टेराकोटा के ऊपर प्रस्तुत किया गया यह लेख मूल रूप में मेंरे डाक्यूमेन्ट्री फिल्म, टेराकोटा-गोरखपुर का गौरव, का
वायस ओवर है, इसीलिये कहीं कहीं लेख में
आपको दृश्यात्मक वाक्य भी मिल जायेंगे। कृपया उसको ध्यान में ना रखकर लेख का आनंद
लें। अभी मैं इस डाक्यूमेन्ट्री का संपादन कर रहा हूँ। आशा है कि अगले तीन चार
दिनों में यह तैयार हो जायेगी।
यूँ तो उत्तर प्रदेश
की राजधानी लखनऊ से ढ़ाई सौ किलोमीटर उत्तर पूर्व में बसे हुये ऐतिहासिक नगर
गोरखपुर को किसी परिचय की आवश्यकता नही। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान 1919 में घटी चौरी-चौरा की दर्दनाक घटना हो, या
फिर नाथ संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करता विश्वप्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर, धार्मिक
अध्ययन सामग्री के प्रकाशन में वैश्विक कीर्तिमान बना चुका गीताप्रेस हो अथवा
पूर्वोत्तर रेलवे का कार्यालय गोरखपुर रेलवे स्टेशन...ये सभी गोरखपुर को एक अलग
प्रकार की विशिष्टता प्रदान करते हैं लेकिन इन सबके अतिरिक्त गोरखपुर को राष्ट्रीय
और अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का कार्य किया है एक खास तरीके की कला
ने...जो यहाँ के जमीन से जुड़ी है...यहाँ की खुशबू से जुड़ी है...और यहाँ की
परंपरा से जुड़ी है।
जी हाँ हम बात कर रहे
हैं..विश्वप्रसिद्ध टेराकोटा आर्ट की...जिसने गोरखपुर को एक अलग ही मुकाम पर पहुँचाया है। लाल रंग से रंगी
प्रतीत होती विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर
लेती हैं। सिर्फ चाक और कुछ अन्य प्रकार के छोटे-छोटे यंत्रों के प्रयोग से ही
तैयार ये मूर्तियाँ ऐसा आकर्षण उत्पन्न करती हैं कि हर कोई इनकी तरफ खिंचा चला आता
है और सोचने के लिये विवश हो जाता है कि कितनी मेहनत लगती होगी इनको तैयार करने
में
गोरखपुर से महराजगंज
जाने वाली सड़क पर दस किलोमीटर चलने के बाद एक सड़क जाती है टेराकोटा के कलाकारों
के गाँव जिसका नाम है...औरंगाबाद। नाम सुनने के बाद चौंकियेगा मत...क्योंकि यह
महाराष्ट्र का औरंगाबाद नही है...यह है गोरखपुर का औरंगाबाद जहाँ पर भोलानाथ
प्रजापति जी के साथ-साथ बारह पुश्तैनी परिवार टेराकोटा की मूर्तियाँ बनाने में
संलग्न है और इस कला को आजतक जीवित रखे हुये हैं। टेराकोटा मूर्तिकला की खूबसूरती
का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर
लाल नेहरू भी इसके सम्मोहन से नहीं बच सके थे। उसके बाद श्रीमती इन्दिरा गाँधी,
राजीव गान्धी, सोनिया गान्धी, पी. वी. नरसिम्हा राव, माननीय श्री शंकर दयाल शर्मा,
माननीय के. आर. नारयणन, उत्तर प्रदेश के
पूर्व मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह, पूर्व राज्यपाल डा. मुरली मनोहर जोशी
इत्यादि राजनयिकों ने इस कला को सँवारा और सम्वर्धित किया।
श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने यह तालाब जिससे कलाकार
मूर्तियों के लिये मट्टियाँ निकालते हैं, इन कलाकारों के नाम ही कर दिया। बाद में
सरकार ने इनका कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिये इस टेराकोटा भवन का भी निर्माण
करा दिया।
टेराकोटा मूर्तिकला के
जिस रूप को हम वर्तमान में देख रहे हैं, वह सदा से ऐसी नही थी। समय के साथ-साथ इस
कला ने भी अपने आपको परिवर्तित किया है और वर्तमान में इस रूप में हमारे सामने
उपस्थित है। पं. जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि पड़ने से पूर्व टेराकोटा कला का स्वरूप
गाँव में काली माता के पूजा के लिये प्रयोग किये जाने वाले हाथी और घोड़ों को
बनाने तक ही सीमित था।
दिखने में यह
मूर्तियाँ जितनी खूबसूरत हैं उतनी ही श्रमसाध्य है इनके निर्माण की प्रक्रिया। कई
दिनों के लागातार परिश्रम के पश्चात यह इस मुकाम पर आ पाती हैं कि बाजार में इनकी
मुँहमाँगी कीमत मिल जाती है।
मूर्ति निर्माण की
प्रक्रिया में पहला काम होता है मिट्टी को भुरभुरा बनाना। इसके पश्चात पानी मिलाकर
इसे बारह घण्टे के लिये छोड़ दिया जाता है ताकि यह ठीक से गीली हो सके। उसके बाद
मिट्टी को अच्छे तरीके से मड़कर उसे दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है जहाँ इसे
पैरों से खूब अच्छी तरह से दबाया जाता है जिससे यह जमीन पर एक गोल चपटे आकार में
परिवर्तित हो जाती है। अब इसे काटा जाता है और फिरसे पैरों से दबाकर पुनः पहले
वाली प्रक्रिया दोहराई जाती है। तत्पश्चात लहछुर नामक यंत्र से मिट्टी को
काट-काटकर अलग-अलग किया जाता है, ताकि इसमें से कंकड़-पत्थर इत्यादि निकल जाये।
आगे की प्रक्रिया में इसे एक लकड़ी के तख्ते पर हाथों से गूँथा जाता है। यह
प्रक्रिया भी मिट्टी से कंकड़-पत्थर निकालने के लिये ही की जाती है। अब मिट्टी
मूर्ति निर्माण के अगली प्रक्रिया के लिये तैयार है।
किसी भी मूर्ति के
निर्माण के लिये सबसे पहले उसका आधार तैयार करते हैं। यदि एक हाथी के मूर्ति का
निर्माण किया जाना है तो सबसे पहले उसके पेट, पैर और सूँड़ का निर्माण किया
जायेगा। आधार तैयार होने के पश्चात इसे एक दिन सूखने के लिये छोड़ा जाता है ताकि
यह अगले प्रक्रिया, यानि कि जुड़ाई के लिये तैयार हो सके।
सूखने के पश्चात इसे
जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की जाती है और सर्वप्रथम हाथी के पैर जोड़े जाते हैं।
जुड़ाई एवं नक्काशी का कार्य सहूलियत के हिसाब से साथ-साथ ही संपादित किया जाता
है। ध्यातव्य है कि इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी प्रकार के साँचे का प्रयोग नहीं
किया जाता है। सब कार्य संपादित होने के बाद इसे सूखने के लिये छोड़ दिया जाता है।
सुखाने का कार्य छायादार स्थान पर किया जाता है। पानी सूखने के पश्चात इसे कुछ देर
के लिये धूप में सुखाते हैं। सूखने के बाद रंगाई का कार्य प्रारंभ किया जाता है।
रंगाई का कार्य प्रायः महिलाएं ही करती हैं।
ध्यातव्य है कि
मूर्तियों को रंगने के लिये किसी अन्य रंग का नही बल्कि मिट्टी से ही निर्मित घोल
का प्रयोग किया जाता है जो पकने के बाद लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। मिट्टी
का लाल रंग में परिवर्तित होना इसमें उपस्थित आयरन आक्साइड की वजह से होता है।
रंगाई के पश्चात यह पकाने के लिये तैयार हो जाती है।
पकाने के क्रम में
सबसे पहले खाली भट्टी के तह में राख की तह बिछाई जाती है ताकि गर्मी जमीन में ना
जा सके। उसके बाद उसमें गोबर के कण्डे मध्य भाग से बाहर की ओर बिछाये जाते हैं। अब
मूर्तियाँ सजाने का कार्य होता है। बड़ी मूर्तियाँ नीचे व छोटी मूर्तियाँ क्रमशः
ऊपर रखी जाती हैं। इसके बाद इनपर पुनः कण्डे बिछाये जाते हैं एवं उन्हे पुआल से ढ़का
जाता है। पुआल को ढ़कने के पश्चात उसे पानी से भिगोकर मिट्टी का लेप किया जाता है।
अब भट्टी आग डालने के
लिये तैयार हो गई है। भट्टी के मध्य भाग में छिद्र करके उसमें आग डाली जाती है और
फिर उस छिद्र को बंद कर दिया जाता है।भट्टी में मूर्तियाँ बारह से चौदह घण्टे में
पक जाती हैं। भट्टी ठंडी होने के बाद उसमें से मूर्तियाँ निकाल ली जाती हैं और
उसके बाद ये वितरण के लिये तैयार हो जाती हैं।
दिल से निकलगी,
ना मरकर भी,
वतन की उल्फत
मेरी मिट्टी से भी
खुशबू-ए-वतन आयेगी....।