मतदान स्थल और एक हेडमास्टर
कहानी
जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है। चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लोकतंत्र के सजग प्रहरी होने का बोझ विद्यालय के हेडमास्टर के कंधे पर कुछ अधिक ही महसूस होने की बेचैनी से छुटकारा पाने के लिये मैं निकाय चुनाव में मतदान करने के जंजाल से सुबह-सवेरे ही निवृत्त होने के लिये मतदान स्थल पर श्रीमती जी को लेकर पहुँचा। विद्यालय पर किसी और के न होने की वजह से दोनो बच्चे भी साथ आये लेकिन मतदान स्थल पर बच्चों के लिये अलग से देखभाल की कोई व्यवस्था न होने की वजह से गाँव में चले गये।
मैं चुनाव आयोग से यह विनती करना चाहता हूँ कि जिन मतदाताओं को मजबूरी में अपने बच्चों के साथ मतदान स्थल पर आना पड़ता है उनके बच्चों के मनोरंजन/देखभाल की व्यवस्था भी करने का कष्ट करें।
गेट पर अपने कंधे से लोकतंत्र का सबसे जरूरी बोझ हटाने के उपक्रम में लगे हुये और भी लोगों को देखकर हैरानी कम, झुंझलाहट ज्यादा हुई। फिलहाल श्रीमती जी गेट से अंदर चली गयीं और जाकर खड़ी हो गयी। उनके खड़े होते ही तपाक से कुछ और औरते भीं लाइन में आ गयीं जो पहले से ही वहाँ बैठी थीं। खड़ा होना कितना आवश्यक होता है, इसी के मद्देनजर चुनाव में भी खड़ा ही हुआ जाता है। जो खड़ा होता है वह लड़ाई में जीतता है और जो बैठ जाता है वह तो हार जाता है।
मैं भी लोगों के बीच में वहीं खड़ा हो गया। लेकिन यह खड़ा होना भीड़ का हिस्सा होना था। मतदान स्थल पर प्रत्याशियों के एजेंट जरूरी प्रक्रियाओं के क्रम में अपनी भूमिका निभा रहे थे। सुरक्षा कर्मियों की संख्या अच्छी खासी थी। चार एस.एस.बी के जवान हथियारबन्द होकर चौकस थे। इसके बाद राज्य पुलिस के उपनिरीक्षक, सिपाही भी मुस्तैदी से तैनात थे। सात बजते ही सुरक्षा कर्मियों ने पुरुष मतदाताओं को पंक्ति में खड़ा कर दिया और मतदान की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इस बार चुनाव बैलेट पेपर पर हो रहा था। इसलिये चुनाव कर्मचारियों में से एक ने पहले ही आकर मोहर मारने की प्रक्रिया के बारे में बताया।
मतदान प्रारंभ हुआ और इसी के साथ प्रारंभ हुआ पंक्ति में खड़े होकर अपनी बारी में इंतजार करने का। सभी लोग मुहल्ले के ही थे। पीछे घूमकर देखा तो कतार गेट तक चली गयी थी। मेरे पीछे मेरे पिताजी की उम्र के एक बुजुर्ग थे। वह बार-बार शरीर में सटे जा रहे थे। यहीं से मतदाता के रूप में आये हुये एक हेडमास्टर की अनुशासन प्रिय आँखों ने सारी चीजों को अपने नजरियों से देखना शुरू किया और झल्लाहट से शुरू होकर सहानुभूति तक पहुँचकर समग्र रूप से विचार करके मुस्करा सका।
बुजर्ग शरीर से सटने के साथ-साथ अपनी कड़ी आवाज में बेवजह बोले जा रहे थे।
“इनलोगों को पंक्ति में एक हाथ दूर खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने का शऊर नहीं आता।”
सबसे पहला विचार मन में यही आया। बाद में उनके सटने की वजह से कान में बोलने की वजह से और ज्यादा झुंझलाहट होने लगी। एक हेडमास्टर को कक्षा ही नहीं बल्कि पूरे विद्यालय परिसर में शांति की आकांक्षा रहती है और यहाँ महाशय मेंरे कान में ही लागातार बोले जा रहे थे। कई बार मन में आया कि इन्हे टोक दूँ पर लोक व्यवहार का पालन करते हुये चुप ही रहा। पीछे से कुछ आवाजें आयी तो देखा कि एक महाशय मोबाइल फोने के मसले पर एस.एस.बी. के जवान से बहस कर रहे थे। जवान उनके जेब में पड़ी हुई मोबाइल पर आपत्ति कर रहा था और वह महोदय उसे साइलेंट रखकर बात न कर रहे होने की दुहाई दे रहे थे। जवान कानून की दुहाई दे रहा था और महोदय सभी पर उसे समान रूप से लागू करने की दलील दे रहे थे। फिलहाल दहरम-बहरम हुआ और उन्होने अपना मोबाइल निकाल कर सफाईकर्मी को दे दिया और उनके ऐसा करते ही बरसाती मेढ़क की तरह फुदककर जेब से बाहर आने लगे।
फिलहाल मेरे पीछे वाले बुजुर्ग की शिकायत इस बात को लेकर बढ़ रही थी कि लाइन खिसक नहीं रही है। उनका तर्क था कि पिछले चुनावों में महिला और पुरुष मतदान अलग-अलग होता था जो कि पूरी तरह गलत था। महिलाओं की पंक्ति में कई ऐसी महिलायें पीछे से घुँस आयीं जिनको चक्कर आ रहा था, तबियत खराब थी, शादी होने वाली थी, उम्र ज्यादा हो गयी थी, इत्यादि-इत्यादि। थोड़ी ही देर में यही कहानी पुरुषों की पंक्तियों में भी शुरू हो गयी। ऐसा लग रहा था कि सरकारी अस्पताल की ओपीडी यहीं लग गयी है। सारे मरीज एक साथ यहीं इलाज कराने के लिये आ पहुँचे हैं। बुजुर्ग का कहना था कि इस तरह से तो हम लोग इंतजार ही करते रह जायेंगे। फिर सुबह-सुबह आकर फायदा क्या हुआ।
उनकी बेचैनी को देखकर उनका बड़ा लड़का पीछे से आया और उनकी हड़बड़ाहट पर डाँटने लगा।
“इनके देखSS। हमहीं भगही पहिरावल सिखवलीं, और आज ई हमहीं के साजे आइल बाड़ें। जइब यहाँ से।”
बुजुर्ग ने मुझसे कहा। मैने कहा- “नासमझ है बेचारा।”
बुजुर्ग हँसने लगे। मैने कहा-“चलिये आप मेरे आगे खड़े हो जाइये।”
-“नाइ मास्टर साहब, हम रउरे पिछवें रहब।”
मैं मुस्करा उठा। पीछे देखा तो लाइन और लंबी हो गयी थी। हमारे मतदान स्थल पर तीन बूथ बने हुये थे। तीनों शिवनगर वार्ड के थे। भीड़ को देखकर धैर्य से अपनी बारी का इंतजार करते हुये देखकर विचार आया कि आज मोबाइल के जमाने में मतदान ही ऐसा समय है जब लोग एक साथ इकट्ठे होते हैं। वैसे इकट्ठे तो शादी-विवाह और उत्सवों में भी होते हैं, लेकिन उस समय सबके हाथ में मानव एक सामाजिक प्राणी है, सिद्धान्त का सबसे बड़ा दुश्मन मोबाइल होता है। और सबको सेल्फी की पड़ी होती है। मतदान के कतार में ऐसा कुछ नहीं होता। लोग एक दूसरे के आगे पीछे खड़े होतें हैं और आपस में बातें कर रहे होते हैं। इस लिहाज से चुनाव सामाजिकता को बढ़ावा देने के क्रम में भी याद रखा जाना चाहिये।
दूसरी तरफ बीमार जिस प्रकार डाक्टर से मिलकर आधे ठीक होकर निकलते हैं उससे दो कदम आगे मतदाता वोट डालने के बाद पूरी तरह से ठीक होकर निकलते देखे गये। इस बीच बुजुर्ग के कतार न खिसकने की शिकायत और ज्यादा बढ़ गयी थी।
-“जाकर पीछे से ठेल दीजिये कतार आगे बढ़ जायेगी।”
मैने हँसते हुये कहा।
-“हमरे जगहिया पिछवा वाला आ जाई।”
वह नहीं गये। यही वक्त था जब हाथ में आई फोन लिये हुये एक व्यक्ति जो स्वयं को मीडिया पर्सन बता रहे थे मतदान स्थल पर आये। वह लोगों का वीडियो बनाने लगे। मैं उनको ध्यान से देखने लगा। आई फोन को पकड़ने वाली उंगलिया काँप रहीं थी। मोबाइल हिल रहा था। इसका मतलब यही था कि सामने वाला व्यक्ति किसी नशीली वस्तु की चपेट में है। फिलहाल मेरा नंबर आया और मैं अंदर गया। बाद में वहीं प्रक्रियाएं जो रुटीन हैं। बैलेट पेपर लेने के बाद ध्यान से देखा तो उनके रंग में ही अंतर था। निश्चित तौर पर कई लोगों ने अध्यक्ष और सभासद को वोट देने में गलतियाँ जरूर की होंगी। इनवैलिड वोट तो होते ही हैं।
खैर में वोट देकर बाहर आया। देखा कि मेरे पीछे वाले बुजुर्ग अभी कतार में ही खड़े हैं। बीमारों की संख्या बदस्तूर जारी है। सबसे बड़ी बात कि मेरी श्रीमती जी सबसे पहले वोट देकर विद्यालय जा चुकी थीं। उनके जाने के सवा घंटा बाद मैं विद्यालय पहुँचा और देखा कि वो गेट खोलने के बाद आफिस के सामने ही कुर्सी पर बाहर बैठी हैं। देखते ही जान गया कि उनसे कमरे का ताला नहीं खुला।
-“मैने सोचा था कि जाते ही भोजन मिलेगा। यहाँ तो तुम बाहर ही बैठी हो।”
मार्निंग क्लास चलने की वजह से पेट की अभिलाषा का टाइमटेबल बदल गया है। भूख लग ही चुकी थी। मैं थोड़ा निराश था।
-“आपने कमरे में वह ताला लगा दिया है जो मुझसे खुलता ही नहीं है। ”
-“मैने सोचा था कि जाकर खाना खाउंगा।”
पेट का दर्द मुँह से बाहर निकल ही गया। पता था कि कम से कम एक घंटा लग ही जायेगा।
-“मैने खाना बना दिया है। ताला कमरे का नहीं खुला। किचन तो बिना ताले का ही था।”
कितनी खुशी हुई बता नहीं सकता।
4 मई 2023
दस्तक सुरेन्द्र पटेल निदेशक माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स