Thursday, May 4, 2023

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर

कहानी

 जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।  चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लोकतंत्र के सजग प्रहरी होने का बोझ विद्यालय के हेडमास्टर के कंधे पर कुछ अधिक ही महसूस होने की बेचैनी से छुटकारा पाने के लिये मैं निकाय चुनाव में मतदान करने के जंजाल से सुबह-सवेरे ही निवृत्त होने के लिये मतदान स्थल पर श्रीमती जी को लेकर पहुँचा। विद्यालय पर किसी और के न होने की वजह से दोनो बच्चे भी साथ आये लेकिन मतदान स्थल पर बच्चों के लिये अलग से देखभाल की कोई व्यवस्था न होने की वजह से गाँव में चले गये।

मैं चुनाव आयोग से यह विनती करना चाहता हूँ कि जिन मतदाताओं को मजबूरी में अपने बच्चों के साथ मतदान स्थल पर आना पड़ता है उनके बच्चों के मनोरंजन/देखभाल की व्यवस्था भी करने का कष्ट करें।

गेट पर अपने कंधे से लोकतंत्र का सबसे जरूरी बोझ हटाने के उपक्रम में लगे हुये और भी लोगों को देखकर हैरानी कम, झुंझलाहट ज्यादा हुई। फिलहाल श्रीमती जी गेट से अंदर चली गयीं और जाकर खड़ी हो गयी। उनके खड़े होते ही तपाक से कुछ और औरते भीं लाइन में आ गयीं जो पहले से ही वहाँ बैठी थीं। खड़ा होना कितना आवश्यक होता है, इसी के मद्देनजर चुनाव में भी खड़ा ही हुआ जाता है। जो खड़ा होता है वह लड़ाई में जीतता है और जो बैठ जाता है वह तो हार जाता है।

मैं भी लोगों के बीच में वहीं खड़ा हो गया। लेकिन यह खड़ा होना भीड़ का हिस्सा होना था। मतदान स्थल पर प्रत्याशियों के एजेंट जरूरी प्रक्रियाओं के क्रम में अपनी भूमिका निभा रहे थे। सुरक्षा कर्मियों की संख्या अच्छी खासी थी। चार एस.एस.बी के जवान हथियारबन्द होकर चौकस थे। इसके बाद राज्य पुलिस के उपनिरीक्षक, सिपाही भी मुस्तैदी से तैनात थे। सात बजते ही सुरक्षा कर्मियों ने पुरुष मतदाताओं को पंक्ति में खड़ा कर दिया और मतदान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इस बार चुनाव बैलेट पेपर पर हो रहा था। इसलिये चुनाव कर्मचारियों में से एक ने पहले ही आकर मोहर मारने की प्रक्रिया के बारे में बताया।

मतदान प्रारंभ हुआ और इसी के साथ प्रारंभ हुआ पंक्ति में खड़े होकर अपनी बारी में इंतजार करने का। सभी लोग मुहल्ले के ही थे। पीछे घूमकर देखा तो कतार गेट तक चली गयी थी। मेरे पीछे मेरे पिताजी की उम्र के एक बुजुर्ग थे। वह बार-बार शरीर में सटे जा रहे थे। यहीं से मतदाता के रूप में आये हुये एक हेडमास्टर की अनुशासन प्रिय आँखों ने सारी चीजों को अपने नजरियों से देखना शुरू किया और झल्लाहट से शुरू होकर सहानुभूति तक पहुँचकर समग्र रूप से विचार करके मुस्करा सका।

बुजर्ग शरीर से सटने के साथ-साथ अपनी कड़ी आवाज में बेवजह बोले जा रहे थे।

इनलोगों को पंक्ति में एक हाथ दूर खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने का शऊर नहीं आता।

सबसे पहला विचार मन में यही आया। बाद में उनके सटने की वजह से कान में बोलने की वजह से और ज्यादा झुंझलाहट होने लगी। एक हेडमास्टर को कक्षा ही नहीं बल्कि पूरे विद्यालय परिसर में शांति की आकांक्षा रहती है और यहाँ महाशय मेंरे कान में ही लागातार बोले जा रहे थे। कई बार मन में आया कि इन्हे टोक दूँ पर लोक व्यवहार का पालन करते हुये चुप ही रहा। पीछे से कुछ आवाजें आयी तो देखा कि एक महाशय मोबाइल फोने के मसले पर एस.एस.बी. के जवान से बहस कर रहे थे। जवान उनके जेब में पड़ी हुई मोबाइल पर आपत्ति कर रहा था और वह महोदय उसे साइलेंट रखकर बात न कर रहे होने की दुहाई दे रहे थे। जवान कानून की दुहाई दे रहा था और महोदय सभी पर उसे समान रूप से लागू करने की दलील दे रहे थे। फिलहाल दहरम-बहरम हुआ और उन्होने अपना मोबाइल निकाल कर सफाईकर्मी को दे दिया और उनके ऐसा करते ही बरसाती मेढ़क की तरह फुदककर जेब से बाहर आने लगे।

फिलहाल मेरे पीछे वाले बुजुर्ग की शिकायत इस बात को लेकर बढ़ रही थी कि लाइन खिसक नहीं रही है। उनका तर्क था कि पिछले चुनावों में महिला और पुरुष मतदान अलग-अलग होता था जो कि पूरी तरह गलत था। महिलाओं की पंक्ति में कई ऐसी महिलायें पीछे से घुँस आयीं जिनको चक्कर आ रहा था, तबियत खराब थी, शादी होने वाली थी, उम्र ज्यादा हो गयी थी, इत्यादि-इत्यादि। थोड़ी ही देर में यही कहानी पुरुषों की पंक्तियों में भी शुरू हो गयी। ऐसा लग रहा था कि सरकारी अस्पताल की ओपीडी यहीं लग गयी है। सारे मरीज एक साथ यहीं इलाज कराने के लिये आ पहुँचे हैं। बुजुर्ग का कहना था कि इस तरह से तो हम लोग इंतजार ही करते रह जायेंगे। फिर सुबह-सुबह आकर फायदा क्या हुआ।

उनकी बेचैनी को देखकर उनका बड़ा लड़का पीछे से आया और उनकी हड़बड़ाहट पर डाँटने लगा।

इनके देखSS। हमहीं भगही पहिरावल सिखवलीं, और आज ई हमहीं के साजे आइल बाड़ें। जइब यहाँ से।

बुजुर्ग ने मुझसे कहा। मैने कहा- नासमझ है बेचारा।

बुजुर्ग हँसने लगे। मैने कहा-चलिये आप मेरे आगे खड़े हो जाइये।

-नाइ मास्टर साहब, हम रउरे पिछवें रहब।

मैं मुस्करा उठा। पीछे देखा तो लाइन और लंबी हो गयी थी। हमारे मतदान स्थल पर तीन बूथ बने हुये थे। तीनों शिवनगर वार्ड के थे। भीड़ को देखकर धैर्य से अपनी बारी का इंतजार करते हुये देखकर विचार आया कि आज मोबाइल के जमाने में मतदान ही ऐसा समय है जब लोग एक साथ इकट्ठे होते हैं। वैसे इकट्ठे तो शादी-विवाह और उत्सवों में भी होते हैं, लेकिन उस समय सबके हाथ में मानव एक सामाजिक प्राणी है, सिद्धान्त का सबसे बड़ा दुश्मन मोबाइल होता है। और सबको सेल्फी की पड़ी होती है। मतदान के कतार में ऐसा कुछ नहीं होता। लोग एक दूसरे के आगे पीछे खड़े होतें हैं और आपस में बातें कर रहे होते हैं। इस लिहाज से चुनाव सामाजिकता को बढ़ावा देने के क्रम में भी याद रखा जाना चाहिये।

दूसरी तरफ बीमार जिस प्रकार डाक्टर से मिलकर आधे ठीक होकर निकलते हैं उससे दो कदम आगे मतदाता वोट डालने के बाद पूरी तरह से ठीक होकर निकलते देखे गये। इस बीच बुजुर्ग के कतार न खिसकने की शिकायत और ज्यादा बढ़ गयी थी।

-जाकर पीछे से ठेल दीजिये कतार आगे बढ़ जायेगी।

मैने हँसते हुये कहा।

-हमरे जगहिया पिछवा वाला आ जाई।

वह नहीं गये। यही वक्त था जब हाथ में आई फोन लिये हुये एक व्यक्ति जो स्वयं को मीडिया पर्सन बता रहे थे मतदान स्थल पर आये। वह लोगों का वीडियो बनाने लगे। मैं उनको ध्यान से देखने लगा। आई फोन को पकड़ने वाली उंगलिया काँप रहीं थी। मोबाइल हिल रहा था। इसका मतलब यही था कि सामने वाला व्यक्ति किसी नशीली वस्तु की चपेट में है। फिलहाल मेरा नंबर आया और मैं अंदर गया। बाद में वहीं प्रक्रियाएं जो रुटीन हैं। बैलेट पेपर लेने के बाद ध्यान से देखा तो उनके रंग में ही अंतर था। निश्चित तौर पर कई लोगों ने अध्यक्ष और सभासद को वोट देने में गलतियाँ जरूर की होंगी। इनवैलिड वोट तो होते ही हैं।

खैर में वोट देकर बाहर आया। देखा कि मेरे पीछे वाले बुजुर्ग अभी कतार में ही खड़े हैं। बीमारों की संख्या बदस्तूर जारी है। सबसे बड़ी बात कि मेरी श्रीमती जी सबसे पहले वोट देकर विद्यालय जा चुकी थीं। उनके जाने के सवा घंटा बाद मैं विद्यालय पहुँचा और देखा कि वो गेट खोलने के बाद आफिस के सामने ही कुर्सी पर बाहर बैठी हैं। देखते ही जान गया कि उनसे कमरे का ताला नहीं खुला।

-मैने सोचा था कि जाते ही भोजन मिलेगा। यहाँ तो तुम बाहर ही बैठी हो।

मार्निंग क्लास चलने की वजह से  पेट की अभिलाषा का टाइमटेबल बदल गया है। भूख लग ही चुकी थी। मैं थोड़ा निराश था।

-आपने कमरे में वह ताला लगा दिया है जो मुझसे खुलता ही नहीं है।

-मैने सोचा था कि जाकर खाना खाउंगा।

पेट का दर्द मुँह से बाहर निकल ही गया। पता था कि कम से कम एक घंटा लग ही जायेगा।

-मैने खाना बना दिया है। ताला कमरे का नहीं खुला। किचन तो बिना ताले का ही था।

कितनी खुशी हुई बता नहीं सकता।

4 मई 2023

 

 

 

दस्तक सुरेन्द्र पटेल निदेशक माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स

Friday, July 2, 2021

नारी का नारकीय जीवन: कारण

सभ्यता के आदिकाल से ही नारी को दोयम दर्जे का नागरिक मााना जाता रहा है। नाना प्रकार के विकास के बावजूद आज इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भी उसकी स्थित बहुत ज्यादा नहीं सुधरी है। उसके अधिकार बढ़े हैं, किन्तु उसके प्रति सोच में बदलाव ज्यादा नहीं हुआ है। इतिहास की पुस्तकों में मिलता है कि सभ्यता के शुरुआती दौर में समाज मातृ सत्तात्मक था। स्त्रियों को प्रधान का दर्जा प्राप्त था। इसकी जड़ें खोदने के पश्चात ज्ञात होता है कि उसके पीछे भी नारी के प्रति पुरुष की ताकतप्रधान सोच ही थी। 
बात यदि भारत की करें तो यहाँ स्थिति और भी ज्यादा खराब है। आये दिन यहाँ के हर शहर में बलात्कार, हत्या, शोषण इत्यादि की खबरें देखने, सुनने, पढ़ने को मिल जाती हैं। इसका कारण क्या है? कानून बनने के बाद भी स्त्रियों के प्रति समाज के व्यवहार में परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा है। निर्भया काण्ड के बाद बलात्कार के मामलों में फाँसी तक की सजा का भी प्रावधान कर दिया गया। लेकिन इस तरह की घटनाओं के बाद भी कोई सकारात्मक बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। जो मामले मीडिया या फिर कानून के संज्ञान में आते हैं, बनिस्पत उसके, सामने न आने वाले मामलों  की संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसे मामलों में घरेलू शोषण और हिंसा की शिकार बच्चियों, महिलाओं की हालत बहुत खराब है। ऐसी शिकार महिलायें तो अपना मुँह भी नहीं खोल सकतीं। उन्हे अपनी स्थिति को अपनी नियति मानकर उसे स्वीकार कर लेना पड़ता है। यही स्थिति उनकी सर्वकालिक दुर्दशा की सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। 



जून के अंतिम हफ्ते मे हमारे जिले (महराजगंज) में कोठीभार थानान्तर्गत एक गाँव में किसी लड़की के साथ दुष्कर्म हुआ। अगले दिन पंचायत ने लड़की के साथ दुष्कर्म के मामले को 50000 और आरोपित को 5 चप्पल मारने की सजा के साथ रफा-दफा करने की कोशिश की। परिवार वाले नहीं माने और वह कोठीभार थाना पहुँच गये। पुलिस ने तहरीर बदल दी और दुष्कर्म को छेड़छाड़ में बदल दिया। मामले ने तूल पकड़ और महराजगंज पुलिस अधीक्षक को यह बयान देना पड़ा कि लड़की के साथ छेड़छाड़ किया गया है। मेडिकल जाँच के बाद स्थित साफ होगी। सवाल यह है कि जिस मामले में एस पी को शामिल होना पड़ा। क्या उस मामले की डाक्टरी जाँच पूरी ईमानदारी  से हो पायेगी। यह मामला एक उदाहरण है। पूरे देश में हर मिनट इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं। 
हमारा मुद्दा यह है कि, कड़े कानूनों के बावजूद इस तरह की घटनायें क्यों हो रही हैं। 
ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ऐसा इसलिये है क्योंकि स्त्रियों को सभ्यता के आदिकाल से ही भोग की वस्तु माना जाता है। इतिहास से पता चलता है कि पुरुषो ने अनगिनत स्त्रियों के साथ विवाह किया। युद्धादि आपद काल में उन्हे लूट की वस्तु माना। उनका बकायदा बँटवारा किया। ऐसा नहीं है कि यह किसी देश-समाज विशेष की विशेषता रही हो। स्त्रियों पर अत्याचार ने देशकाल की सीमाओं को पार किया है। मध्यकाल में यूरोप में किसी भी स्वतंत्र विचारधारा वाली स्त्री को बड़ी आसानी से चुड़ैल घोषित कर दिया जाता था। ऐसी औरतों को बड़ी ही बेरहमी से मार दिया जाता था। स्त्री को भोग की वस्तु मानने वाली विचारधारा इक्कीसवीं सदी में भी नहीं बदली है। भारतीय समाज में बकायदा शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध हैं जिनमे स्त्रियों को शूद्रो के कोटि का माना जाता रहा है। पहले तो उन्हे शिक्षा ग्रहण करने की आजादी भी नहीं थी। 
स्वतंत्रता पश्चात कानून का शासन लागू होने के बाद स्त्रियों की समाजिक, आर्थिक उन्नति अवश्य हुई है, किन्तु उनके प्रति कलुषित असांस्कृतिक सोच नहीं बदली है। आज भी हमारे समाज का एक बड़ा तबका यह सोचता है कि स्त्री उसकी जागीर है। इसकी बानगी हर मोर्चे पर दिख जाती है। प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के पश्चात प्रशासनिक सेवा के लिये चुनी गयी स्त्री के नीचे काम करने पर पुरूष को शर्म आती है। उसे विभागीय प्रोन्नति पाने के लिये नाकों चने चबाने पड़ते हैं। ज्यादातर सहकर्मी सदैव उसे वासना की दृष्टि से ही देखते हैं। सरकारी विभाग में उच्च पदों पर होने के बावजूद घर में उसे पति और सास-ससुर के नियंत्रण में रहना पड़ता है। आमतौर पर ऐसी स्त्रियों का कामकाज भी उनके पतियों द्वारा नियंत्रित करते देखा गया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजनीति है। जहाँ नाम के लिये चुनकर तो महिलाये जाती हैं लेकिन सारा कार्यभार पति ही उठाता है। 
कहने का तात्पर्य यही है कि समाज में स्त्रियों को पुरूषों से कमजोर माना जाता रहा है। उनके शीरीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक क्षमता को कम करके आँका गया है। उसकी कोमलता को उसकी कमी माना गया है। और यह वही सोच है जो दो कौड़ी के पुरूष को, किसी महिला डाक्टर, इंजीनियर, वकील, लेफ्टीनेंट, जज इत्यादि के ऊपर अत्याचार करने का बढ़ावा देता है। 

Sunday, June 20, 2021

मिल्खा सिंह ने जीतने के लिये प्रेरित किया


1960 में रोम ओलंपिक में 400 मीटर रेस में गोल्ड मेडल जीतने वाले अमेरिका के ओटिस डेविस ने उस दिन का याद ताजा करते हुये कहा कि 
"मिल्खा सिंह वाकई बहुत तेज थे। उनकी तेजी ने ही वो प्रेरणा दी, जिससे मैं रिकार्ड तोड़ सका।"
 
मिल्खा एक महान धावक, बहुत तेज धावक थे। वह फाइनल में थे, और मैं आपको बता रहा हूं, मैं उनके विषय में बहुत चिंतित था।

यह सिर्फ इसलिए नहीं था क्योंकि वह दौड़ में आने वाले पसंदीदा में से एक थे। मैंने उसे एक बार हीट से पहले देखा था जब वह सिर्फ अभ्यास कर रहे थे, और उन्होने दौड़ 47 सेकेण्ड में पूरी की। इसे देखने वाले खेल लेखकों में से एक ने कहा, "लड़का, वह तेज़ है! वह 47 सेकेण्ड में चल रहा है!" मैं वह सब सुन रहा था। लेकिन मैंने खुद से कहा: उसे मुझे हराने के लिए उससे भी तेज दौड़ना होगा!

रोम में हमारी मुलाकात से पहले मैंने कभी उनसे बातचीत नहीं की थी। हमारे दौड़ने से पहले ही वह मेरे पास आया और अपना परिचय दिया। तभी मुझे उसके बारे में थोड़ा बहुत पता चला। वह न केवल अपने पैरों से तेज था, वह बहुत बोलता भी था। मुझे याद है उसने मुझसे कहा था, "तुम जीतने जा रहे हो, लेकिन अगर तुम नहीं जीतोगे, तो मैं जीतने जा रहा हूँ!" वह मुझे मानसिक रूप से निराश करने की कोशिश कर रहा था, मुझे लगता है।

भले ही मैं ओलंपिक से पहले उनसे नहीं मिला था, फिर भी मुझे उनके कारनामों के बारे में पता था। मैं इस तथ्य के बारे में और भी अधिक जागरूक था कि वह निश्चित रूप से पसंदीदा में से एक था। वह पहले कुछ अन्य चैंपियन धावकों के खिलाफ दौड़ चुका था, और उसने अच्छा प्रदर्शन किया था।

हम सेमीफाइनल में एक साथ भागे (जहां मिल्खा डेविस के बाद दूसरे स्थान पर रहे)। यह मेरे खिलाफ उसकी ताकत थी। जाहिर है, वह दौड़ के लिए तैयार था।

और वह दौड़! मुझे याद है वह मेरे बाहर भाग रहा था। और मैंने देखा कि वह तेजी से जा रहा है, तुम्हें पता है, असली तेजी से। वह और (दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम) स्पेंस, जो तीसरे स्थान पर रहे, वास्तव में इसे वक्र के चारों ओर घुमा रहे थे। तभी मैंने अपनी चाल चली। उनके जाने के ठीक बाद मैंने अपना कदम बढ़ाया। लेकिन यह वे थे जिन्होंने गति निर्धारित की थी।

हर कोई हमारे (डेविस और कॉफमैन) के बारे में बोलता है, लेकिन हम उनकी तुलना में दौड़ रहे थे, जबकि वे उड़ रहे थे।

दौड़ के बाद, वह मेरे पास गया और मुझे बधाई दी, हालाँकि मुझे शब्द याद नहीं हैं। बेशक, मुझे पता था कि वह निराश था। मेरे मन में उस आदमी के लिए बहुत सम्मान था। वह हर मायने में एक महान खिलाड़ी थे। और वह बहुत लोकप्रिय भी थे।

मुझे उस ओलंपिक के बाद दोबारा उनसे बात करने का मौका नहीं मिला। मैं जर्मनी के दौरे पर गया और फिर अमेरिका लौट आया।

वह बहुत तेज दौड़ थी। इसने एक विश्व रिकॉर्ड तोड़ा। इसने एक बाधा तोड़ दी। यह ओलंपिक इतिहास की सर्वश्रेष्ठ (400 मीटर) दौड़ थी। मुझे सच में विश्वास है कि यह था। क्योंकि उसके पास इतने तेज धावक थे। क्योंकि इसमें दुनिया के कुछ बेहतरीन थे। मिल्खा की तरह।

जैसा कि रुत्विक मेहता को बताया गया

Saturday, June 19, 2021

जून (ज्येष्ठ) महीने में वर्षा रानी की ज्यादती



जीवन के 36 बसंत देख लिये हैं (यह आफिशियल डेटा है) लेकिन जेठ मास में वर्षा सुन्दरी का ताड़का रूप का दर्शन पहले नहीं देखा था। सही कहा है कवियों ने, ऐसा हमारे पुराणों में भी वर्णन है कि "स्त्री चाहे बना दे, चाहे तो बर्बाद कर दे।" यही हाल वर्षा का भी है, चाहे तो खेतों में सोना पैदा कर दे, चाहे तो उन्हे मटियामेट कर दे। मई महीने में मैने अपनी पत्नी से कई बार कहा कि "यार मई महीने में इस बार बारिश नहीं हुई।" नहीं मालूम था कि मई महीने का सारा उधार, जून महीने में सूद-ब्याज के साथ वसूल हो जायेगा। 
जून महीने के पहले हफ्ते में ताउते और दूसरे हफ्ते में यास नाम के दो तूफानो ने क्रमशः अरब सागर और बंगाल की की खाड़ी में खर और दूषण की तरह ऐसी तबाही मचायी कि चारों ओर पानी ही पानी हो गया। उत्तर भारत में तो किसान धान का बेहन डालने का इंतजार करते ही रह गये। जिन्होने डाल दिया वो पानी उलीचते-उलीचते परेशान हो गये। हमारे गाँव में लोग तो बाल्टी और इंजन के साथ पानी उलीचने में लगे थे। अभी ताउते का पानी खतम नहीं हुआ था कि, यास ने फिर से डुबा दिया। अबकी बार लोगो ने सोचा, जो होगा देखा जायेगा। 
तो कहने का मतलब यह है कि, केरल में सबसे पहले मानसून की दस्तक होती है, ऐसा मैने पढ़ा है, चूँकि भूगोल का विद्यार्थी रहा हूँ, तो ज्यादा अच्छी तरह से पढ़ा है। मानसून को उत्तर भारत में आते-आते लघभग दो हफ्ते का समय लग जाता है और वह जून के अंतिम हफ्ते या फिर जुलाई के पहले हफ्ते में उत्तर भारत में पहुँच जाता है। पर इस साल तो बिना बुलाये मेहमान की तरह वह जून के पहले हफ्ते से ही धमक पड़ा और जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। पिछले दो दिनों से तो हवायें तूफान की तरह चल रही हैं। गाँव शहर के अंदर रहने वालों को नहीं पता लेकिन हम लोग तो ठहरे निर्वासित लोग जो, गाँव और शहर दोनों में नहीं गिने जाते। खेतों को बीच में विद्यालय प्रांगण में निवास है, इसलिये हमें मौसम में होने वाली हर एक हल्की से हल्की जुंबिश का अहसास हो जाता है। 
ध्यान से देखा जाये तो, जिसे मौसम विज्ञानी पिछले कई दशकों से देख भी रहें हैं लेकिन दुनिया की सरकारें आँखें बन्द की हुई हैं, कि यह मामला सिर्फ समुद्री तूफान का मैदानी इलाकों में पड़ने वाला प्रभाव मात्र नही है। यह मुद्दा निर्वनीकरण, अंधाधुँध शहरीकरण, प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग का भी है। तूफान पहले भी समुद्रों में आते रहे हैं, लेकिन मैदानी इलाकों में  इस तरह का प्रभाव देखने को नहीं मिलता था। हवाओं के साथ एकाध दिन हल्की फुल्की बारिश हो जाती थी, बस इतना ही, लेकिन इस साल तो अति हो गयी है। बारिश है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। 
तो लब्बोलुआब यह है कि आगे इस तरह की घटनाओ को टालने के लिये मौसम विज्ञानियों की बातों क न सिर्फ सुनना होगा, बल्कि अमल भी करना होगा।

Thursday, December 3, 2020

मदनपुर वाली मातारानी

यूँ तो मातारानी सृष्टि के हर कण में विराजमान हैं किन्तु कुछ स्थान ऐसे हैं जो उनके जागृत स्वरूप की अनुभूति कराते हैं। बिहार राज्य के बगहा जिले में ऐसा ही एक दिव्य स्थान है जिसे मदनपुर वाली मातारानी के नाम से जाना जाता है। 

यह स्थान कितना दिव्य है इसका अंदाजा आपको यहाँ सप्ताह के सोमवार और शुक्रवार दिनों में आने पर चलेगा। इन दिनों यहाँ पर तिल रखने की भी जगह नहीं रहती है। हाँलाकि मातारानी का यह स्थान घने जंगल में है लेकिन श्रद्धालुओं की भीड़ से यह पूरा वनक्षेत्र भी कम नजर आने लगता है। हर महीने की पूर्णिमा के दिन यहाँ अद्भुत नजारा होता है जब हजारों की संख्या में भक्त माता को चुनरी चढ़ाने आते हैं।
यह मेरे स्वयं अनुभव की बात है। सभी को मातारानी के दरबार में अवश्य जाना चाहिये। जबतक न जा पायें तबतक मेरे द्वारा बनाये गये उपरोक्त वीडियो में ही मातारानी के पिंडी स्वरूप का दर्शन करके पुण्यलाभ प्राप्त करे।
जय मदनपुरवाली मातारानी। आपकी सदा जय हो।।

Friday, September 18, 2020

लाकडाउन और हमारा अस्तित्व..




समय सापेक्ष है, जीवन सापेक्ष है और यह जगत भी सापेक्ष है। सापेक्षता के इसी सिद्धान्त को संभवतः आइंस्टीन ने E=mc2 के रूप में निरूपित किया। इस जगत का अस्तित्व ही मिट जायेगा यदि यह सापेक्षता समाप्त हो जाये, और यही कारण है कि हम, अर्थात विद्यालय संचालक, प्राइवेट अध्यापक शनैः-शनैः समाप्ति की ओर जा रहे हैं। ऐसा इसलिये हो रहा है कि हमारी सापेक्षता का आधार, विद्यालय समाप्त हो रहा है। विद्यालय नहीं तो, विद्यार्थी नहीं, विद्यार्थी नहीं तो अध्यापक नहीं, अध्यापक नहीं तो संचालक नहीं। अर्थात कुछ नहीं।

14 मार्च 2020 को उ.प्र. सरकार ने विद्यालय बंद करने की घोषणा की, उसके कुछ दिनों के बाद प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू का ऐलान किया। जनता ने उनके कथनानुसार शाम को 5 बजे ताली-और थाली बजाई। उस दिन मैने भी, विद्यालय के ध्वनिविस्तारक यंत्र के माध्यम से प्रधानमंत्री के अपील का समर्थन किया और मेरे बच्चों ज्ञान और गौरी ने मेरे साथ कीबोर्ड पर अपने ड्रम के साथ, वह शक्ति हमें दो दयानिधे, भजन पर ताल से ताल मिलाया।

सभी को उम्मीद थी, कि समस्या का समाधान हो जायेगा, पर ऐसा हुआ नहीं और 24 मार्च को प्रधानमंत्री जी ने पूरे देश में लाकडाउन की घोषणा कर दी। उम्मीद 21 दिन और खिसक गयी। चलो जैसे तैसे काट लेंगे, 21 दिन के बाद तो सबकुछ ठीक हो ही जायेगा। सारा भारत बंद हो गया, विद्यालय भी बंद हो गये, विद्यार्थी आने बंद हो गये, आय का एकमात्र स्रोत, शुल्क भी बंद हो गया। अभिभावकों ने विद्यालय की तरफ से नजरें इस तरह से फेरीं, जैसे लोग राह चलते भिखमंगे से फेर लेते हैं। कुछ को खुशी हुई कि चलो, सालभर की फीस जमा करने का झंझट दूर हुआ। कितने काम हो जायेंगे उस फीस से, घर की दाल-रोटी चल जायेगी, पिताजी की दवाई आ जायेगी, बच्चों के कपड़े आ जायेंगे, खेतों के लिये बीज आ जायेगा, गेंहू की कटाई निकल जायेगी, एल.आई.सी. की किश्त जमा हो जायेगी, बहन की शादी में लगने वाल खर्च निकल जायेगा, बाहर की चारदीवारी टूट गयी है, उसकी मरम्मत हो जायेगी और भी न जाने क्या-क्या। चूँकि अभिभावकों के सारे काम विद्यालय की फीस से ही होते हैं, इसलिये उसके सारे कार्य उससे हो जायेंगे और वह पूर्णरूपेण सुखी  हो जायेगा।

अभिभावक तो सुखी हो गया किन्तु विद्यालय संचालक, अध्यापक 21 दिनों को रोजेदार मुसलमान की तरह उंगलियों पर गिनने लगा, कि अप्रैल में सब ठीक हो जायेगा। लेकिन ऐसा एक बार फिर नहीं हुआ और अप्रैल में लाकडाउन का दूसरा चरण शुरू हुआ और 3 मई तक चला। 4 मई से तीसरा लाकडाउन शुरू हुआ जो पूरे मई तक चला। जून में अनलाक का पहला चरण प्रारंभ हुआ और जो कोरोना महामारी कछुये की चाल से बढ़ रही थी वह अचानक से खरगोश की तरह भागने लगी और प्रभावितों का आँकड़ा आसमान छूने लगा। जून महीने तक संख्या लाखों में पहुँच गयी और यह स्पष्ट हो गया कि विद्यालय नहीं खुलने वाले हैं।

विद्यालय संचालकों और अध्यापकों की उम्मीद खत्म हो गयी, खत्म नहीं हुआ तो वह था कोरोना का भय जिसके साये में आज पूरा भारत अपनी स्वाभाविक स्थिति में नजर आता दिख रहा है। पर हकीकत इसके उलट है, यह सिर्फ विद्यालय नहीं है, जो आर्थिक बदहाली के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं, यह भारत की अर्थव्यवस्था है जो इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।

विद्यालय संचालकों का सारा कामकाज जो विद्यालय चलने के साथ हुआ करता था, हफ्ते के 6 दिन व्यस्त दिनचर्या, नाना-प्रकार की चुनौतिया और उनसे पार पाने की जद्दोजहद,  अंबेडकर जयंती, रामनवमी, गर्मी की छुट्टियाँ, समर असाइनमेन्ट, समर कैंप, जुलाई में बरसात की समस्या, प्रेमचंद जयंती, परीक्षाओं का आयोजन, 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस, जन्माष्टमी पर फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता, रक्षाबंधन पर भाई-बहन का प्रेम, बकरीद की सेवई, सितंबर में हिन्दी दिवस, अक्टूबर में गाँधी जयन्ती, दशहरे की छुट्टियाँ, दीपावली पर रंगोली प्रतियोगिता, नवंबर में बालदिवस, वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिता और भा न जाने क्या-क्या, सबकुछ खत्म हो गया, भूल गया। तारीखें भूल गयीं, सोमवार, मंगलवार भूल गया, रविवार जिसका बेसब्री से इंतजार था वह भूल गया।

कुछ शब्दों में कहें, अपना अस्तित्व भूल गया।

दस्तक

Saturday, June 20, 2020

सुशांत सिंह-लूजर का टैग हम खुद लगाते हैं.......


Sushant Singh Rajput Death When He Removed His Surname Rajput ...
दस्तक सुरेन्द्र पटेल
बीते 14 जून को हिन्दी फिल्म उद्योग के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली। उनकी आत्महत्या ने फिल्म इंडस्ट्री ही नहीं बल्कि राजनीति, साहित्य, कला इत्यादि क्षेत्रों के साथ-साथ आम जनमानस को भी झकझोर दिया। चर्चा का विषय यही था कि सुशांत जैसा प्रसन्नचित्त दिखने वाला अभिनेता जिसकी कामयाब कहानी कहने के लिये उनकी फिल्मों की सफलता ही काफी थीं, उसने ऐसा कदम क्यों उठाया। देश के प्रधानमंत्री से लेकर सभी लोगों ने उनकी मौत पर शोक जताया। 
सवाल उठता है कि सुशांत ने आत्महत्या क्यों की। कई तरह की कहानियाँ तैर रही हैं। कोई फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों पर सवाल उठा रहा है। कोई उनके व्यक्तिगत जीवन पर उंगली उठा रहा है। कोई उनके कमजोर होने पर सवाल खड़े कर रहा है। 
एक व्यक्ति जो खुद को खत्म करने जैसा खौफनाख कदम उठाने जा रहा है उसके दिलोदिमाग में क्या चल रहा है, कोई इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता। पशु-पक्षियों को भी अपने जीवन से प्रेम होता है। किसी ने नहीं सुना होगा कि किसी जानवर ने आत्महत्या की होगी। सिर्फ इंसान आत्महत्या करता है, क्यों। 
क्योंकि वह अपने नहीं बल्कि दूसरे के नजरिये से अपना जीवन जीता है। उसकी सफलता औऱ असफलता दूसरों के पैमाने की मोहताज होती है। उसकी खुशी रूई के उस गट्ठर की भाँति हो जाती है जो जितना ज्यादा गीली होती है उसका वजन उतना ही ज्यादा हो जाता है। 
सुशांत सिहं पहले अभिनेता या अभिनेत्री नहीं है जिसने आत्महत्या की हो। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों की फेहरिस्त काफी लंभी है जिन्होने आत्महत्या की है। 
अभिनेता जिन्होने आत्महत्या की-
https://en.wikipedia.org/wiki/Category:Indian_male_actors_who_committed_suicide
1-गुरूदत्त 
2-संतोष जोगी
3-नितीन कपूर
4-उदय किरन
5-कुणाल सिंह
6-साईं प्रशान्त
7-कौशल पंजाबी
8-रंगनाथ
9-श्रीनाथ
इनके अलावा 17 अभिनेत्रियाँ है जिन्होने आत्महत्या की है।
https://en.wikipedia.org/wiki/Category:Indian_actresses_who_committed_suicide

आत्महत्या को किसी भी सूरत में जस्टिफाई नहीं किया जा सकता। कानून भी इसे अपराध की श्रेणी में रखता है जिसमें सजा का भी प्रावधान है। लेकिन फिर भी लोग आत्महत्या कर रहे हैं तो इस पर बहस होनी चाहिये। गरीब, कर्ज में डूबा हुआ व्यक्ति, व्यवसाय में घाटा होने पर बर्बाद हुआ व्यवसायी इत्यादि आत्महत्या करते हैं तो कहा जाता है कि उसने जीवन से परेशान होकर ऐसा किया। किसानों की आत्महत्या पर तो बाकायदा राजनीति भी होती रही है। किसानों की आत्महत्या विषय पर एक व्यंग फिल्म भी बन चुकी है जिसका नाम पीपली लाइव था।
लेकिन एक सफल अभिनेता जिसकी फिल्मों ने अच्छी कमाई की हो, जिसके पास पैसा हो, जो अच्छी जिंदगी जी रहा हो, वह ऐसा करे तो दाल में कुछ काला जैसा प्रतीत होता है।
सुशांत की पिछली फिल्म छिछोरे थी। यह फिल्म इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में असफल हो जाने वाले एक ऐसे लड़के की आत्महत्या की कोशिश करने की घटना के इर्द गिर्द घूमती है जिसके   माता-पिता दोनो इंजीनियर हैं। पिता अपने लड़के को जिंदगी जीने की प्रेरणा देता है। उसका लड़का लूजर होने का दबाव न झेल पाने की वजह से टैरेस से कूद जाता है। पिता उसे अपने और अपने दोस्तों के जीवन से तमाम ऐसे उदाहरण देता है जिसमें उन लोगों ने कई बार असफलता का मुँह देखा लेकिन जीवन से कभी हार नहीं मानी और अंततः अपने जीवन में कामयाब हुये।
इस फिल्म में पिता का किरदार सुशांत सिंह ने ही निभाया था। आजकल फिल्म व अभिनेताओं की बड़ी सपाट सी सोच है। वह फिल्म को दर्शकों के लिये मात्र मनोरंजन का साधन मानते हैं। अपने आपको सिर्फ एक किरदार जिसका काम लेखक के लिखे चरित्र को मात्र परदे पर उतार देना है। कैमरे के पीछे उनका जीवन अदा किये गये किरदारों के मेहनताने के रूप में प्राप्त की गई रकम को खर्च करने तक ही सीमित है। कुछ सयाने अभिनेता उस रकम को बिजनेस में लगाते हैं और बाद की जिंदगी के लिये रखते हैं। अभिनेताओं का किरदार से कोई जुडाव ही नहीं है। किसी को कोई परवाह नही है। कोई अपनी जिम्मेदारी नहीं समझना चाहता। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री और साउथ फिल्म इंडस्ट्री में यह मूलभूत अंतर है। 
क्रमशः.....

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