक्ष्मण अहरिवार की अस्पताल में मृत्यु हो गई। वह अवसाद से पीड़ित था और उसके परिवार वालों ने कुछ दिनों पूर्व ही उसको वहाँ भर्ती कराया था। यह कोई महत्वपूर्ण बात नही है। रोज सैकड़ों लोग अस्पतालों में मरते हैं, कोई किसी को नहीं जानता। पर यह खबर अमर उजाला अखबार में निकली और तो और आज हिंदुस्तान टाइम्स, यानि कि राष्ट्रीय स्तर के अंग्रेजी अखबार में निकली है तो कोई ना कोई विशेष बात तो जरूर होगी।

विशेष यह है कि लक्ष्मण अपने परिवार के साथ एन डी टी वी इमैजिन पर आने वाले प्रोग्राम- राखी सावंत का इंसाफ, में 23 अक्टूबर को शामिल हुआ था अपने घरेलू झगड़े को सुलझाने की कोशिश में। लक्ष्मण की शादी इसी साल फरवरी में हुई थी और कुछ दिनों के बाद ही उसकी पत्नी से अनबन रहने लगी। कुछ दिनों के बाद उसकी पत्नी अपने मायके में रहने लगी और लक्ष्मण परेशान रहने लगा। पत्नी का कहना था कि ससुराल पक्ष के एक आदमी की उसपर बुरी नियति थी। सच क्या था वह तो कोई नही जानता था। लक्ष्मण को इस प्रोग्राम के बारे में जानकारी हुई और पता नही किस सोर्स या फिर जरिये उसे इस प्रोग्राम में हिस्सा लेने का मौका मिल गया। शायद उसे राखी सावंत के बारे में नही पता होगा। प्रोग्राम में राखी सावंत ने उसे कई बार नामर्द कहा। शूटिंग खत्म हुई और इसका टेलीकास्ट भी हुआ। शूटिंग के बाद से ही लक्ष्मण अवसाद में रहने लगा। कुछ दिनों के बाद उसने खाना-पानी छोड़ दिया, तब उसके परिवार वालों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया। वहाँ कल उसकी मौत हो गई। यह खबर कल अमर उजाला में निकली थी जिसमें उसके परिवार वालों ने कहा था कि वे राखी सावंत पर केस करेंगे। आज हिंदुस्तान टाइम्स में खबर है कि लक्ष्मण के परिवार वालों ने राखी पर एफ आई आर दर्ज कराया है।


मैं इस घटिया प्रोग्राम के बारे में नही जानता और न मैने कभी इसे देखा है। सबसे ज्यादा हैरत यह जानकर हुई कि यह प्रोग्राम एन डी टीवी इमैजिन पर आता है। यह एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल है और इसकी कुछ तो नैतिकता होनी चाहिये। राखी सावंत के बारे में कुछ कहना अपनी जिह्वा पर कालिख लगाना है, इसलिये मैं उसपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। मुझे एन डी टी वी इमैजिन के बारे में कहना है। सवाल यह है कि क्या आजकल टी आर पी के लिये न्यूज चैनल किसी भी हद तक जा सकते हैं...जवाब हैं हाँ...। पैसे के खेल में टीवी चैनल आज जानते ही नही कि उनकी क्या जिम्मेदारी है। वे घटिया से घटिया प्रोग्राम बना सकते हैं और हमारी घटिया सरकार और उसकी घटिया नीतियाँ इनको दिखा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व सबसे घटिया चैनल, दूरदर्शन पर सरकार की ओर से एक विज्ञापन आ रहा था कि भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर ध्यान न दें। अरे बेवकूफों जनता तो बेवकूफ है ही....वो भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर ध्यान देती है या नही वह दूसरी बात है पर उन विज्ञापनों और टी वी चैनलों पर दिखाने का अधिकार कौन देता है। जनता को भ्रमित करने वाले विज्ञापनों को उन्हे देखने के लिये कौन मजबूर करता है...तुम। तुम्हारी जिम्मेदारी कहाँ गई।

सारी जिम्मेदारी सरकार और उसके बाद टीवी चैनल्स की है...वे ऐसे ही प्रोग्राम बनाना चाहते हैं जिसे जनता देखे। मीडिया अपनी नैतिक जिम्मेदारी भूलकर सिर्फ पैसा बनाने में लगी है। अगर जनता के आक्रोश का भय नही हो तो ये चैनल्स बलात्कार का भी लाइव टेलीकास्ट दिखा सकते हैं...चाहे वो किसी का भी हो...। जरूरत है सरकार अपनी जिम्मेदारी समझे और टीवी चैनल्स पर दिखाये जाने वाले प्रोग्राम्स और विज्ञापनों के लिये एक आचार संहिता बनाये...जिसे सभी चैनल्स अनुसरण करने के लिये बाध्य हों।

एन डी टीवी इमैजिन को शर्म आनी चाहिये...।

झाँसी के लक्ष्मण अहरिवार की अस्पताल में मृत्यु हो गई। वह अवसाद से पीड़ित था और उसके परिवार वालों ने कुछ दिनों पूर्व ही उसको वहाँ भर्ती कराया था। यह कोई महत्वपूर्ण बात नही है। रोज सैकड़ों लोग अस्पतालों में मरते हैं, कोई किसी को नहीं जानता। पर यह खबर अमर उजाला अखबार में निकली और तो और आज हिंदुस्तान टाइम्स, यानि कि राष्ट्रीय स्तर के अंग्रेजी अखबार में निकली है तो कोई ना कोई विशेष बात तो जरूर होगी।

विशेष यह है कि लक्ष्मण अपने परिवार के साथ एन डी टी वी इमैजिन पर आने वाले प्रोग्राम- राखी सावंत का इंसाफ, में 23 अक्टूबर को शामिल हुआ था अपने घरेलू झगड़े को सुलझाने की कोशिश में। लक्ष्मण की शादी इसी साल फरवरी में हुई थी और कुछ दिनों के बाद ही उसकी पत्नी से अनबन रहने लगी। कुछ दिनों के बाद उसकी पत्नी अपने मायके में रहने लगी और लक्ष्मण परेशान रहने लगा। पत्नी का कहना था कि ससुराल पक्ष के एक आदमी की उसपर बुरी नियति थी। सच क्या था वह तो कोई नही जानता था। लक्ष्मण को इस प्रोग्राम के बारे में जानकारी हुई और पता नही किस सोर्स या फिर जरिये उसे इस प्रोग्राम में हिस्सा लेने का मौका मिल गया। शायद उसे राखी सावंत के बारे में नही पता होगा। प्रोग्राम में राखी सावंत ने उसे कई बार नामर्द कहा। शूटिंग खत्म हुई और इसका टेलीकास्ट भी हुआ। शूटिंग के बाद से ही लक्ष्मण अवसाद में रहने लगा। कुछ दिनों के बाद उसने खाना-पानी छोड़ दिया, तब उसके परिवार वालों ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया। वहाँ कल उसकी मौत हो गई। यह खबर कल अमर उजाला में निकली थी जिसमें उसके परिवार वालों ने कहा था कि वे राखी सावंत पर केस करेंगे। आज हिंदुस्तान टाइम्स में खबर है कि लक्ष्मण के परिवार वालों ने राखी पर एफ आई आर दर्ज कराया है।


मैं इस घटिया प्रोग्राम के बारे में नही जानता और न मैने कभी इसे देखा है। सबसे ज्यादा हैरत यह जानकर हुई कि यह प्रोग्राम एन डी टीवी इमैजिन पर आता है। यह एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल है और इसकी कुछ तो नैतिकता होनी चाहिये। राखी सावंत के बारे में कुछ कहना अपनी जिह्वा पर कालिख लगाना है, इसलिये मैं उसपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। मुझे एन डी टी वी इमैजिन के बारे में कहना है। सवाल यह है कि क्या आजकल टी आर पी के लिये न्यूज चैनल किसी भी हद तक जा सकते हैं...जवाब हैं हाँ...। पैसे के खेल में टीवी चैनल आज जानते ही नही कि उनकी क्या जिम्मेदारी है। वे घटिया से घटिया प्रोग्राम बना सकते हैं और हमारी घटिया सरकार और उसकी घटिया नीतियाँ इनको दिखा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व सबसे घटिया चैनल, दूरदर्शन पर सरकार की ओर से एक विज्ञापन आ रहा था कि भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर ध्यान न दें। अरे बेवकूफों जनता तो बेवकूफ है ही....वो भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर ध्यान देती है या नही वह दूसरी बात है पर उन विज्ञापनों और टी वी चैनलों पर दिखाने का अधिकार कौन देता है। जनता को भ्रमित करने वाले विज्ञापनों को उन्हे देखने के लिये कौन मजबूर करता है...तुम। तुम्हारी जिम्मेदारी कहाँ गई।

सारी जिम्मेदारी सरकार और उसके बाद टीवी चैनल्स की है...वे ऐसे ही प्रोग्राम बनाना चाहते हैं जिसे जनता देखे। मीडिया अपनी नैतिक जिम्मेदारी भूलकर सिर्फ पैसा बनाने में लगी है। अगर जनता के आक्रोश का भय नही हो तो ये चैनल्स बलात्कार का भी लाइव टेलीकास्ट दिखा सकते हैं...चाहे वो किसी का भी हो...। जरूरत है सरकार अपनी जिम्मेदारी समझे और टीवी चैनल्स पर दिखाये जाने वाले प्रोग्राम्स और विज्ञापनों के लिये एक आचार संहिता बनाये...जिसे सभी चैनल्स अनुसरण करने के लिये बाध्य हों।

Friday, November 5, 2010

काश कि.... दीपावली मंगलमय हो.............




सबसे पहले, सभी दोस्तों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...।

पूरे विश्व में, अंधकार पर प्रकाश के विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने
वाला, एकमात्र उत्सव है...दीपावली। हमारी संस्कृति और परंपराओं ने सदा ही
सृष्टि के कण-कण को उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता के अनुसार महत्व प्रदान
किया तथा उनसे सीखने का प्रयास भी किया है। हमने अच्छाईयों को सीखने की
कोशिश की और हमने उनको व्यवहार में लाने का प्रयास किया, किंतु हर काल
में, समाज व्याप्त प्रति ताकतों ने हमें वैसा करने से रोका, उन आदर्शों
पर चलने एवं उनको प्राप्त करने के पथ में अवरोध उत्पन्न किये। दुख की बात
है कि हमारी अच्छी सोच व दृष्टिकोण सदैव ही उनके प्रतिदृष्टिकोण के सामने
दीन-हीन ही सत्यापित हुए हैं, जिसके फलस्वरूप कुछ लोगों ने दिग्भ्रमित
होकर हमारी अपनी ही परंपरा और संस्कृति के प्रति आक्रामक रुख अपना लिया।

मित्रों भारतीय संस्कृति और इसकी सर्वहितकारी सोच ने कभी भी किसी का बुरा
नही चाहा, यह प्राणि मात्र की भलाई के प्रति अग्रसर करने वाली एक अनादि
सोच व दृष्टिकोण है जो हमारी स्वयं की उपेक्षा की शिकार है। कोई भी देश
और समाज अपनी संस्कृति और परंपराओं को छोड़ कर लंबे समय तक अपना अस्तित्व
बनाकर नही रख सकता। शायद ही आपको पता हो कि औपनिवेशक काल में, जब
इंग्लैंड और अन्य यूरोपीय देशों ने व्यापार के नाम पर पूरे एशिया को अपने
पंजे में कसना प्रारंभ किया था और चीन को अपने कब्जे में ले लिया था, तब
जापान ने क्या किया था। वह उस समय उन औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ एक दम से
खड़ा नही हो सकता था...सोचिये उसने अपना अस्तित्व बचाने के लिये क्या
किया...। 1636 ईस्वी में जापान ने सारे विदेशियों को अपने देश से निकाल
दिया और अपने आपको मोहरबंद कर लिया। उसने अपने सारे वैदेशिक संबंध तोड़
लिये और अपने समुद्र किसी भी प्रकार के व्यापार के लिये बंद कर लिये।
जापान से न कोई बाहर जा सकता था और न ही अंदर आ सकता था, भले ही वह
जापानी ही क्यों ना हो। लघभग दो सौ सालों तक जापान ने अपने आपको शेष
दुनिया से अलग रखा। किसी भी प्रकार की कोई हलचल का जापान पर प्रभाव नही
पड़ा और इस समय का उपयोग उसने अपना विकास अपने दम पर करने में लगाया, अभी
जापान पूरे विश्व में कहाँ खड़ा है, किसी से छुपा नही है। विश्व की सबसे
बड़ी त्रासदी...दो-दो एटम बमों को अपने सीने पर खाकर भी ये देश मानों पूरी
दुनिया को संदेश दे रहा है कि, तुम हमारी सभ्यता, संस्कृति और परंपरा को
नही खत्म कर सकते।


दीपावली के अवसर पर शायद आपको लग रहा हो कि मैं संस्कृति, परंपरा इत्यादि
का रोना क्यों रो रहा हूँ...। पहली बात कि हमें इन्हे बचाकर रखना
है...क्योंकि आगे आने वाली पीढ़ी को हम क्या देने वाले हैं, यह हमें सोचना
है। हमें उन्हे पिज्जा बर्गर देकर यह संदेश देना है कि हम नकलची बंदरों
ने उन स्वाद का मतलब न समझने वाले गधों के बनाये फास्ट फूड्स चटखारे
ले-लेकर खाये और अपना सत्यानाश कर लिया..या फिर विकास का सही मतलब समझते
और अपनाते हुये अपनी धरोहर को सँजोते हुये भविष्य का संदेश।

भारत के सामने हमेशा से चुनौतियाँ रही हैं और रहेंगी, बस उनमें परिवर्तन
इतना ही हो सकता है कि उनका स्वरूप बदल जाये...। वर्तमान में चुनौतियों
का स्वरूप भ्रष्टाचार, गरीबी, असमानता और अशिक्षा के रूप में हैं, हम
इन्हे दूर कर सकते हैं या फिर पिज्जा बर्गर खाते और कोक पीते हुये फुटपाथ
पर चीथ़ड़ों में लिपटी बूढ़ी औरत पर हँस सकते हैं...। अँधेरे चारों ओर
व्याप्त हैं, एक अमावस्या पर छाये घने अंधेरे को अपने घर में दिये जलाकर
दूर करने का प्रयास काफी नही है, जबतक कि एक अरब लोगों के आस पास छाया
अंधेरा दूर नही होगा....।


सुरेंद्र...

दीपावली

05 नवंबर 2010

Thursday, November 4, 2010

हम आजाद हैं...

मैं पिछले कई दिनों से एक छोटी पुस्तक लिखने की कोशिश कर रहा था जिसका शीर्षक था- क्या हम आजाद हैं। लागातार कई बार लिखना प्रारंभ करने के बाद भी मुझे कोई ठोस शुरुआत नहीं मिली जिस रास्ते पर चलते हुए मैं यह पुस्तक पूरी कर पाता, पूरी क्या कर पाता, इसका पहला चैप्टर-आजादी क्या है, को ही पूरा कर पाता। मेरी समझ में यह बिलकुल नही आ रहा था कि मैं इस विषय पर मैं क्यों नही लिख पा रहा हूँ...जबकि मैंने कई छोटे-छोटे विषयों पर लंबे-लंबे लेख बड़ी आसानी से लिखे हैं। यह एकदम से विचित्र बात थी, क्योंकि इसकी भूमिका मैंने पहले ही लिख दी थी लेकिन उससे भी मुझे कोई सहायता नही मिली। अपने लिख पाने की असमर्थता को मैने अपने दोस्तों के सामने भी व्यक्त किया लेकिन कोई निष्कर्ष नही निकला। सबसे बड़ी समस्या यह थी कि मुझे शुरुआत ही नही मिल रही थी। मैने कई बार लिखा, फिर फाड़ा, और फिर लिखा...पर मन को संतुष्टि नही मिली, कहीं से भी कोई लाइन मानकों को नही पूरा कर रही थी।

मैं बार-बार की कोशिशों के बावजूद भी, क्या हम आजाद हैं, विषय पर क्यों नही लिख पाया...इसका उत्तर मुझे कल मिला। कल 2 नवंबर को मुझे बामसेफ (आल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनारिटी कम्यूनिटी इंप्लाई फेडरेशन) के भारत मुक्ति मोर्चा के क्षेत्रीय सम्मेलन में जाने का अवसर मिला जिसकी चर्चा का विषय था कि 1947 की आजादी वास्तविक रूप में आजादी नही थी, वह यूरेशियाई ब्राह्मणों द्वारा अपनी आजादी की लड़ाई थी। मुझे बामसेफ के जिला सचिव डा. एस.एस. पटेल ने बुलाया था, जिनसे अक्सर सम-सामयिक विषयों पर चर्चा हो जाया करती है। उन्होनें मुझे वहाँ एक फोटोग्राफर की हैसियत से बुलाया था। जब मैं वहाँ पहुँचा तो कार्यक्रम शुरू हो चुका था। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यह बहुत बड़ा सम्मेलन नही था जिसमें हजारों लोग उपस्थित थे। खैर सम्मेलन शुरू हो चुका था जिसकी अध्यक्षता बामसेफ के राष्ट्रीय सचिव, चमनलाल कर रहे थे...और मुझे बिलकुल भी पता नही चला कि वो कौन हैं क्योंकि जिस आदमी को मैं चमनलाल समझ रहा था वे पास के कस्बे के वक्ता निकले। स्षानीय लोग बोल रहे थे और मैं फोटोज ले रहा था।





बामसेफ एक ऐसा संगठन है जिसका एक ही घोषित कार्यक्रम है, देश में व्याप्त सभी प्रकार की समस्याओं का जिम्मेदार एक ही कारण है-ब्राह्मण। उनका एक ही उद्देश्य है, ब्राह्मणों को ऊंचे पदों से हटाकर स्वयं कब्जा जमाना। जाहिर सी बात है कि बामसेफ का सम्मेलन था तो वक्ता भी उसके घोषित कार्यक्रमों और उद्देश्यों के अनुसार ही बोलेंगे। कई वक्ता आये और उन्होनें अपना विचार प्रकट किया। सभी लोग एक सुर में गाँधी की कठोर शब्दों में भर्त्सना कर रहे थे और यथास्थान अनुपयुक्त शब्दों से नवाज भी रहे थे। यहाँ एक बात महत्वपूर्ण है कि बामसेफ के कार्यकर्ताओं में हमारे इतिहास को लेकर एक भ्रम की स्थिति बना दी गई है जिसमें फँसकर वो उसी को सत्य मानते हैं जो उन्हे बताया जाता है। उनके अपने कुछ लेखक हैं अथवा उन लेखकों से वैचारिक सामंजस्य है जो दशकों से हमारी संस्कृति, परंपरा और धर्म के विषय में अनर्गल बातें लिख रहे हैं।

वक्ता बोल रहे थे और मैं फोटो खींचने के साथ सुन भी रहा था। सुनते-सुनते मेरे दिमाग पर छायी संशय की बदली छंटती जा रही थी, ठीक उसी प्रकार, जैसे अपने किसी दुश्मन को अकेले में उसके अन्य दुश्मनों द्वारा घिरे देखकर कोई वीर पुरुष उत्तेजित हो जाता है और उसकी सहायता के लिये उद्यत हो जाता है। मेरे विचारों में अचानक परिवर्तन हुआ और एक झटके में मुझे अहसास हो गया कि हम आजाद हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि हमने आजादी का मतलब नहीं समझा। मैंने संचालकों से कहा कि मुझे भी बोलने का अवसर दिया जाय। कुछ देर बाद मैं मंच पर बोलने के लिये गया और श्रोताओं का ध्यान उस एकमात्र कारण की ओर खींचा जिसकी वजह से आम भारतीय जनमानस कभी भी शोषण से मुक्त ही नही हो सका। वह कारण है अशिक्षा...निचले तबकों को हमेशा शिक्षा से वंचित रखा गया जिसकी वजह से उसको ज्ञान और आत्मसम्मान का अहसास ही नही हुआ...और जिसकी कमी की वजह से उसने मुट्ठी भर लोगों को अपना भाग्यविधाता तथा स्वयं को उनकी दयादृष्टि का आश्रित मान लिया। मैनें उनको शिक्षा और इतिहास की महत्ता के विषय में बताया जिसकी वजह से हमें अपना अतीत नही पता...और अतीत न पता होने के कारण हमें अपना वर्तमान भी नही पता...।


वहाँ से आने के बाद अपनी लघु पुस्तिका के शीर्षक और उसके विषय-वस्तु के बारे में मैंने पुनः विचार किया और पाया कि मैं एक ऐसे विषय पर लिखने की व्यर्थ कोशिश कर रहा था जो वास्तव में है ही नही। हाँलाकि ऐसा भी साहित्य है जो पूर्णतया कल्पना पर आधारित है, लेकिन उस साहित्य को गल्प कहा जाता है। मैं गल्प नहीं लिख रहा था और इसी कारण से मुझे शब्द नही मिल रहे थे। वास्तविकता यह है कि हम आजाद हैं, लेकिन कुछ स्वार्थी लोगों की वजह से हम आजादी का मतलब नही समझ पाये, हममें आजाद होने की भावना का विकास ही नही हो पाया, जिसका फायदा उठाकर कुछ लोगों ने आम जनता को बहलाना शुरु किया कि हम आजाद नही हैं....।

सुरेंद्र पटेल...

Wednesday, August 18, 2010

जय हिंद



मैने यह आर्टिकल 16 अगस्त को लिखा था लेकिन ब्लाग पर पोस्ट आज कर पा रहा हूँ।

कल हमारे भारत का 64वाँ स्वतंत्रता दिवस था और विश्वास कीजिये, मैं बहुत खुश था कि हम स्वतंत्र हैं लेकिन साथ ही साथ मैं दुखी भी था कि हमने स्वतंत्रता का गलत उपयोग किया...ठीक उसी प्रकार जैसे कि हमारे अध्यात्मिक चर्चाओं और साहित्य में कहा गया है कि हमने ईश्वर से यह कहकर मानव जीवन माँगा था कि हम उसका भजन करते हुये सारी सृष्टि को उसकी कृति मानकर उसके समन्वित विकास का मार्ग प्रशस्त करते हुये अपने जन्म को सार्थक बनायेंगे और पुनः उसी में समाहित हो जायेंगे, लेकिन होता ठीक इसके विपरीत है। हम पृथ्वी पर आते ही उसके अस्तित्व को ही बिसरने लगते हैं और याद करते हैं उस वक्त जब हम मुसीबत में होते हैं। यही हाल हमारे स्वतंत्रता दिवस का है। जब हम गुलाम थे तब हम आजाद होने के बारे में सोचा करते थे...यह सोचा करते थे कि काश हम आजाद होते तो देश के लिये क्या-क्या नही करते, विकास के वे सारे मार्ग प्रशस्त करते जो अंग्रेजों ने रोक रखा है, अपने देश की गरीबी दूर करते, वगैरह-वगैरह...। ठीक वैसे ही जब हम धरती पर नही थे तो धरती पर आने की सोचते थे।

बच्चा जन्म लेते ही रोता है....बहुत रोता है, क्योंकि उसे पता चल जाता है कि ईश्वर की गोद से निकलकर उसने बहुत बड़ी गलती की। कुछ ऐसा ही हुआ हमारी स्वतंत्रता के विषय में, सत्ता के लोभ में दंगे कराये गये और लाखों लोग मारे गये। जिस आजादी के लिये भारत पिछले सौ सालों से संघर्ष कर रहा था और पूरी तरह एकजुट था....पैंतीस करोड़ लोग सिर्फ एक आवाज पर कुछ भी कर सकते थे। उन्ही पैंतीस करोड़ लोगों से सिर्फ सत्ता हथियाने के लिये विश्वासघात किया गया। जो आजादी की लड़ाई सिर्फ भारत के लिये थी, कुछ लोगों के सत्ता लोभ की वजह से मात्र एक दिन के अंतर से भारत और पाकिस्तान की आजादी के रूप में समाप्त हुई।

भारत की जनता भेड़ बकरियाँ है जिनपर शासन करने के लिये मात्र शासक का रूप और सत्ता का स्वरूप बदला गया, वरना स्थिति 1947 के पहले से ज्यादा खराब है।

जिस आजाद भारत की नीँव ही सत्ता प्राप्ति के षडयंत्र के साथ शुरू हुई उसका निर्माँण कैसा होगा शायद उस समय महात्मा गाँधी नही समझ पाये होंगे क्योंकि 60 साल के बाद भारत में आदमी सठिया जाता है और गाँधी तो उस समय 78 साल के थे, अगर उनके दिमाग ने काम नही किया तो इसमें उनकी गलती नही समझी जानी चाहिये, लेकिन गलती तो हुई...। भारत की भलाई के लिये चाहे उन्होने कुछ भी किया हो लेकिन नेहरू के मोह में आकर उन्होने भारत का बुरा बहुत किया ठीक उसी प्रकार जैसे अर्जुन के मोह में आकर द्रोणाचार्य ने एकलव्य और कर्ण का किया था। द्रोणाचार्य के मोह की वजह से एकलव्य का नाश हो गया और कर्ण बागी बन गया...वरना क्या पता, गुरू के समझाने पर कर्ण का विचार बदलता और वह दुर्योधन का साथ छोड़ देता। कर्ण बुरा नही था, उसे बुरा बनाया गया, कारण क्या थे चर्चा करना बेकार है। ठीक ऐसा ही हुआ जिन्ना के साथ। वे बलि के बकरे बनाये गये, क्योंकि वे बलि के लिये ही बने थे, लेकिन जिन्ना कर्ण की तरह बेकवूफ और दिमाग से पैदल नही थे। वैसे भी वो त्रेतायुग की बात थी और जिन्ना कलयुग के जिन्ना थे। उनका ध्येय यही था कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी तैरने नही देंगे, क्योंकि डुबाने की औकात जिन्ना में नही थी, और ना ही पाकिस्तान में है। यही कारण है कि आज भी भारत के विकास रूपी पहिये में, मार्ग में पड़े पाकिस्तान नाम की सूई से एकाध पंक्चर हो ही जाते हैं।

आजादी के बाद भारत की जनता समझ ही नही पायी कि हुआ क्या...वे भारत की आजादी के लिये लड़ रहे थे और बाद में भारत और पाकिस्तान के लिये अपने में मर कट रहे थे। भारतीय इतिहास का सबसे काला पन्ना जो आठवीं शताब्दी में अरबों के आक्रमण और नादिर शाह के कत्लेआम से भी भयानक था जिसमें लाखों लोगों ने अपनी जान व्यर्थ में गवांई, क्यों इसका जिम्मेदार कौन था। 1919 में जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था और लगता था कि भारत को आजादी मिल ही जायेगी, तब चौरीचौरा में एक छोटी सी हिंसात्मक घटना की वजह से समूचा आंदोलन यह कहकर वापस ले लिया गया कि देश आजादी के लिये तैयार नही था। यह गाँधी का धैर्य था, और जब करो या मरो आंदोलन शुरू किया गया उस समय तो पूरा विश्व ही विश्वयुद्ध की आग में जल रहा था...यह गाँधी की जल्दबाजी नही थी। इसके साथ ही साथ उस समय जिन्ना एक अजगर की तरह मुँह बाये खड़े हो चुके थे जिनका पेट बिना भारत को खाये या फिर पाकिस्तान लिये बिना नही भरने वाला था। गाँधी की समझ में यह नही आया कि इस समय देश की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण जिन्ना को विश्वास में लेना था और नेहरू पर से अँधविश्वास हटाना था। गाँधी कूटनीतिक थे, लेकिन पारिवारिक बिलकुल नही थे। काश कि उन्होने परिवारों के विघटन और तत्पश्चात उनमें पैदा होने वाली घृणा और ईर्ष्या को देखा होता तो वे देश के बँटवारे के लिये कभी तैयार नही होते। कहने का अर्थ यह है कि जिस तरह भारत ने 1919 से 1947 तक इंतजार किया उसी तरह कुछ साल और कर सकता था, जब देश वाकई आजादी के लायक हो जाता। सारा काम हड़बड़ी में हुआ, इस डर से कि कहीं जिन्ना के बाद कोई और ना खड़ा हो जाये जो सत्ता पर अधिकार जताने की कोशिश करे। देश को आजादी का मतलब समझने लायक बनाया ही नही गया और उसके हाथ में आजादी का लालटेन थमा दिया गया।

यहाँ एक बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि शिक्षा आजादी का मतलब समझने के लिये सबसे अहम चीज है जिससे भारत की जनता को मरहूम कर दिया गया। गाँधी ने आजादी के लिये स्कूल के छात्रों और कालेज के युवाओं का आह्वान किया जिन्होने सबकुछ छोड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लिया, लेकिन गाँधी ने विदेश में पढ़ रहे उद्योगपतियों और सेठों के ल़ड़के और लड़कियों का आह्वान नही किया, वे आते भी नही, लेकिन बाद में उन्ही पढ़े लिखे लोगों ने सत्ता और धन पर कब्जा जमाना प्रारंभ किया जो आज तक है।

जो देश हजारों सालों से मानसिक, शारीरिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक गुलामी से जकड़ा पड़ा था उसे सिर्फ सत्ता का स्वरूप बदल देने से ही आजाद नही कराया जा सकता था, लेकिन फिर भी कोशिश की गयी और नतीजा हमारे सामने है। देश की वही स्थिति है जो आजादी से पहले थी, फर्क सिर्फ शासक वर्ग में है, वरना गरीबों की हालत तो कहीँ से बदली नही दिखती....।

भारत की नयति में गुलामी लिखी है। हजारों सालों पहले धार्मिक गुलामी, ब्राह्मणों की गुलामी जिन्होने निम्न वर्ग की आत्मा तक को गुलाम बना रखा था। उसके बाद अरबों, तुर्कों और पता नही किन आक्रमणकारियों की गुलामी, उसके बाद मुगलों की गुलामी और फिर अंग्रेजों की गुलामी। जिस भी आक्रमणकारी का मन किया मुँह उठाकर भारत पर आक्रमण करने चला आया और इसकी आत्मा का ब..........र करके चला गया, बहुत मन किया तो यहीं रुक कर वही ब..........र बार बार किया, मजे की बात यह कि अपने नमक हलाल इतिहासकारों द्वारा अपना गुणगान भी कराया। किसी देश के लिये इससे शर्म की बात क्या हो सकती है कि उसका इतिहास उसी की आत्मा को रौंदने वालों के लेखकों द्वारा लिखा गया है। पता नही हम किस महान भारत पर गर्व करते हैं, पहले के या फिर आज के...(जबसे भारत का इतिहास लिखा गया है, मौर्य काल के बाद, ज्यादा से ज्यादा सातवीं शताब्दी तक) पहले का भारत तो सिर्फ पढ़ा है और उस पर भी विश्वास नही किया जा सकता, लेकिन आज का भारत तो आँखो देख रहा हूँ, जिस पर गर्व नही किया जा सकता.....सिर्फ आँसू बहाया जा सकता है। अपरिचित नाम की फिल्म में नायक एक बूढ़े व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मौत पर आँसू बहाता है जिसे बचाया जा सकता था, अगर किसी गाड़ीवाले ने समय से उसे पहुँचा दिया होता। नायक कई गाड़ी वालों को रोकता है पर कोई नही रुकता। वह रोता है और उसकी माँ उसे कहती है कि हम कुछ नही कर सकते, नायक कहता है, हम कुछ नही कर सकते, कम से कम आँसू तो बहा सकते हैं....। तो भारत के निवासियों आँसू बहाओ....क्योंकि स्थिति इससे भी ज्यादा खराब होने वाली है।

इतिहास ने हमेशा आक्रमणकारियों और हत्यारों को नायक का दर्जा दिया है, वरना आज हमारे पाठ्यक्रम में बिन कासिम, गजनबी, बाबर इत्यादि का इतिहास नही होता और ना हम उसे पढ़ते।

अगर हम गुलाम नही होते क्या खालिस्तानी आतंकवाद शुरू हुआ होता, हम गुलाम नही होते तो क्या नक्सली समस्या होती, हम गुलाम नही होते तो क्या कश्मीर समस्या होती, हम गुलाम नही होते तो क्या विषम विकास की समस्या होती, अगर हम गुलाम नही होते तो क्या भ्रष्टाचार की समस्य होती...गिनाते गिनाते मैं थक जाउंगा और आप पढ़ते-पढ़ते। असली मुद्दा यह है कि हम वास्तव में तबतक आजाद नही होंगे जब तक कि हम अपनी आजादी का मतलब नही समझ लेते। लोकतंत्र तभी तक है जबतक हम गलत चीजों का विरोध नही करते...नही तो कालांतर में गलत चीजें ही सही लगने लगती हैं। इसीलिये 64वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाते हुये मैं खुश भी था और दुखी भी.....।

सुरेंद्र पटेल...

Wednesday, August 11, 2010

हैवानियत

यूं तो भारत में हर तरह की सम्स्यायें विद्यमान हैं, जो छोटी हैं, बड़ी हैं। पर आज जिस चीज के बारे में बात करना चाहता हूँ, उसका निर्णय पाठक ही करेंगे कि वह कैसी है, छोटी या बड़ी।

भारत के दूर दराज के इलाकों में आज भी सवारी और बोझा ढ़ोने के लिये दूसरे दर्ज को घोड़ों का प्रयोग किया जाता है। ये घोड़े और घोड़ियाँ आकार में छोटे और दिखने में कमजोर होते हैं। काम में लाते वक्त इनकी पीठ पर इनकी क्षमता से दोगुना-तिगुना बोझ लाद दिया जाता है, जिसे ना ले जाने की स्थिति में इनकी पीठ पर लागातार चाबुकों की मार पड़ती रहती है। इनको काम में लाने वाले मुख्यतः भूमिहीन और बेहद ही गरीब तबके के लोग होते हैं जो इनके चारा पानी की व्यवस्था न कर पाने की स्थिति में इनको चरने के लिये सड़क के किनारे या फिर मैदान में चरने के लिये छोड़ देते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि घोड़ा दिन भर कुछ न कुछ कमाता ही रहता है, फिर भी पेट भरने के लिये उसके लिये भोजन की व्यवस्था नही की जाती, जबकि इसके मालिक अक्सर शराब पीकर कहीं न कहीँ लुढ़के रहते हैं। उसपर भी इन घोड़ों को चरने या फिर घूमने के लिये कैसे छोड़ा जाता है, वह नीचे के चित्र से स्पष्ट है-



दिन भर इनकी क्षमता से अधिक काम लेने के बाद इनको पेट भरने के लिये छोड़ दिया जाता है, वो भी इनके आगे के दोनों पैरों को बाँधकर, ताकि घोड़ा ज्यादा दूर या फिर भाग न सके। पैर बँधे होने के कारण घोड़ा बड़ी ही तकलीफ से पहले पिछले पैर को आगे लाता है और फिर उनके सहारे दोनो बँधे पैर एक साथ उठाकर एक कदम आगे बढ़ाता है और यह प्रक्रिया लागातार चलती रहती है । घोड़ा एक-एक कदम चलने की इस कष्टकारक प्रक्रिया अक्सर घोड़े के पैरों मे घाव हो जाता है जो बिना किसी इलाज के बढ़ता ही जाता है और घोड़ा लागातार असहनीय दर्द से बिलबिलाता रहता है। यही नही उस पर लागातार मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं जो उसके दर्द को और बढ़ाती रहती हैं।

हमारी सरकार जो खुद भ्रष्टाचार में बुरी तरह लिप्त है, उससे यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह इनक लिये कुछ करेगी, क्योंकि उसे तो इंसानों की ही फिक्र नही है, पर इनकी भलाई के लिये क्या हम कुछ नही कर सकते......

Tuesday, August 10, 2010

उत्तर बनाम दक्षिण भाग एक-शिक्षा

भारत में कुल 300 मेडिकल कालेज हैं जिनमें 143 सरकारी क्षेत्रों में तथा 157 निजी क्षेत्रों में है। मैं मेडिकल कालेजों की संख्या के बारे में चर्चा नही बल्कि उनकी संख्या के विभिन्नता के बारें में चर्चा करना चाहता हूँ।

महाराष्ट्र में 41, कर्नाटक में 39, आन्ध्राप्रदेश में 33, तमिलनाडु में 32 तथा केरल में 22 मेडिकल कालेज हैं। कुल मिलाकर 167 मेडिकल कालेज दक्षिण के पाँच राज्यों में हैं जो भारत की एक तिहाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व भी नही करते। बाकी के 133 मेडिकल कालेज देश के बाकी राज्यों मे हैं जिनमें से 22 उत्तरप्रदेश तथा 21 गुजरात मे हैं। अगर इन दो राज्यों के कालेजों को निकाल दिया जाय तो बचते हैं 90 कालेज जो कि देश के बाकी राज्यों में हैं।

आज के परिवेश में जब पूरा भारत उत्तर भारत के कुछ राज्यों, जिनमें से उत्तर प्रेदश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों को पिछड़ा और अशिक्षित मानता है, तब यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि उत्तर भारत के ये राज्य इस अवस्था में क्यों हैं या फिर इनका जिम्मेदार कौन है।

ऊपर मैंने मेडिकल कालजों का एक उदाहरण दिया जो आधे से अधिक दक्षिण के पाँच राज्यों में है। किसी भी व्यक्ति, समाज या देश के विकास और प्रगति में सबसे ज्यादा जरूरी चीज है शिक्षा, वह भी स्तरीय जो उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण के राज्यों में अधिक सरलता से उपलब्ध है। दक्षिण के राज्यों में जब बच्चा हाईस्कूल या फिर बारहवीँ में होता है तो वह अपना एक टार्गेट बना चुका होता है कि उसे क्या बनना है, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या फिर साइंटिस्ट। हालाँकि उत्तर भारत के राज्यों में भी कैरियर के प्रति सजगता में विकास हुआ है लेकिन फिर भी बहुत सारी कमियाँ है। दक्षिण के राज्यों में बीटेक की डिग्री लेकर निकलने वाला एक सामान्य इंजीनियर डिग्री के साथ संचार के सशक्त माध्यम अंग्रेजी को भी साथ लेकर निकलता है जो मल्टीनेशनल कंपनियो में काम करने के लिये बुनियादी जरूरत है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राज्यों के स्टूडेंट्स में पहला और बुनियादी अंतर यही जो आगे चलकर नौकरी पाने के अवसरों में विचलन पैदा करता है।

दक्षिण भारत के राज्यों ने शिक्षा व्यवस्था पर बहुत ही ज्यादा ध्यान दिया है और परिणाम सामने है। वहीं उत्तर भारत के राज्यो, विशेषकर उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दुर्गति अगर किसी व्यवस्था की हुई है तो वह शिक्षा व्यवस्था है। सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों, हायर सेकेंडरी स्कूलों और कालेज्स की हालत यह है कि दक्षिण भारत के कालेजों का सबसे कमजोर छात्र यहाँ के सबसे अच्छे छात्र को चैलेंज कर सकता है।

पिछले दिनों एक सरकारी मिडिल स्कूल का एक छात्र मेरे पास फोटो खिंचवाने आया। मैने उसे रेट बताया कि पंद्रह रुपये में तीन पासपोर्ट फोटो बनेंगे। ल़ड़के ने कहा मेरे पास दस रुपये हैं। मेरा जवाब था नही। पास बैठे मेरे दोस्त सेराज ने जो कि एक एडवोकेट है वो कहा कि बना दो...लड़का है। मैन कहा कि इसे घर से पंद्रह रुपये मिले होंगे फोटो खिंचवाने के लिये। पर ये दो फोटो खिंचवा कर पाँच रुपये बचाना चाहता है। जो कि भ्रष्टाचार का पहला पायदान है। जो चीज हमारी नही उसे लेना चोरी है। खैर सेराज के बहुत कहने पर मैने दो फोटो बनाने को तैयार हो गया। साथ में किसी और की फोटो भी बनानी थी इसलिये मैने दोनो की फोटो साथ लगा दी और जब वे प्रिंट होकर निकले तो पता चला कि उस लड़के की तीन फोटो निकल गई थी। मैने कहा अब तो तीन के पैसे देने ही पड़ेंगे। कमाल की बात थी, कि वह बिना कुछ कहे पंद्रह रुपये देकर चला गया। इस बात का संदर्भ मैं शिक्षा व्यवस्था पर देना चाहता हूँ, वह यह था कि फोटो तैयार करते वक्त मैनें उसकी पढ़ाई के विषय में बात करना प्रारंभ कर दिया। वह छठीं या फिर सातवीँ क्लास में था, उसे यह नही पता था कि सातवीं कक्षा को अंग्रेजी मे क्या कहते हैं। उसे नौ का पहाड़ा तक नही याद था और वह हिंदी वर्णमाला के अक्षरों तक को नही जानता था। उसे यह नही पता था कि उसके विद्यालय का गेट किस दिशा मे हैं। शायद उससे यह पूछा जाता कि वह किस देश मे रहता है तो वह यह भी नही बता पाता। उसके अनुसार उसकी दिन में सिर्फ तीन कक्षायें चलती हैं जिनमें उसे हिंदी, गणित और संस्कृत पढ़ाये जाते हैं। सरकारी स्कूलों मे पढ़ने वाले कक्षा सात के विद्यार्थी के बारे में उपरोक्त तथ्य जानकर आश्चर्य के साथ-साथ दुख भी होता है कि जब प्राइमरी लेवल की शिक्षा व्यवस्था का ये हाल है तो क्या उम्मीद की जा सकती है कि उच्च शिक्षा की क्या हालत होगी।

दूसरा उदाहरण और भी विचारणीय है। मेरे जनपद का सबसे अच्छा हाईस्कूल जिसकी शिक्षा व्यवस्था विद्यालय के कथनानुसार प्रदेश में तीसरे स्थान पर है। उसके एक छात्र ने उत्तर प्रदेश बोर्ड के हाइस्कूल की परीक्षा में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। जिसका विज्ञापन अखबारों, विद्यालय के प्रचार माध्यमों से दो सालों तक जोरशोर से किया गया। वही छात्र दो साल बाद बी एस सी के इंट्रेंस इग्जाम में गोरखपुर विश्विद्यालय की प्रवेश परीक्षा तक नही पास कर पाया। वर्तमान मे जनपद की थर्ड क्लास कालेज में बी एस सी कर रहा है। यह एक निजी विद्यालय है जो दिन दोगुनी रात चौगुनी वृद्धि कर रहा है लेकिन सिर्फ पैसा कमाने में। विद्यालय के विषय में एक हास्यास्पद बात और है कि यह प्रदेश का तीसरा सबसे अच्छा विद्यालय है। जिसका कुल कैंपस ही एक एकड़ है। विद्यालय भवन में लघभग बीस से पच्चीस कमरे हैं और उसके अध्यापकों की स्थिति और भी चिंताजनक है। जब मैंने इसके तीसरे स्थान के बारे में सुना तो मुझे अचानक ही फैजाबाद के जिंगल बेल्स एकेडमी की याद आ गयी। जहाँ मैं राज्य स्तरी बाल विज्ञान कांग्रेस में हिस्सा लेने के लिये प्रथम बार महराजगंज की ओर से 1999 में गया था। जब मैं दसवी क्लास में था। 1999 में जिंगल्स बेल्स एकेडमी को देखने पर पहली बार अहसास हुआ कि कालेज ऐसे भी होते है। उस समय उत्तर प्रदेश का तीसरा कालेज महज आठ तक था। और किराये के मकान में चलता था। तीन से चार मंजिलों की जिंगल्स बेल्स एकेडमी की इमारतें अपनी भव्यता का गुणगान कर रही थी। क्लासेज इतने बड़े थे कि उत्तर प्रदेश के तीसरे कालेज के तीन कमरे उसमें समा जाये। यहाँ तक कि गोरखपुर विश्विद्यालय के क्लासेज भी आगे फीके थे। कालेज की अपनी ए क्लास की कैंटीन, टीचर्स अपर्टमेंट थे। 1999 में कालेज का कंप्यूटर रूम पचास के लघभग कंप्यूटरों से भरा था। कालेज के फर्श पर धूल का एक कण भी दिखाई नही देता था, और प्लेग्राउंड इतना बड़ा था कि उत्तर प्रदेश के तीसर कालेज जैसे आठ-दस कालेज इसमें बन जाते। सबसे बड़ी बात बता दें कि स्टूडेंट्स, जिनको देखने से ही लगता था कि ये किसी ए क्लास कालेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं। प्राइज डिस्ट्रीब्यूशन के दौरान वहाँ के आडिटोरियम जाने का मौका मिला और मैने जाना कि आडिटोरियम क्या होता है। जब कि गोरखपुर यूनिवर्सिटी आडिटोरियम को बने कुछ साल हुये। जिंगल्स बेल्स एकेडमी के सेमी ओपेन आडिटोरियम में ऐसा लग रहा था कि मैं किसी और दुनिया में था। मुझे वहाँ एकमात्र स्पेशल कांशोलेशन प्राइज मिला और मैं उस पल को याद करके आज भी रोमांचित हो जाता हूँ। खैर इस बात को बीते और जिंगल्स बेल्स एकेडमी को देखे ग्यारह साल हो गये और विश्वास है कि उस कालेज ने और भी ज्यादा तरक्की की होगी, लेकिन अगर उत्तर प्रदेश के तीसरे कालेज और ग्यारह साल पहले के जिंगल्स बेल्स एकेडमी की तुलना करें तो आज उत्तर प्रदेश का तीसरा कालेज ग्यारह साल पहले के जिंगल्स बेल्स एकेडमी के बराबर क्या नीचे बैठने के लायक भी नही है। न शिक्षा के बारे में, न व्यवस्था के मामले में और न ही विद्यार्थियों के मामले में। कमाल की बात यह है कि मैं स्वयं भी आज से तेरह साल पहले इसी उत्तर प्रदेश के तीसरे कालेज से आठवीं पास हूँ। तब जब ये स्कूल किराये के मकान में चलता था।

अपवाद हर जगह होते हैं और उत्तर प्रदेश में भी शिक्षा के साथ हर क्षेत्र में भी। जिंगल्स बेल्स एकेडमी जैसे और भी कालेज होंगे जो अपने स्तर से अच्छा कर रहे होंगे लेकिन अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता। ऊपर से जिंगल्स बेल्स एकेडमी जैसे स्कूल प्राइवेट सेक्टर में हैं जिनकी फीस आम आदमी अफोर्ड नही कर सकता। राज्य सरकार को चाहिये कि वो शिक्षा व्यवस्था में तत्काल सुधार करे ताकि आने वाले सालों में शिक्षा का स्तर उपर उठ सके और उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी भी विज्ञान, तकनीकी, कला, साहित्य और अन्य क्षेत्रों में, उत्तर प्रदेश मे रहकर ही कार्य कर सकें ताकि उत्तर प्रदेश से पिछड़ेपन और अविकसित होने का दाग धीरे धीरे मिटाया जा सके। वरना नाम डुबाने के लिये उत्तर प्रदेश का तीसरा कालेज है ही........

सुरेंद्र पटेल

Saturday, August 7, 2010

आई पी एल और दंतेवाड़ा के जवानों की कंपंशेसन राशि.......




मेरे दोस्त अरविंद ने मुंबई से आज एक मैसेज भेजा कि आई पी एल में खेलने वाले हर एक खिलाड़ी को तीन करोड़ रुपये मिले और छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में मरने वाले जवानों को मात्र एक लाख।

आज इस पर चर्चा करते हैं।

पहली बात तो यह कि आई पी एल में खेलने के लिये हर एक खिलाड़ी की बोली लगती है और वह खिलाड़ी लगाई गई बोली में खरीदा जाता है जो उनके नाम और प्रतिभा के अनुरूप होती है। दूसरी बात आज जमाना पैसे का है और पैसा आता है बिजनेस से, बिजनेस चलता है ऐड से और ऐड करते हैं फिल्मस्टार और क्रिकेटर। इसलिये यह कहना कोई मायने नही रखता कि किसी खिलाड़ी को कितने रुपये मिले क्योंकि वो रुपये उसे खेलने के लिये नही, हजारों करो़ड़ों रुपये के ऐड सिस्टम का हिस्सा बनने के लिये दिया जाता है। सभी जानते है कि 20-20 क्रिकेट से कम से कम क्रिकेट का तो कोई भला नही होने वाला है। यह एक ऐसा फार्मेंट है जिसमें कोई भी टीम थोड़े से अभ्यास से अच्छा खेल दिखा सकती है। एक आकलन में पिछले आई पी एल में आधिकारिक प्रसारणकर्ता सोनी ने अकेले लघभग आठ सो करोड़ का मुनाफा कमाया था। अगर सोनी इतनी बड़ी रकम कमा सकता है तो आयोजनकर्ताओं और फ्रेंचाइजी टीमों की कमाई का कोई हिसाब ही नही है और इस कुबेर की कमाई से सौ दो सौ खिलाड़ियों को देना जैसे उन्हे चुग्गा खिलाना है। असल में आज भारत में कोई सबसे ज्यादा प्रोफेशनल संस्था है तो वो बी सी सी सी आई है। पैसा बनाना तो कोई इनसे सीखे। आई पी एल की कमाई का खेल इतना हाई प्रोफाइल, फायदेमंद और उलझा है कि ललित मोदी और शशि थरूर इसके भेंट चढ़ गये।

अब बात करते हैं नक्सलियों के द्वारा मारे गये जवानों की कंपंशेसन राशि के बारे में। नक्सलियों का हमला और हमारे जवानों की मौत सीधे-सीधे हमारे आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था का मामला है जो अभी सेना के हाथ में नही हमारे घटिया मंत्रियों के हाथों में है। जो कुंभकर्णी नींद में इस कदर डूबे हुये हैं कि न तो उन्हे हमारे देश के अति पिछड़े अविकसित इलाकों की चीख पुकार ही सुनाई दे रही है और न ही नक्सलियों के हमलें में मारे जाने वाले जवानों के परिवारो का क्रंदन ही। वे जब अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में राष्ट्रमंडल जैसे खेलों के आयोजन में देश की इज्जत की परवाह न करते हुये खर्चे के लिये दिये जाने वाले पैसों को दोनों हाथो से लूट सकते हैं तो उन्हे पचास, सौ जवानों की मौत से कोई फर्क नही पड़ने वाला है। बी एस एफ, सी आर पी एफ और एस एस बी जैसे सैनिक और अर्धसैनिक बलों में देश के पिछड़े इलाकों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश राजस्थान हरियाणा, आदि राज्यों से आये नवयुवक भर्ती होते हैं जिनके मरने से किसी को कोई फर्क नही पड़ने वाला। क्योंकि जितने मरते हैं उससे ज्यादा मरने के लिये भर्ती होने के लिये भर्ती होने के लिये आ जाते हैं। अगर यकीन न आता हो तो गोरखपुर और बरेली जैसे शहरों में आकर हजारों युवकों की उस भीड़ को देखिये जो ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट इत्यादि तो है लेकिन जिनमें योग्यता का अभाव है। उन्हे रोजगार पाने का ये सबसे आसान तरीका लगता है।

यह हमारी शिक्षा व्यवस्था है जो ऐसे ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट नही बनाती है जो योग्य हों। हमारा शासन तंत्र है जो जवानों की मौत पर सिर्फ घड़ियाली आँसू बहाते हैं। ये हमारे नेता हैं जो वक्त आने पर देश को भी बेच सकते हैं। प्राब्लम आई पी एल, जवानों की मौत या नक्सलियों का नही है, प्राब्लम हमारे भ्रष्ट नेताओं, सड़ चुके सिस्टम और बेइमान हो चुकी जनता में है। नेता जो अपना काम ईमानदारी से नही करते, सिस्टम जिसमें हजारो कमियाँ है, और जनता जो इतनी डरी हुई और बेईमान है कि विरोध का झंडा नही उठाती....


सुरेंद्र...

Sunday, August 1, 2010

53 प्रतिशत पाकिस्तानी मानते हैं कि भारत उनके लिये सबसे बड़ा खतरा है

शीर्षक पढ़कर हर भारतीय के मन में यह बात जरुर उठेगी कि सही है, चोर की दाढ़ी में तिनका। उपरोक्त तथ्य एक सर्वेक्षण में सामने आये हैं जिसे दो हजार पाकिस्तानी युवकों में किया गया। जाहिर सी बात है कि यदि यही सर्वेक्षण भारत में विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं में किया जाय तो सौ प्रतिशत भारतीय यह मानेंगे कि पाकिस्तान भारत की शांति के लिये सबसे बड़ा खतरा है।

सर्वेक्षण वाशिंगटन के एक रिसर्च सेंटर, ग्लोबल एट्टीट्यूड प्रोजेक्ट नाम की संस्था ने पाकिस्तान में करवाया। गौर करने वाली बात यह है कि उपरोक्त संस्थान ने यही सर्वेक्षण अमेरिका में करवाया होता तो क्या होता।

अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों यह जानते हैं कि कौन किसके लिये खतरा है। इस प्रकार के सर्वेक्षणों की प्रासंगिकता कितने दिनों तक है सभी जानते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि अपगानिस्तान और ईरान मसले पर इसी प्रकार के सर्वेक्षण अमेरिका और पूरे विश्व में किये जाने चाहिये।

यह सर्वेक्षण हामिद करजई के उस बयान के बाद आया है जिसमें उन्होने कहा है कि आतंकवादियों के खात्मे के लिये पाकिस्तान पर हमले क्यों नही किये जा रहे हैं।

भारत पाकिस्तान जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दे पर इस प्रकार की घटिया मानसिकता वाले सर्वेक्षणों के उपरांत निकाले गये वाहियात निष्कर्षों के आधार पर दोनों देशों के बीच में कटुता बढ़ाने के बजाय अमेरिका को वियतनाम के बाद अफगानिस्तान से नंगा होकर भागने के रास्ते तालाशने चाहिये।

Sunday, July 25, 2010

मुलायम की माफी.....इतिहास के झरोखें से ताकता जिन्ना का भविष्य

मुलायम ने कल्याण सिंह को अपनी पार्टी में शामिल करने का पत्ता खेला और दाँव उल्टा पड़ गया, नतीजन उनको विधानसभा चुनावों में हार का मुँह देखना पड़ा। मुलायम को हराने में तुरुप के पत्ते साबित हुये उनके फिक्स वोट बैंक जोकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुस्लिम बेल्ट है। विधान सभा चुनाव फिर आने वाले हैं और मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास हो गया और उन्होने बड़ी विनम्रता से मुस्लिमों से माफी माँगी कि कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करना उनकी भूल थी।

सवाल यह है कि क्या सोचकर मुलायम ने कल्याण सिंह को सपा में शामिल किया, अगर किया तो फिर निकाला क्यों, और निकाला भी तो अपने शामिल करने के निर्णय पर माफी क्यों माँगी, मान लीजिये माफी भी माँग ली तो क्या सोचकर मुस्लिमों से माफी माँगी। क्या वे सोचते हैं कि मुस्लिम नही समझते कि ये सारी नौंटंकी वोट के लिये है। शायद वे सही सोचते हैं, क्योंकि उनका सोचना सही नही होता तो क्यों मुसलमान उन्हे अपना हमदर्द मानते। मैं नही समझता कि उन्होने उनके लिये कुछ विशेष किया है। उन्होने अगर कुछ विशेष किया है तो सिर्फ अपने परिवार वालों के लिये।

अगर मुसलमान यह सोचते हैं कि उनका वोट लेकर मुलायम उनके लिये कुछ बेहतर करेंगे तो इससे अच्छा होता कि वे अपनी अलग पार्टी बना लेते, कुछ भी हो मुस्लिम वोट चुनावों में विचलन तो पैदा कर ही सकते हैं। मुलायम को इस बात से डरना चाहिये कि अगर यह हो गया तो उनका क्या होगा, कोई बच्चा भी उनसे पूछ सकता है कि तेरा क्या होगा कालिया। मुलायम मुस्लिम वोटों के बिना बेकार हैं और अगर वे समुदायवाद को बढ़ावा देकर अपने भूखे पेट के लिये राजनीति के तवे पर वोट रूपी रोटियाँ सेकना चाहते हैं तो इसमें कोई शक नही कि वाकई जिन्ना का भविष्य सुरक्षित है।

Monday, July 5, 2010

राजनीति- प्रकाश झा बनाम भारत, एक रिव्यू

बचपन में मैने एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें एक राजा के राज्य में दो ठग आते हैं और उससे कहते हैं कि वे उसे ऐसी पोशाक सिल कर देंगें जो सिर्फ बुद्धिमानों को दिखेगी। राजा खुश होता है और सोचता है कि इसी बहाने राज्य में बुद्धिमानों की गिनती भी हो जायेगी। वह ठगों को पोशाक सिलने के लिये ढ़ेर सारा धन देता है। ठग राजमहल में ही अपना करघा लगाते हैं और सबसे पहले कपड़ा बनाना शुरू करते हैं। राजा से लेकर मंत्री तक, सभी आते हैं पर उन्हे करघे पर सूत का एक धागा भी नही दिखता है, पर मूर्ख समझे जाने के डर से वे कुछ नही कहते हैं। आखिरकार कपड़ा तैयार हो जाता है और राजा उसे पहनकर निकलता है जो कि असल में रहता ही नही है। राजा पूरी तरह से नंगा होता है पर कोई कुछ नही कहता है। राजा कपड़ा पहन कर अपने राज्य में निकलता है और सभी देखते हैं कि राजा तो नंगा है। पर कोई नही कहता। अंत में एक छोटा बच्चा अपनी माँ से कहता है कि माँ, राजा तो नंगे हैं। उसकी माँ उसे चुर करा देती है।

दामुल से लेकर अपहरण तक का लंबा सफर तय कर चुके प्रकाश झा, काश कि इस बार जमीन की भूख, कहानी के नायक की भाँति अधिक लालच में नही पड़ते तो निश्चय ही राजनीति अपहरण की अगली कड़ी साबित होती, ठीक उसी तरह जैसे अपहरण गंगाजल की अगली कड़ी साबित हुई थी। प्रकाश झा का लालच, कहानी के रूप में महाभारत से शुरू हुआ और स्टारकास्ट के रूप में सारा पर आकर खत्म हुआ। ना जाने क्या सोचकर उन्होने राजनीति जैसे अतिसंवेदनशील विषय पर, अर्जुन रामपाल, रणवीर कपूर, कैटरीना कैफ और सारा जैसे अतिअसंवेदनशील चेहरों को लिया। रणवीर तो कुछ समझ में आते हैं लेकिन बाकियों के तो प्रकाश झा ही मालिक हैं। स्टार कास्ट और टार्गेट आडियेंस के चक्कर में उन्होने, इसको ले लूँ, उसको ले लूँ, उसको क्यों छोड़ू, चलो उसको भी ले लेता हूं....करते करते राजनीति का खाजनीति बना दिया।

वर्तमान में जहाँ राजनीति की टूटी-फूटी कुर्सी, क्षेत्रीय दलों के रूप में प्रतिदिन ठोंके जा रहे असंख्य कीलों की बदौलत टिकी है, प्रकाश झा की राजनीति एक परिवार के दो दलों पर टिकी है जिसमें घात-संघात का ऐसा दौर चलता है कि यकीन ही नही होता कि यह जिस प्रकाश झा को चेहरों के भावों, संवादों और प्रतीकात्मक रूप में हिंसा दिखाने में महारत हासिल है, उसे बार-बार गोली और बम ब्लास्ट का सहारा लेना पड़ रहा है। ऊपर से तुक्का यह कि कहानी महाभारत की एडाप्शन है।

पूरी फिल्म में अच्छे संवादों का जैसे सूखा ही पड़ गया है। नाना पाटेकर की संवाद अदायगी देखने गये दर्शकों को थियेटर से निकलते वक्त साँप सूँघ गया होगा। इससे अच्छा ये होता कि नाना को गूंगा बना दिया होता, कम से कम खलिश तो नही रह जाती। जिस चरित्र के सबसे ज्यादा संवाद थे, उसका रोल ऐसे अभिनेता ने प्ले किया जिसका चेहरा गंगा के उपजाऊ मैदान की भाँति हमेशा प्लेन ही रहता है। प्रकाश झा की जिस अभिनेता के साथ सबसे ज्यादा अंडरस्टैंडिंग है, जिसके साथ उन्होने गंभीर और व्यावसायिक सिनेमा का अंतर पाटा, उसका रोल इतना कम रखा कि पता ही नही चलता कि वह कब आता है और कब चला जाता है। उसकी मौत तो ऐसे दिखाई गयी है जैसे प्रकाश झा को समर ने सुपारी दी है कि उनको मोतिहारी का टिकट दे दिया जायेगा बस उसकी मौत ऐसे जगह पर दिखानी है जहाँ कोई और कैरेक्टर की एंट्री न हो पाये। कैटरीना के बारे में तो कहना ही क्या। भाषणबाजी में तो उन्होने सोनिया गाँधी को भी पीछे छोड़ दिया है और बेचारी सारा तो अमेरिका से भारत प्रेगनेंट होकर मरने के लिये ही आती है।

पूरी फिल्म में कुछ कलात्मक था तो वो था वीरेंद्र प्रताप का चरित्र, और उसको प्ले कर रहे मनोज वाजपेयी, बाकी सब तो विज्ञान था। अब ज्यादा क्या कहूँ, बस इतना ही कि राजनीति वाज ए बाउंसर एंड प्रकाश झा हैज मिस्ड द लाइन...। उप्स सबसे बड़ी बात तो बताना ही भूल गया। राजनीति में नसीरुद्दीन शाह का, उनके पूरे कैरियर में सबसे गंदा प्रयोग किया गया है। सच है बुढ़ापे में लोग सठिया जाते हैं...

सुरेंद्र

Monday, May 31, 2010

दोस्तों

दोस्तों, हम दिन भर में सैकड़ों मैसेज भेजते हैं, वे चुटकुले होते हैं, कमेंट होते हैं, इमोशंस होते हैं, फ्लर्टी होते हैं, डर्टी होते हैं....लेकिन क्या आपने ये भी कभी सोचा है कि भारत में कितने प्रतिशत गरीबी है, कितने लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं, कितने बच्चे प्रतिदिन वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेले जाते हैं, हमारी शासन व्यवस्था विश्व में किस पायदान पर आती है, हम भ्रष्टाचार में किस नंबर हैं, भारत के प्रति व्यक्ति पर वर्ल्ड बैंक का कितना कर्ज है....।

खाली समय में कभी-कभी ये भी शेयर कर लिया कीजिये...सही है कि अकेला कुछ नही कर सकता, लेकिन कई लोग अगर सोच लें तो कुछ भी कर सकते हैं...भारत नही अपनी आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचिये, शायद उसके पास ये सोचने का वक्त भी नही होगा.....।

अगर आप कुछ कहना चाहते हैं तो प्लीज कमेंट दें.....http//:dastuk.blogspot.com

Saturday, May 29, 2010

नेताओं का प्रिय खेल तू-तू मैं-मैं

कब तक खून बहेगा आखिर कुर्सी खातिर जनता का,

कब तक नक्सलवाद रहेगा, लावा बना उफनता सा,

कितने ताज जलेंगे, कितने हमले होंगे संसद पे,

ना जाने कब तक हर बच्चा सोयेगा रात सहमता सा।




वैसे तो भारत में क्रिकेट खेल के उस मुकाम तक पहुँच गया है जहाँ गाहे-बगाहे इसे धर्म की संज्ञा दे ही दी जाती है, और वह धर्म ही है जिसने भारत को इस अधःपतन के गर्त में लाकर खड़ा कर दिया है। खैर मैं अपने मुद्दे से भटकना नही चाहता इसलिये मुख्य बिंदु पर आता हूँ कि नेताओं का प्रिय खेल क्या है- गौर से नजर डाली जाये तो पता चलेगा कि ये तू-तू, मैं-मैं है। दुर्भाग्यवश भारत में कोई भी दुर्घटना या फिर हादसा, या फिर आतंकी हमला होता है तो नेता बड़ी शिद्दत से इस खेल को, जीतने की पूरी कोशिश करते हुये खेलने लगते हैं। ऐसा लगता है कि वे अगर हार गये तो उनका जीवन संकट में पड़ जायेगा, सही भी है कि हारने की वजह से उनकी कुर्सी संकट में पड़ जायेगी, और कुर्सी बोले तो नेता का जीवन।

इस तथ्य को जरा और निकट से जानने की कोशिश करते हैं। 22 मई 2010 को मंगलौर में एअर इंडिया का प्लेन क्रैश हुआ जिसमें 23 की शाम तक 104 यात्रियों के मरने की खबर क्लीयर हो चुकी थी। अगर हमारे देश के नागरिक उड़्डयन मंत्री में जरा भी शर्म और जिम्मेदारी की भावना होती तो वो सबसे पहले अपना इस्तीफा देते। 150 यात्रियों की जिंदगी उनकी कुर्सी के सामने छोटी पड़ जाती है और वे गाँव की पतुरियों की तरह आक्रामक मुद्रा अपनाते हुये एअर इंडिया के अधिकारियों पर निशाना लगाते हैं, ताकि उनकी तशरीफ रखने की जगह सुरक्षित ही रह सके। 22 मई की दुर्घटना हो, या फिर 26-11 का आतंकी हमला, नक्सलियों की प्रतिदिन की खेले जाने वाली खून की होली हो या फिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ की वजह से जाने वाली किसी यात्री की कुत्ते की तरह जान हो, हमारे देश में किसी भी नेता या फिर बड़े अधिकारी के दिल में चुल्लू भर पानी में डूब मरने का बाइज्जत ख्वाब भी नही आता।

हर घटना के बाद अपनी-अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करना प्रारंभ कर देते हैं और कुछ दिन बाद जनता भी सारी बातें भूल जाती है फिर से एक नई घटना का पर तू-तू, मैं-मैं सुनने के लिये।

Thursday, May 20, 2010

किस्सा कसाब का....

सबसे बड़ा दोष तो हमारे देश के कानून में हैं, जो अपने चोले के अनगिनत फटे छेदों से अपने कंचन शरीर को छुपाने के प्रयास में दोषियों के हाथ से बार बार बलात्कारित की जा रही है....

चार्ल्स शोभराज ने कभी कहा था कि भारत अपराधियों के लिये स्वर्ग है, लेकिन वर्तमान परिवेश में यह आतंकवादियों के लिये भी स्वर्ग बन गया है। मेरे खयाल में विश्व का कोई ऐसा देश नही होगा जहाँ पर सैकड़ों लोगों की हत्या करने में शामिल किसी आतंकवादी, जिसे करो़ड़ों लोगों ने गोलियाँ चलाते हुये टीवी पर देखा उसे फाँसी की सजा सुनाने के लिये अदालत ने डेढ़ साल से अधिक का समय लिया। उसपर तुक्का ये कि वह राष्ट्रपति के पास क्षमादान की याचिका दायर कर सकता है, जो अगर उसने कर दिया तो उसकी फाँसी कई सालों तक टल सकती है। क्योंकि राष्ट्रपति के पास कई ऐसी याचिकायें लंबित पड़ी हैं जिसपर विचार होना शेष है।

पहला सवाल-

ऐसे मामलों को हम कई सालों तक लटका कर दुनिया में क्या संदेश देना चाहते हैं, दुनिया की छोड़िये हम अपने देश को क्या संदेश देना चाहते हैं, कि कोई भी आये, राक्षसों की तरह गोलिया बरसा कर कई लोगों को मार दे और फिर अदालत में जाकर सरेंडर कर दे, बाकी का काम हमारी सरकार खुद कर देगी। वह उसकी सुरक्षा में लाखों का खर्चा करेगी, मानवता का फटा हुआ ढ़ोल पीटते हुये खुद आतंकवादियों को मौका देगी कि वे उसे छुड़ा लें। हमारी सरकार कहती है हम किसी को ऐसे ही फाँसी पर नही चढ़ा सकते। हमारे विधि मंत्री ने कुछ दिन पहले ये वक्तव्य दिया था, पर उनसे ये सवाल पूछा जाना चाहिये, कि क्या हमारी जनता की औकात जानवरों से भी गई बीती है जिसकी क्रूर हत्याओं के बाद भी हम ये सवाल पूछते हैं।

आतंकवादी हमलों में सिर्फ आम जनता मरती है, इसलिये हमारे देश के दोगले नेताओं को मानवाधिकार, कानून और देश का सम्मान इत्यादि खोखले शब्दों से प्यार हो गया है, वे बिना साँस लिये रातदिन इसका रोना रोते रहते हैं।

दूसरा सवाल-

हर आतंकवादी घटनाओं के बाद हमारी निकम्मी सरकार ये घोषणा करती है कि भविष्य में इस तरीके की घटनाओं से निपटने के लिये सुरक्षा तंत्र को विकसित किया जायेगा, गुप्तचर सेवाओं को दुरुस्त किया जायेगा, कानून को कोठर बना जायेगा, और किसी देश द्वारा अपने देश में उत्पन्न की जाने वाली अस्थिरता को बर्दाश्त नही किया जायेगा। लेकिन दूसरे ही दिन सारे नेता अपने पूर्व के वक्तव्य को भूलकर देश के विकास में लगाये जाने वाले पैसों में बंदरबाँट के लिये रणनीति बनाने लगते हैं।

तीसरा सवाल-

राष्ट्रपति को किसी क्षमादान की याचिका पर निर्णय लेने के लिये इतना समय क्यों लगता है, क्या वे भी इंतजार करते हैं कि क्षमादान के बदले उनकी मुट्ठी गर्म की जाये। शायद यही बात है वरना आज तक बीसियों के लघभग मामले लंबित क्यों पड़े हैं। सबसे करारा तमाचा तो यह है कि संसद के हमले का आरोपी अफजल जिसको फाँसी दी जा चुकी है, वह भी इस कतार में हैं। सबसे बड़ा दोष तो हमारे देश के कानून में हैं, जो अपने चोले के अनगिनत फटे छेदों से अपने कंचन शरीर को छुपाने के प्रयास में दोषियों के हाथ से बार बार बलात्कारित की जा रही है। ये कानून का बलात्कार ही है, कि इतने बड़े-बड़े दोषी सरकारी मेहमान बने हैं, जिसमें राजीव गाँधी के हत्यारे, अफजल और जिसमें कसाब का नाम भी जुड़ने वाला है।

मीडिया की भूमिका-

इन सारे मामलों मे हमारी मीडिया भी कम दोषी नही है, वह खाली पीली ऐसे लोगों को हीरो की तरह दिखाती है, जिन्होने लोगों की हत्याएं सोच-समझकर की हैं। मीडिया घरानों को समझना पड़ेगा कि सरकार अगर निकम्मी है तो उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी पड़ेगी, पैसा बनाना बिजनेस का मूलमंत्र है, पर सिर्फ पैसा ही उद्देश्य नही होना चाहिये।

जनता-

यह सबसे बड़ी ताकत है जो भारत की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है। एक अरब तेरह करोड़ जनता वाले देश में अगर कोई आतंकवादी घुँसकर सरेआम लोगों की हत्या करता है तो यह उस देश का दुर्भाग्य ही है। लोगों को ये समझना ही पड़ेगा, कि आतंकवादी हमलों में मरे कोई, कल उनका भी नंबर आयेगा। इसलिये जरूरी है कि इस प्रकार का डर मन से निकाल कर विरोध किया जाय। रही बात बीवी बच्चों की, तो कुछ समय के बाद ही इस तरह की घटनायें बंद हो जायेंगी, और सारा देश राहत की साँस लेगा।

जनता को नेताओं का घेराव करना पड़ेगा, वे क्या कर रहे हैं इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिये। क्या हमारी जनता के जीवन का मूल्य आतंकवादियों के जीवन से कम है।

विरोध-

बहुत जरूरी है। हमारे देश की ऐसी हालत सिर्फ विरोध ना करने की वजह से है। दुराचारी या अत्याचारी की हिम्मत सिर्फ विरोध ना करने की वजह से होती है। हमें विरोध के लिये सड़कों पर उतरना ही पड़ेगा। अब वक्त आ गया है जब एक और असहयोग आंदोलन की जरूरत है। अगर हम फिर भी ऐसा नही कर सके तो हमें तैयार रहना चाहिये, गाँधी के देश में गोली खाने के लिये।

सुरेन्द्र पटेल...

Wednesday, May 19, 2010

एक्शन रिप्ले इन दंतेवाड़ा....

सही कहूँ तो यह छोटा सा लेख मैं 6 अप्रेल को ही लिखना चाहता था, पर शायद उस दिन लिखता तो हो सकता है कि रिफरेंस नही दे पाता। आज प्लस प्वाइंट है कि रिफरेंस दे सकता हूँ।

आशा करता हूँ आपको 6 अप्रेल 2010 याद होगा, अगर नही है तो भी कोई बात नही, क्योंकि हमारे देश में ज्यादातार लोगों को भूलने की खतरनाक बीमारी है। चलिये मैं याद दिला देता हूँ कि 6 अप्रेल 2010 को क्या हुआ था। 6 अप्रेल 2010 को दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने आपरेशन ग्रीन हंट के तहत जंगल में कांबिंग कर रहे लघभग 100 जवानों को चारों ओर से घेरकर हमला किया और 76 जवान शहीद हो गये, और कल उसी दंतेवाड़ा में उन्ही नक्सलियों न बम लगाकर एक बस को उड़ा दिया जिसमें 40 लोग मारे गये, जिसमें ज्यादातार पुलिस वाले ही थे।

7 अप्रेल 2010 को देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, रक्षामंत्री इत्यादि लोगों ने यही रोना रोया था जो आज 18 मई 2010 को रो रहे हैं। सवाल यह उठता है कि हमारी सरकार क्या कर रही है जबकि देश के आधे से अधिक राज्य नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। लघभग प्रतिदिन नक्सलियों से जुड़ी कोई ना कोई घटनायें होती है पर सरकार के कानों पर जूँ नही रेंगती।

मजाक लगता है जब सरकार इस तरह के नक्सली हमलों के बाद मारे गये जवानों को शहीद का दर्जा देती है, कैसा शहीद और क्यों शहीद। हमारी निकम्मी सरकार, जिसके मंत्रियों के घुटनों में दम नही, जिनकी कुछ देर चलते ही साँस फूल जाती है, जो वोटों की राजनीति करते हैं और जनता के बीच में नफरत फैलाते हैं, जो दिनदहाड़े हजारों करोड़ रुपये जो कि जनता के हैं, डकार लिये बिना खा जाते हैं, वे एक भ्रम फैलाते हैं कि जवान शहीद हुए, असलियत तो यह है कि हमारे जवान कुत्तों की मौत मारे जाते हैं नक्सल प्रभावित इलाकों में। हरपल डर के साये में अपना एक एक कदम बढ़ाते हमारे जवानों को पता ही नही चलता कि उनकी मौत किस कदम पर लिखी है, और हमारी सरकार नक्सलियों के उन्मूलन के लिये कुछ नही करती क्योंकि ना जाने कितने क्षेत्रीय दलों की दाल रोटी इन नक्सलियों के दिये गये चंदो से चलती है।

इन नक्सलियों जिनकी संख्या के बारे में हमेशा हउआ खड़ा किया जाता है कि उनकी संख्या पुलिस वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है, कि उनके ट्रेनिंग कैंप सैकड़ों जगहों पर चल रहे हैं, कि उनके हथियार हमारे

हथियारों से ज्यादा लेटेस्ट हैं। गीदड़ हमेशा झुंड में हमला करते हैं, क्या होगा इन नक्सलियों का जब हमारी वायु सेना इन नक्सलियों को एक घंटे में मटियामेट कर देगी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से बाहर कोई भी धमाका या फिर कोई भी हिंसात्मक कार्यवाही होती है और दुर्भाग्य से उसमें किसी मुस्लिम संगठन का हाथ होता है तो तुरंत ही आतंकी हमले की दुहाई दी जाने लगती है और फिर भी कुछ नही होता। कई दशकों से चल रहे नक्सलवादियों के इस खूनी खेल को क्या कहा जायेगा, स्वतंत्रता के लिये संघर्ष या उनका बचाव करते हुए ये, कि उनकी हिंसात्मक कार्यवाहियाँ विकास के दोहरे मापदंड और पुलिस अत्याचार के फलस्वरूप उपजे आक्रोश का नतीजा हैं। इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित कुछ क्षेत्रों में विकास की गति बहुत धीमी है, पर विकास की गति देश के बहुत सारे भागों में धीमी है, वहाँ गरीबी है, भूख है, लाचारी है, पर क्या वहाँ भी लोग हथियारों के बल पर विकास लाने का प्रयास करें, ऐसे तो हमारा पूरा देश गृहयुद्ध की चपेट में आ जायेगा। हथियारों के दम पर विकास नही लाया जा सकता ना ही हथियार किसी समस्या की जड़ हैं, सबसे बड़े गुनाहगार हमारे नेता और हमारी सरकार है, जो पहले नक्सलवाद जैसी समस्या को मुँह उठाने का मौका देती है और बाद में जब वह भस्मासुर बनकर खुद पर ही खतरा बन जाता है तब भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर डाल कर निश्चिंत रहती है।

नक्सलवादी अगर अपना रोष जाहिर ही करना चाहते हैं तो वे दिल्ली या राज्य की राजधानी में बैठे बड़े स्तर के नेता को क्यों नही मारते, जिससे कम से कम समाज की गंदगी तो कम होती। वे जानते हैं कि अगर उन्होने किसी नेता को मारा तो हमारे नेताओं के कान में धमाका हो जायेगा और कोई ना कोई कार्यवाही हो ही जायेगी। इस तरह पुलिस के जवानों और आम जनता को मार कर वे अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं, लेकिन कायरों की तरह, और हमारे नेता ये तमाशा देखते हैं...अंधों की तरह।

सुरेन्द्र पटेल...

Monday, May 10, 2010

भारतीय संविधान और संशोधन

भारतीय संविधान साठ साल पहले कई दर्जियों द्वारा कई देश के कपड़ों को मिलाकर कई साल में सिली गयी पुराने फैशन की वो पतलून है जिसको 18 जून,1951 में ही संसोधन का पैबंद लग गया था, दुर्भाग्यवश पैबंद लगने बंद नही हुये और 12 जून 2006 तक 94 पैबंद लग चुके और आज आलम यह है कि वो पतलून तो कहीं दिख ही नही रही है, दिख रही हैं तो बस पैबंदे, और तार-तार हो चुकी भारतीय कानून और व्यवस्था की इज्जत। काश कि इस फटे हुये पतलून को बदला जा सकता...।

Thursday, February 18, 2010

शाहरुख खान...और आई.पी.एल

आज मैंने एक राष्ट्रीय अखबार के संपादकीय में पढ़ा कि शाहरुख खान ने आई पी एल की नीलामी में किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को नही खरीदा, वही शाहरुरख खान जिन्होने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के किसी आई पी एल फ्रेंचाइजी के न खरीदे जाने द्वारा एक विवादास्पद बयान दिया और बाद में उसी बयान के जरिये अपनी फिल्म का मुफ्त प्रमोशन करवा लिया। फिलहाल मुद्दा प्रमोशन का नही है उसके बारे में तो मैंने पहले ही लिख दिया है, आज मुद्दा है कि जिन शाहरूख खान ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के न खरीदे जाने के लिये अफसोस जाहिर किया था, वही शाहरुख खान एक टीम के मालिक भी हैं, उन्होने भी पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नही खरीदा। शाहरुख खान ने किस मुंह द्वारा ये सारा बखेड़ा खड़ा किया कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों को आई पी एल में खेलना चाहिये। इससे लाख गुना अच्छा ये होता कि वे किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी को खरीद लेते, और अपनी टीम में खिलाते, अपनी भावना के अभिव्यक्ति का इससे तरीका और नही हो सकता था। दुनिया की रीति इससे अलग है, आज कोई काम बिना फायदे के नही होता, या काम के उद्देश्य के पहले फायदे का गुणा भाग हो जाता है। अरिंदम चौधरी ने मैंनेजमेंट के छात्रों या फिर आम लोगों के लिये भी, एक किताब लिखी है, नाम है-काउंट योर चिकन्स बिफोर दे हैच....। मैने किताब तो नही पढ़ी है, पर इसका शार्षक मजेदार, अंदर क्या है, क्या फर्क पड़ता है। आज चारों ओर सभी लोग चिकंस को हैच से पहले ही काउंट करने में लगे हुयें हैं। सारा मामला फायदे का है।

अब आते हैं पाकिस्तानी खिलाड़ियों के ऊपर कि क्यों किसी भी टीम ने उनको नही खरीदा, खैर इस पर चर्चा हम बाद में करेंगे।

थ्री इडियट्स और आमिर खान का दावा...

थ्री इडियट्स बहुत अच्छी फिल्म है, इसमें कोई शक नही। मनोरंजक तरीके से आज की शिक्षा पद्धति पर प्रहार करती यह फिल्म राजकुमार हिरानी की पिछली फिल्मों, मुन्नाभाई एम बी बी एस और लगे रहो मुन्नाभाई की अगली कड़ी है, जिसका उद्देश्य स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ समाज को एक संदेश देना है। मजेदार बात यह है कि फिल्म के हीरो, निर्माता तथा राजकुमार हिरानी स्वयं, थ्री इडियट्स में प्रस्तुत किये गये संदेश से कितने प्रेरित हैं और उन सिद्धातों को अपने जीवन में कितना उतारते है।

फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि, कामयाबी के पीछे नही, काबिलियत के पीछे भागो, कामयाबी झख मारकर तुम्हारे पीछे आयेगी। आमिर खान, राजकुमार हिरानी तथा विधु विनोद चोपड़ा ने इस सिद्धांत को कितनी शिद्दत से अपने उसी फिल्म के प्रमोशन के संदर्भ में उतारा है, सोचने लायक है। आमिर खान इस फिल्म के प्रमोशन के लिये बाकायदा रूप बदलकर बनारस की गलियों में घूमें, बाकायदा एक प्रतियोगिता आयोजित करके कि जो उनको ढ़ूंढ़ लेगा वह उनके साथ समय बितायेगा। आमिर खान एक मामले में जीनियस है, वो अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिये उतनी ही मेहनत करते हैं जितनी मेहनत एक डायरेक्टर अपनी फिल्म बनाने में करता है।

अगर आमिर खान काबिलियत पर विश्वास करते हैं तो उन्हे अपने अजीबो गरीब तरह के प्रमोशन कैंपेन्स को अलविदा कर देना चाहिये और अगर कामयाबी पर विश्वास करते हैं तो उन्हे चतुर से हार मान लेनी चाहिये।

Wednesday, February 17, 2010

आदत....

मित्रों, जब कभी भी हम किसी नये परिवेश में प्रवेश करते हैं, नये लोगों से मिलते हैं, नई चीज देखते हैं तो पहली-पहली बार हम कोई ना कोई प्रतिक्रिया करते हैं, यह मानवीय आचरण है। यही होता है जब हम किसी अनचाही वस्तु, घटना या फिर व्यक्ति से मिलते हैं। हो सकता है कि वह वस्तु, घटना या व्यक्ति हमें पसंद ना हो और हम किन्ही कारणों विशेष से उसपर प्रतिक्रिया ना दे सकें तो इसका मतलब यह नही कि हम प्रतिक्रिया देना नही चाहते बल्कि इसका मतलब यह है कि हम किसी ना किसी कारण से अपनी प्रतिक्रिया नही दे सकते है। इसके कई कारण हो सकते हैं, मसलन हमपर किसी का दबाव हो या फिर हमें यह डर हो कि हमारी प्रतिक्रिया का ना जाने कैसा असर हो।

मैं यह कहना चाहता हूँ कि कभी कभी हमारे सामने परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जब हमें कोई चीज पसंद नही होती और हम चाहते हैं कि उसे रोकें पर हम रोक नही पाते, क्योंकि हममें वो क्षमता नही होती। उदाहरण के लिये, किसी बच्चे का बाप प्रतिदिन शराब पीकर आता है और उसकी माँ को भद्दी गालियाँ देता है, वह लड़का और उसके दूसरे भाई बहनों के साथ-साथ उसकी मां भी अपने पति के इस आचरण के विरुद्ध आक्रोशित होते होंगे पर कुछ कर नही पाते होंगे, क्यों....क्योंकि वे लाचार हैं क्योंकि वो बाप शाम के पहले उनके दो वक्त के रोटी का बंदोबस्त करता है, इसके साथ साथ वे उसके विरुद्ध कोई कदम भी नही उठा सकते क्योंकि वह उनके परिवार का संबल है, पर इस वजह से उसकी दुष्टता और निर्दयता कम नही हो जाती और ना ही उसके परिवार वाले उसके उस व्यवहार से खुश होते होंगे, नतीजन...धीरे धीरे उनको उस गंदे व्यवहार की आदत हो जाती है....मैं यही कहना चाहता हूं, जब हम किसी गलत कार्य, व्यवहार और व्यक्ति को यह जानते हुये कि यह गलत है, बर्दाश्त करते जाते हैं तो धीरे-धीरे वह गलत कार्य, व्यवहार और व्यक्ति हमारी आदत में शुमार हो जाता है और कालांतर में हमें वो सारी चीजें हमारी जिंदगी का एक हिस्सा लगने लगती हैं। ये एक खतरनाक स्थिति होती है जब हम गलत चीज को अपनी जिंदगी का हिस्सा मानने लगते हैं।

अब जरा सोंचे, कि क्या हम आतंकवाद को कई दशकों से बर्दाश्त करते करते उसके आदी तो नही बनते जा रहे, क्या प्रतिदिन की आतंकवादी घटनाओं के बारे में समाचार पत्रों में खबरें पढ़ना हमारी आदत में तो शुमार नही होता जा रहा है। शायद हाँ....

अगर ऐसा है तो हम सोच सकते हैं कि हमारी हालत क्या है.....

आदत व्यक्ति के पुरुसार्थ की कमी से उत्पन्न हुई एक नाजायज स्थिति है जिसकी उपस्थिति से व्यक्ति कमजोर हो जाता है और वो गलत चीजों को अपनी जिंदगी का हिस्सा मानने लगता है। आतंकवाद, भ्रष्टाचार जमाखोरी, देशद्रोह इत्यादि इन सभी गलत चीजों को बर्दाश्त करते करते हम उसके आदी हो चुके हैं....इसका मतलब है...........

Saturday, February 13, 2010

किस्सा एक फिल्म के प्रमोशन का

किस्सा एक फिल्म के प्रमोशन का


अखबारों में कल तक यह खबर थी कि मल्टीप्लेक्स सुरक्षा के दृष्टिकोण से मुंबई में माई नेम इज खान नही दिखायेंगे क्योंकि शिवसेना ने धमकी दी थी कि जिन मल्टिप्लेक्सों में फिल्म रिलीज होगी वहाँ नुकसान के जिम्मेदार मालिक स्वयं होंगे। आज की खबर यह है कि मल्टीप्लैक्सों में भी फिल्म रिलीज हुई और शत् प्रतिशत कलेक्शन हुआ। यही नही सप्ताह भर के टिकट एडवांस बुक हो चुके हैं। शाहरुख खान बर्लिन से मुंबई वासियों को उनकी फिल्म देखने के लिये धन्यवाद दे रहे हैं, यहाँ तक कि रितिक रोशन भी लोगों से फिल्म देखने की अपील कर रहे हैं। इस पूरे मुद्दे पर अगर कोई बेवकूफ बना है तो वह है जनता और किसी को फायदा हुआ है तो वह हैं करण जौहर और शाहरुख खान। शाहरुख खान आत्ममुग्ध हो सकते हैं कि वे सुपरस्टार हैं और जनता उनकी फिल्म लाख बंदिशों के बाद देख सकती है, करण जौहर भी ये खयाली पुलाव पका सकते हैं कि उन्होंने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है, लेकिन इसका दूसरा पहलू हास्यास्पद और खतरनाक है। अगर आमिर खान गजनी फिल्म को प्रमोट करने के लिये नाई बनकर बाल काट सकते हैं, थ्री इडियट्स को प्रमोट करने के लिये बनारस में भेष बदलकर घूम सकते हैं तो शाहरुख खान अपनी फिल्म को प्रमोट करने के लिये शिवसेना के छद्म विरोध का सहारा नही ले सकते हैं, और वो भी तब जब उनकी फिल्म का विषय ही शिवसेना का मुख्य नगाड़ा है। फिल्म रिलीज हो चुकी है शिवसेना यह कह चुकी है कि जिन्हे खाहरुख से प्रेम हो वे फिल्म देख सकते हैं, तो ये सोचने वाली बात है कि आखिर इसका मतलब क्या हुआ। ये सारा खेल एक हिंदी फिल्म की कहानी जैसा ही है, जो शायद इस प्रकार हो-

बालीवुड का एक पहुंचा हुआ निर्देशक, जिसकी फिल्मे यथार्थ पर होती ही नहीं, और जो फिल्म सिर्फ डालर कमाने के लिये बनाता है, एक फिल्म बनाने के लिये सोचता है, हमेशा की तरह यथार्थ से परे। इंडस्ट्री में स्थति बहुत ज्यादा बदल चुकी है, नये-नये निर्देशक नये-नये विषयों पर बहुत अच्छी फिल्में बना रहे हैं और जो कमाई के साथ-साथ समाज को संदेश भी दे रही हैं। हमारा निर्देशक ऐसे विषय सोच ही नही पाता या फिर उसे विश्वास नही है। उसके सामने समस्या आती है कि इस बार फिल्म क्या बनाई जाये, क्योंकि आफ्टर आल कमाना तो उसे डालर ही है और वैसे भी डालर पचास रुपये का है। वो सोचता है कि क्या बनाये जाये, फिर उसे आइडिया आता है कि डालर वाले देश में नौ साल पुरानी एकमात्र आतंकवादी घटना पर फिल्म बनाई जाये, डालर कमाने वाले नान रिलायेबल इंडियन बहुत पसंद करेंगे। वो बुलाता है अपने ब्रह्मास्त्रों दो ऐसे हीरो और हिरोइन को जिनके बिना वो किसी फिल्म की कल्पना कर ही नही सकता। संयोग से फिल्म का नेम और हीरो का सरनेम एक ही है, खान....। फिल्म बनाने से पहले ही निर्देशक को इसे हिट करने और प्रमोट करने का आइडिया भी आ जाता है। वो कांटेक्ट करता है शहर की एक ऐसी राजनीतिक पार्टी को जिसका कोई एजेंडा ही नही है और जिसका अस्तित्व ही भोले भाले बाहर से आये मजदूरों के विरोध पर टिका है। वह उनको अपनी फिल्म का विरोध करने के लिये कहता है ताकि देश और देश के बाहर फिल्म का जबरदस्त प्रचार हो सके। समस्या आती है कि वह पार्टी फिल्म का विरोध कैसे करे, क्योंकि बिना आग के धूंआ तो निकलेगा नही। बिल्ली के भाग से छींका टूट ही जाता है, या यूं कहें कि हिम्मते मरदां तो मद्ददे खुदा, देश में क्रिकेट की गाडफादर संस्था का एक देश के क्रिकेटरों से विवाद हो जाता है और दोनों तरफ के क्रिकेटरों में वाकयुद्ध शुरु हो जाता है। निर्देशक को और आइडिया आता है और वह अपने फिल्म के हीरो से इस वाकयुद्ध में शामिल हो जाने के लिये कहता है ताकि राजनीतिक पार्टी को उसका विरोध करने का मौका मिल सके। सारी योजना बन गयी और अपना हीरो, जो क्रिकेट के नये और बाजारू संस्करण का हिस्सा भी है क्रिकेट और भाईचारे की माला जपते हुये इस युद्ध में कूद जाता है, जबकि उसे मालूम है कि उसके किसी भी स्टेटमेंट का कोई भी मतलब निकाला जा सकता है और उसे किसी भी मामले में घसीटा जा सकता है। वो एक अंतर्विरोधी देश के खिलाड़ियों के बारे में टिप्पणी करता है और बस खेल शुरु हो जाता है, एक फिल्म जो अभी रिलीज नही हुई, उसके प्रमोशन का।

ये कहानी फिल्म की नही फिल्म के प्रमोशन की है, हमारे निर्देशक के प्री प्लानिंग की है, काश कि वो इतना प्लानिंग अपने फिल्म के स्क्रिप्ट को लेकर करता, तो वो एक अच्छी फिल्म बना सकता था।

खतरनाक बात यह है कि भविष्य में फिल्मों की प्रमोशन के लिये ना जाने कैसे कैसे तरीके अख्तियार किये जायेंगे।

Thursday, January 21, 2010

दर्दनिवारक गोलियों पर टिकी है जिंदगी.

म्योरपुर, सोनभद्र,

उन ग्रामीणों की जिंदगी में दर्द निवारक गोलियों के सिवा कुछ नही हैं। दर्द से बेहाल लोग पेनकिलर के सहारे ही जीते हैं। जिले के चार ब्लाकों में फ्लोराइड के कहर से दो हजार से ज्यादा लोग विकलांग हो चुके हैं। पेनकिलर दवाओं, डेक्लो प्लस, बूफ्रेन डेकोपिन निमुस्लाइड के नाम बच्चों बूढों की जुबान पर हैं। फ्लोराइड की वजह से फ्लोरोसिस के शिकार ग्रामीणों की हड़्डियों में ताकत नही बची है। सरकार के आधे अधूरे प्रयासों से लोगों की जिंदगी नरक बन गयी है। दर्द निवारक गोलियाँ सौगात में दूसरी जानलेवा बिमारियाँ दे रही हैं।

यह दर्दनाक किस्सा, जिले के म्योरपुर ब्लाक के कुसुम्हा, रास पहरी, जरहा, चेटवा, मनवसा, जोरूखाड़, चोपन ब्लाक के नेरूइया दामर, रोहनिया दामर, पड़रच, नई बस्ती, पड़वा, कोतवारी गाँवों का है। बभनी और दुदही ब्लाक ब्लाक में भी कुछ गाँव फ्लोराइड का दंश झेल रहे हैं। कुसुम्हा, रोहनिया दामर, जैसे कुछ गाँव में एक परिवार के सभी सदस्य विकलांगता का दंश झेल रहे हैं। अकेले कुसुम्हा गाँव तीन से चार सौ लोग फ्लोरोसिस पीड़ित हैं। यहीं के रामभजन ने कहा कि उसकी हड्डियाँ कमजोर होने से शरीर में भयंकर दर्द उठता है। उसने कहा कि अगर हम गोली नहीं खायेंगे तो जिंदा नही बचेंगे। हालात यह है कि पीड़ित एक दिन में दो से तीन दर्द निवारक गोलियाँ खा रहे हैं। एक दवा विक्रेता ने बताया कि पिछले दो से तीन सालों में दर्द निवारक दवाओं की बिक्री आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है। सी एम ओ डा जी के कुरील का कहना है कि इस रोग में दर्द निवारक गोलियाँ कारगर तो हैं लेकिन अधिक प्रयोग से बुरा प्रभाव पड़ता है। आठ वर्ष पूर्व चार ब्लाकों के दो दर्जन गाँवों में फ्लोरिसिस के प्रकोप का पता चलने के बाद स्वास्थ्य विभाग ने पीड़ितों के लिये अच्छे इलाज के लिये कार्ड बनाये गये।

क्यों बढ़ी है फ्लोराइड की मात्रा-

केमिकल इंजीनियर और विश्व बैंक के सलागकार दुनू राय का कहना है कि एल्यूमिनियम कंपनी बाक्साइट से अधिक बाक्साइट निकालने के लिये फ्लोराइड का इस्तेमाल करती हैं। बाद में चिमनियों के सहारे उड़ने वाला फ्लोराइड चालीस किलोमीटर के क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ता है।


अमर उजाला- 18 जनवरी, 2010

Tuesday, January 19, 2010

Thand, Kiske Liye?

कहा जा रहा है कि इस साल ठंड बहुत पड़ रही है, इसने पिछले दस साल के रिकार्ड को तोड़ दिया है। कोहरे और धुंध की वजह से ट्रेनों और प्लेनों की यात्रा में विलंब हो रहा है। खैर पहली बात तो रिकार्ड बनते ही हैं टूटने के लिये और पिछले कुछ सालों की मौसम की फाइलें उठाकर देखें तो पता चलेगा कि रिकार्ड तो अभी और टूटने बाकी हैं। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम रूठी हुई भाभी बन गया है।

हम बात कर रहे थे ठंडी की...वाकई ठंडी बढ़ी तो है लेकिन किसके लिये, सही है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम कुछ ज्यादा ही अनियमित हो गया है, लेकिन सिर्फ आम आदमी के लिये, नही तो विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल पर सहमत क्यों नही होते। अमेरिका जो सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है वह क्योटो प्रोटोकाल के संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिये राजी ही नही है। क्यों...क्या उसे इस धरती पर नही रहना है, या फिर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा उसके लिये नही है, है, लेकिन वह इस तथ्य को विकासशील देशों के ऊपर थोपना चाहता है कि हम विश्व के बेताज बादशाह हैं, हम जो करेंगे वह आदर्श होगा और जो सोचेंगे वह नीति। यह बिलकुल उसी तरह है जैसे कि दिल्ली या गुड़गाँव में कड़ाके की ठंडी में सड़क के किनारे खड़े कुछ फुटपाथ पर पलने वाले बच्चे थर-थर काँप रहे हैं और वहीं दूसरी ओर सड़के के किनारे खड़े कुछ अमेरिकन सोच वाले लोग अपनी गर्लफ्रेंड के साथ मजे में आइसक्रीम खा रहे हैं और ठंडा पी रहे हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि पैसे से मौसम को भी अपने अपने अनुकूल बना लिया गया है। वो ठंडी में भी मजे करते हैं और गर्मी में भी। पर बेचारा गरीब क्या करे वह तो हर तरफ से मारा-मारा फिरता है। वह खाने की भी व्यवस्था मुश्किल से कर पाता है तो वह सर्दी से बचने की व्यवस्था कहां से करेगा। वह तो भला हो प्रकृति का कि उसने इंसानों में प्रकृति के साथ अनुकूलन की एक नायाब व्यवस्था कर रखी है नही तो पैसे वाले प्रकृति को भी पैसे से खरीदकर गरीबों पर अत्याचार करने के लिये विवश कर देते। जो लोग सड़के के किनारे आइसक्रीम खा रहे हैं जरा उनके जैकेट स्वेटर जूते वगैरह निकाल दिये जायें और कुछ देर बाद फिर आइसक्रीम खाने के लिये दी जाये तो क्या होगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

Sunday, January 17, 2010

AHSAAS........

अहसास....


हम लोगों को प्रतिदिन कहते सुनते हैं कि मैं तुम्हारी खुशियों या गमों को महसूस करता हूं। खुशियों के बारे में तो नही कह सकते क्योंकि उनके महसूस करने का विधान ही अलग है लेकिन अगर बात गमों की करें तो यह नामुमकिन है कि किसी दूसरे के दुखों को कोई दूसरा महसूस कर पाये। इस तथ्य को सीधे सीधे शब्दों में कहा जाये तो, किसी का सुख महसूस करना आसान है। इसका साधारण सा तरीका है कि उसके खुशियों में शरीक हो जाओ...खाओ, गाओ, मौज मनाओ। कहते हैं, कि इसी से तो खुशियाँ दुगुनी होती हैं।

लेकिन अगर गम बाँटना हो तो...कैसे बाँटें, उसे सांत्वना देकर...या फिर उसे पुरानी खुशियों की याद दिलाकर, शायद नहीं, क्योंकि यदि हम सांत्वना देने का प्रयास करेंगे तो हम उसके वर्तमान दुखों की याद करायेंगे जो उसके दुखों में वृद््धि ही करेंगे, और यदि हम उसके बीते हुये अच्छे पलों की याद कराकर उसे खुशी प्रदान करने की कोशिश करेंगे तो स्थिति और भी जटिल हो जायेगी क्योंकि जब आदमी पर दुखों का पहाड़ टूटता है तो खुशी के पल भी उसे कष्ट प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ भारतीय वैवाहिक परंपरा में दूल्हे के खाना खाने या फिर दूल्हे के पिताजी के आगमन से संबधित शुभ अवसरों पर गाली देने का रिवाज है, मतलब खुशी के समय पर गालियाँ भी अच्छी लगने लगती है और दुख के अवसर पर अच्छी बातें भी खराब।

तो बात हो रही थी, किसी के सुख या फिर दुख को महसूस करने की। मेरा मानना है कि हम किसी के सुख या फिर दुख को महसूस नही कर सकते। मैं इसका एक उदाहरण देना चाहूंगा जो आजकल मैं बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं, स्मरणीय है कि मैं महसूस कर रहा हूँ, इसका मतलब यह नही है कि मैं उसमें शामिल हूँ, एक संवेदनशील द्ष्टा की तरह मैं देख रहा हूँ और उसपर अपने विचार व्यक्त कर रहा हूँ, किंतु इतना अवश्य है कि ये घटना किसी को भी विचलित कर सकती है।

इस समय मैं गुड़गाँव में रह रहा हूं, विकास सर के साथ। हम जहाँ रहते हैं, रहते क्या हैं, बस नहाते हैं और कपड़े चेंज करते हैं, वहाँ की स्थिति थोड़ी अजीब है। मकान के मालिक दो भाई हैं, जिनके मकान में दो भाग हैं। हम दाये वाले भाग में रहते हैं। जिसमें चार कमरे नीचे और एक कमरा ऊपर है। नीचे वाले कमरों में हम

रहते हैं। पहले वाले कमरे में एक परिवार रहता हैं जिसमें पति-पत्नी और उनके तीन बच्चे रहते हैं। ये लोग हरियाणा से बिलांग करते हैं। दूसरे वाले कमरे में हम लोग रहते हैं, विकास सर और मैं। तीसरे कमरे में दो लड़के रहते हैं जो किसी कंपनी में काम करते हैं, वे कहाँ के हैं, नही जानता। चौथे कमरे में भी लड़के रहते हैं। सारी पाँचवा कमरा भी है, मैं बताना भूल गया था, जिसमें एक पति-पत्नी रहते हैं जो बिहार के हैं। सर उनको बिहारी और बिहारन कहते हैं। अच्छी बात यह है कि दोनो काम पर जाते हैं, और शायद बहुत खुश भी हैं। अब आते हैं मुख्य कहानी पर, घर का दूसरा हिस्सा, दूसरे भाई का है। उसमें किरायेदार रहते हैं कि नही मैं नही जानता हूँ। दूसरे भाई का परिवार रहता है, यह पता है। मेरे कहानी का पात्र दूसरा भाई और उसकी पत्नी हैं। उनके बच्चे भी हैं पर कितने हैं, कह नही सकता, कभी जानने का मौका नही मिला। या फिर जानने की कोशिश नही की। कहानी का प्लाट यह है कि दिन भर उस घर में क्या होता है नही पता क्योंकि दिन भर हम रहते ही, रहते तो रात में भी नही हैं, लेकिन खाना खाने चले जाते हैं। जैसे ही रात के दस बजे के आसपास का समय होता है, दूसरा भाई घर में प्रवेश करता है, पूरी तरह धुत होकर, शराब के नशे में। आते ही वह अपनी पत्नी को भद्दी-भद्दी गालियाँ देना शुरू कर देता है। और गालियाँ भी ऐसी की गोलियाँ भी शर्मा जायें। वह कुछ सेलेक्टेड गालियों को बार-बार दोहराता है और ना जाने कैसी-कैसी आवाजें निकालता है, कभी लगता है कि वह रो रहा है कभी लगता है कि वह हँस रहा है। कभी लगता है कि किसी को मार रहा है और कभी लगता है कि अपने पैर पटक रहा है। उसकी पत्नी की आवाज कभी सुनाई नही देती और ना ही उसके बच्चों की। बस आवाज आती है तो उसके गालियों की, और यह सिलसिला ना जाने कबसे चल रहा है ना जाने कब तक चलेगा। हम सुनते हैं और बस सुनते हैं, कभी-कभी लगता है कि वो कमरा छो़ड़ दिया जाय, शुरु में तो मैं बर्दाश्त ही नही कर पाता था, और लगता था कि कहाँ आ गये हैं हम, कैसे कैसे लोग हैं संसार में। लेकिन धीरे धीरे ये लगने लगा कि क्या हम इस आदमी के रुप में किसी कैरेक्टर का निर्माण कर सकते हैं कि नही, लगा कि हाँ, निर्माण कर सकते हैं। तबसे उसका चीखना चिल्लाना और गालियाँ देना मैंने कैरेक्टर के रूप में लेना शुरु कर दिया, और मेरे कैरेक्टर का निर्माण शुरू हो गया। मैं उसकी गालियों पर ध्यान देता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ। यह शायद मानवता नही है लेकिन एक कोशिश है, इन परिस्थितियों से सबको अवगत कराने की। उस व्यक्ति की पत्नी पर क्या गुजरती होगी, शायद कोई महसूस नही कर सकता। प्रतिदिन शाम को एक मानसिक अत्याचार, स्ट्रेट फारवर्ड कहें तो मेंटल रेप.....। सुबह यदि वो सामने आ जाती है तो उसके चिह्न उसके चेहरे पर साफ दिखाई देते हैं। एक मुरझाया हुआ चेहरा, जिसपर बेबसी और बिखराव की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे जाती हैं। उसकी क्या गलती है शायद उसे नही पता। उसके साथ ऐसा क्यों होता है, वह कभी भी नही जान पायेगी। आमतौर पर ऐसी स्थितियाँ उस घर में उत्पन्न होती हैं जहाँ पर आर्थिक, या फिर नैतिक संकट हो, या फिर अशिक्षा भी एक कारण हो सकती है। लेकिन यहाँ पर ऐसा कोई कारण नही है। उसका परिवार संपन्न तो नही फिर भी आराम से घर चल जाता है। सामने दो दुकाने हैं जिनसे अच्छा खासा किराया आ जाता है। पत्नी अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी निष्ठा से निभाती है, लेकिन फिर भी ये सारी घटनाये होती है। क्यों, पता नही क्यों। इन सारी बातों में एक बात बहुत ही अजीब है कि वह व्यक्ति किसी और से बात करते समय पूरी तरह सामान्य रहता है, अगर वह घर में से गाली ही देकर क्यों ना निकला हो। देखने में भी शराबी या फिर गाली बकने वाला नही लगता। कभी-कभी स्वयं ही कहता है जब उसका सामना सर से हो जाता है कि वह रिसर्च कर रहा है। क्या रिसर्च कर रहा है, उसे ही पता होगा। शायद किसी को कितनी बेरहमी से टार्चर किया जा सकता है, उस विषय पर।

क्या उस पत्नी के दुख को महसूस करके उसे कम किया जा सकता है......उत्तर मिले तो अवश्य बतायें।

Saturday, January 16, 2010

DASTUK....

दे रहीं दस्तक हवायें, अनसुनी अंजान सी,

हो गया वीरान घर है, हर गली सुनसान सी।

खेलती खुशियाँ जहाँ थी, बिन बुलाये हर घड़ी,

आज पसरा है धुँआ, खामोशी है शमशान सी।



दस्तक...

किसी की भी हो सकती है, जाने की, अनजाने की, खुशियों की, गमों की, जीवन की या फिर मृत्यु की भी...। महत्वपूर्ण यह है कि उसके पूर्व का वातावरण क्या रहा है। यदि खुशियाँ दस्तक देती हैं तो उसके पूर्व की घटनायें काफी कुछ उसके विषय में बता देती हैं। इसके अतिरिक्त कुछेक खुशियाँ ऐसी भी होती हैं जिनके आने का पूर्वाभास नही होता और वे एकदम से सामने आ जाती हैं और हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं। इसी तरह कोई अनजाना सा चेहरा हमारे सामने आ जाता है और हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, और उस अनजाने का प्रभाव हमारे जीवन पर काफी समय तक रहता है।

इस ब्लाग पर कुछ ऐसे ही दस्तकों के विषय में चर्चा होगी, जो हमारे जीवन, हमारे जीवन शैली, हमारे समाज और हमारे देश के दरवाजे पर ना जाने कबसे हो रहे हैं और हम जाने अनजाने में उसके लिये अपने दरवाजे खोल रहे हैं और बंद भी कर रहे हैं।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...