Tuesday, August 28, 2012

आजम खाँ और नेताओं की भाषा


          हमारे काबिल नेताओं की भाषा और उनका टेंपरामेंट कितना कमाल का है इसकी बानगी मिली लखनऊ में विधानभवन स्थित तिलक हाल में जहाँ पर नगर विकास मंत्री आजम खान ने दो दिवसीय समीक्षा बैठकें रखी थीं। बैठक के तय समय पर कई सारे अफसर नदारद थे जिनके बारे में एक वरिष्ठ पी.सी.एस स्वरूप मिश्र द्वारा पूछने पर माननीय मंत्री जी इतने आगबबूला हो गये कि उन्होने पहले तो पी.सी.एस. आफिसर को चुप बैठिये कहा। बाद में यह, बकवास करते हो...तक पहुँचा और अंत हुआ...बदतमीज कहीं का...के साथ।
            सवाल यह उठता है मंत्री महोदय लोग अपने आपको समझते क्या हैं, क्या वे आसमान से उतरे फरिश्ते हैं जिनसे कोई सवाल नहीं पूछा जा सकता। अगर एक वरिष्ठ पी.सी.एस. के साथ इस तरह का बर्ताव किया जाता है तो एक आम आदमी की इन महानुभावों के सामने औकात ही क्या। जनता को तो ये कीड़े-मकोड़े से ज्यादा की तवज्जो नहीं देते होंगे। 



दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Tuesday, August 14, 2012

ओलंपिक और भारत में दिये जाने वाले पुरस्कार


आग लगने पर कुआँ खोदने वाली कहावत हमारे देश में बहुत प्रचलित है और 2012 के ओलंपकि खेलों में सटीक बैठती है। जब हमारा खिलाड़ी पदक जीतने से वंचित हो जाता है तो हम हो हल्ला मचाने लगते हैं और एक सुर में चीन से अपनी तुलना करने लगते हैं। लेकिन दूसरी ओर जब कोई खिलाड़ी पदक, जाहे वो कांस्य हो अथवा रजत हो, जीतता है तो देश में उसे पुरस्कार देने की होड़ मच जाती है। खिलाड़ी को एक करोड़, दो करोड़ देना तो आम बात हो जाती है।
सवाल यह है कि इस तरह रुपयों की बारिश करके असल में हम क्या साबित करना चाहते हैं। यह कि, पदक जीतो और इनाम पाओ अथवा यह कि, एक ओलंपिक पदक जीवन भर की कमाई से बेहतर है। यह सही है कि इस तरह के पुरस्कार खिलाड़ियों में पदक जीतने के जज्बें को बढ़ाने  के उद्देश्य से ही दिये जाते हैं लेकिन कहीं ना कहीं इसमें अरबपति कंपनियों का अपना स्वार्थ भी निहित है। बैठे-बिठाये ही उन्हे मीडिया की बेहिसाब कवरेज मिल जाती है। चार साल में एक बार कुछ खिलाड़ियों को रुपये देकर देश में खेल का कायाकल्प नहीं  हो सकता है। अगर ये कंपनिया वाकई देश में खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाना चाहती हैं तो उन्हे वही रुपये जो वे एक खिलाड़ी को बतौर पुरस्कार देते हैं, को किसी स्पोर्ट स्टेडियम, प्रशिक्षण केन्द्र इत्यादि  खोलने और सुचारु रूप से चलाने में खर्च करना चाहिये। अगर हर शहर, गाँव  में कुछ ऐसे स्पोर्ट कांपलेक्स खुल जायें तो निश्चित ही देश में खेल का कायाकल्प हो सकता है और उसके लिये न तो चीन जैसी तानाशाही प्रवृत्ति  की आवश्यकता है और ना ही पैसों का लालच। भारत के खिलाड़ियों में देश के प्रति जज्बा ही काफी है। 


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Monday, August 13, 2012

सुशील कुमार


वर्तमान भारतीय कुश्ती के सरताज सुशील कुमार का जन्म 26 मई 1983 को बपरोला, दिल्ली में हुआ। सुशील के पिता दीवान सिंह डी टी सी में बस ड्राइवर थे और माता कमला देवी एक सामान्य गृहिणी थीं। सुशील को कुश्ती की प्रेरणा अपने चचेरे भाई संदीप और चाचा जी से मिली जो खुद एक पहलवान थे। संदीप ने सुशील के लिये अपने कुश्ती करियर को तिलांजलि दे दी क्योंकि एक मध्यमवर्गीय परिवार उस समय एक ही बच्चे को कुश्ती के लिये आवश्यक संसाधन मुहैया करा सकता था।

कुमार ने अपने कुश्ती का प्रशिक्षण छत्रसाल अखाड़ा से चौदह साल की उम्र में पहलवान यशवीर और रामफल के निर्देशन में शुरू किया। बाद में उन्होने अर्जुन पुरस्कार प्राप्त पहलवान सतपाल और रेलवे के कोच ज्ञान सिंह से भी प्रशिक्षण लिया। शुरुआती दौर में सुशील को काफी परेशानियों से दो चार होना पड़ा, जिसमें बिछाने के लिये बिस्तर और सोने के लिये अन्य प्रशिक्षुओं के साथ कमरा बाँटना भी था।


सुशील का करियर-
पहली सफलता सुशील को तब मिली जब उन्होने वर्ल्ड कैडेट गेम 1998 में स्वर्ण पदक जीता। इसके बाद उन्होने एशियाई जूनियर कुश्ती प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक सन् में जीता।  जूनियर प्रतियोगिताओं में अपनी विजय पताका फहराने के बाद सुशील ने एशियाई कुश्ती प्रतियोगिता में कांस्य पदक और राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता। 2003 में विश्व कुश्ती चैंपियन के मुकाबले में सुशील कुमार चौथे स्थान पर रहे थे। 2004 के एंथेंस ओलंपिक में वह चौदहवें स्थान पर रहे थे।  विजय के उनके सुनहरे सफर की शुरुआत 2005 के राष्ट्रमंडल खेलों से हुई जब उन्होने स्वर्ण पदक जीता। 2007 के राष्ट्रमंडल खेलों में भी उन्होने स्वर्ण पदक जीता।  2007 में हुए विश्व चैंपियनशिप में वो सातवें स्थान पर रहे और उसके बाद 2008 के बीजिंग ओलंपिक में उन्होने कांस्य पदक जीता।  ओलंपिक में अपने पदकों की संख्या बढ़ाते हुये 2012 के लंदन ओलंपिक में उन्होने रजत पदक जीता। हम आशा करते हैं कि सुशील कुमार 2016 में होने वाले ओलंपिक जिनका आयोजन रियो डि जेनेरियो में होने वाला है, वह स्वर्ण पदक जीतकर देश का नाम अवश्य ही रोशन करेंगे।
सुशील कुमार के लिये हर भारतवासी की तरफ से दिल से शुभकामनायें।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Thursday, August 9, 2012

सनी लियोन और हमारा समाज


यह सही है कि समाज में हमेशा से ऐसी चीजें मौजूद रही हैं जिनके बारे में हमने दोतरफा राय बना रखी है, एक पर्दे के पीछे और दूसरी पर्दे के सामने । कुछ दशकों के पूर्व तक यह प्रश्न हमारे समाज के सामने इतने विकराल रूप में नही आया था कि उत्तर देते समय हमारी स्थिति साँप छंछूदर जैसी हो जाये। जिस पोर्नोग्राफी के बारे में बात करते समय, कुछ वर्षों पहले हमारी जबान लड़खड़ा जाती थी, चेहरे पर एक स्वाभाविक सी झिझक आ जाती थी, ऐसा क्या हो गया कि उस पर बात करना तो बीती बात है, उसमें पैसों के लिये काम करने वाली एक औरत को देखने के लिये सिनेमाघर के टिकट खिड़की पर मार-मारी की स्थिति पैदा हो जा रही है।

पहली बात तो हमें यह समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान समय में समाज के विकास का पहिया पैसों की ताकत की वजह से ही आगे बढ़ रहा है। पूरा विश्व धन के पीछे अंधा होकर इस कदर भाग रहा है कि उसे पैरों के नीचे आने वाले कंकड़ों पत्थरों की भी परवाह नही। शायद वह यह भूल गया है कि इन्ही की वजह से पैरों में लगने वाले छोटे-छोटे घाव कालांतर में नासूर बनकर उसे ही मार डालेंगे। पैसे कमाने की बेहिसाब चाहत की वजह से ही फिल्मकारों का एक समूह लागातार ऐसे विषयों को चुनता रहा है जिसके प्रति समाज में हमेशा से ही एक अँधेरा कोना व्याप्त रहा है। अँधेरा, उजाले से ज्यादा आकर्षित करता है, क्योंकि अँधेरे में वे सारे कार्य किये जा सकते हैं जिसे करने में उजाला बंदिशे उत्पन्न करता है।

सनी लियोन पोर्न फिल्मों में काम करने वाली एक औरत है। (मैं यहा मीडिया के तथाकथित पोर्नस्टार संज्ञा का प्रयोग नही कर रहा हूँ, क्योंकि अगर सनी लियोन स्टार है, तो भगवान ना करे कि उस जैसी स्टार बनने की प्रेरणा हमारे समाज में हिलोरे मारने लगे। उसे स्टार का दर्जा देकर मीडिया अपनी गर्दन शुतुरमुर्ग की भाँति रेत में डाल रहा है) उसकी बदनामी को कैश करने की साजिश बालीवुड के कुछ लोगों ने की। दुख की बात तो यह है कि वे अपने मकसद में कामयाब भी हुये और आगे भी उनका मकसद इस तरह के फायदे को भुनाना है। बिग बास के सीजन 5 में बतौर कलाकार सनी लियोन का प्रवेश भारतीय चलचित्र की दुनिया में हुआ और अचानक भारत जैसे देश में सनी लियोन के ऊपर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। प्रिंट और मोशन मीडिया में सनी लियोन के नाम का डंका बज गया। कुछ लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुये रुढ़िवादियों के समूह को पानी पी-पीकर कोसना शुरू कर दिया। और आखिरकार हुआ वही जो नहीं होना चाहिये था, एक निर्माता-निर्देशक पहुँच गये बिग बास के घर में सनी लियोन को अपनी कहानी सुनाने। अँधे को क्या चाहिये दो आँखे...लियोन ने हाँ कर दी। वहीं से शुरु हो गया पैसे कमाने का खेल, जिसे खेलने वाले अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, क्योंकि जिस्म-2 ने रिलीज के पहले ही वीकेंड में 21 करोड़ कमा लिये। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाके में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि पैसा तो एक प्राश्चीट्यूट भी कमा लेती है। हमारे समाज ने कभी भी प्राश्चीट्यूट को नहीं स्वीकारा लेकिन इन प्राश्चीट्यूट्स से भी गंदे और बुरे वे लोग हैं जो बीच में रहकर ग्राहकों से इनका संपर्क कराते हैं जिसे आम भाषा में दलाल कहा जाता है। पे प्राश्चीट्यूट की उस कमाई में अवैध हिस्सा लेते हैं जिसे कमाने के लिये कोई भी प्राश्चीट्यूट सौ बार मर चुकी होती है। लेकिन सनी लियोन और हमारे फिल्म निर्देशक का मामला बिलकुल उलट है। लियोन यह कहती है कि उसने पोर्नोग्राफी का क्षेत्र अपने मर्जी से चुना और इसमें वह कोई  बुराई नही मानती। इस संदर्भ में हमारे निर्देशक की भूमिका और भी गंदी हो जाती है, उसने एक बदनाम औरत को लेकर, एक बदनाम विषय पर, एक बदनाम फिल्म बनाई। कहते हैं कि, नाम ना होगा तो क्या बदनाम भी ना होंगे। बदनामी भी एक तरह की प्रसिद्धि ही है, जिसे पाने का रास्ता बिल्कुल भी कठिन नही है।

शायद कम ही लोग जानते होगे कि जिस्म 2 की निर्माता, जो खुद एक औऱत हैं, उनके बारे में आज के पहले लघभग बारह  या चौदह साल पूर्व एक स्कैंडल हो चुका है। उनकी एक न्यूज तस्वीर मैगजीन में छप गई थी जिसे लेकर बहुत बड़ा बवाल मचा था। मामला पुलिस तक पहुँच गया था। उस मामले में आज की इस बोल्ड निर्माता के रोते-रोते बुरा हाल था। बाद में पता चला कि किसी और औरत के शरीर के उपर इनका फोटो चिपका दिया गया था।  जिस घटना ने उनका जीना हराम कर दिया था आज वह उसी प्रकार के दूसरी बदनाम औरत का सहारा लेकर पैसा कमा रही हैं।
असल में इसमें सनी लियोन का कोई दोष नही है। वह तो एक कठुतली है जिसे पैसों की उंगलियों की बदौलत कहीं भी, किसी भी प्रकार से नचाया जा सकता है। दोषी वे लोग हैं जिन्होने लियोन के जरिये पैसा कमाने का गंदा खेल खेला है।

अब एक सवाल उठता है कि महाराष्ट्र में राज ठाकरे, उत्तर भारत में संघ जैसे कट्टरवादी संगठन, तथाकथित मौलान लोग जो विरोध करने के लिये विशेष रूप से पहचाने जाते हैं उनकी बोलती इस मसले पर बंद क्यों है। क्या राज ठाकरे की राजनीति मात्र उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों को खदेड़ने पर ही टिकी है, क्या संघ का  गुस्सा सिर्फ वैलेंटाइन डे पर ही फूटता है, या फिर मौलाना लोग तभी कुछ बोलेंगे जब बात उनके मजहब से संबंधित होगी। किसी को नजर क्यों नही आ रहा कि कुछ लोग हमारी संस्कृति और समाज का बलात्कार करने पर तुले हुये हैं। क्या आतंकवाद की परिभाषा खून के छींटों से ही लिखी जाती है। करोड़ों युवा लड़के और लड़कियों के दिमाग में जो बम प्रतिदिन फूट रहें हैं उनका कुछ नही। 

अगर अनारा गुप्ता, वाटर और प्राश्चीट्यूट्स का विरोध हो सकता है तो, हम किसलिये जिस्म 2 देखने के लिये थियेटरों में जा सकते हैं। हमारे समाज का यही दोतरफा चेहरा है जिसने हमें हमेशा गर्त में ढ़केला है। 

दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

टेराकोटा- गोरखपुर का गौरव


टेराकोटा के ऊपर प्रस्तुत किया गया यह लेख मूल रूप में मेंरे डाक्यूमेन्ट्री फिल्म, टेराकोटा-गोरखपुर का गौरव, का वायस ओवर है, इसीलिये कहीं कहीं  लेख में आपको दृश्यात्मक वाक्य भी मिल जायेंगे। कृपया उसको ध्यान में ना रखकर लेख का आनंद लें। अभी मैं इस डाक्यूमेन्ट्री का संपादन कर रहा हूँ। आशा है कि अगले तीन चार दिनों में यह तैयार हो जायेगी।

यूँ तो उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से ढ़ाई सौ किलोमीटर उत्तर पूर्व में बसे हुये ऐतिहासिक नगर गोरखपुर को किसी परिचय की आवश्यकता नही। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान  1919 में घटी चौरी-चौरा की दर्दनाक घटना हो, या फिर नाथ संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करता विश्वप्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर, धार्मिक अध्ययन सामग्री के प्रकाशन में वैश्विक कीर्तिमान बना चुका गीताप्रेस हो अथवा पूर्वोत्तर रेलवे का कार्यालय गोरखपुर रेलवे स्टेशन...ये सभी गोरखपुर को एक अलग प्रकार की विशिष्टता प्रदान करते हैं लेकिन इन सबके अतिरिक्त गोरखपुर को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का कार्य किया है एक खास तरीके की कला ने...जो यहाँ के जमीन से जुड़ी है...यहाँ की खुशबू से जुड़ी है...और यहाँ की परंपरा से जुड़ी है।

जी हाँ हम बात कर रहे हैं..विश्वप्रसिद्ध टेराकोटा आर्ट की...जिसने गोरखपुर को एक अलग  ही मुकाम पर पहुँचाया है। लाल रंग से रंगी प्रतीत होती विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। सिर्फ चाक और कुछ अन्य प्रकार के छोटे-छोटे यंत्रों के प्रयोग से ही तैयार ये मूर्तियाँ ऐसा आकर्षण उत्पन्न करती हैं कि हर कोई इनकी तरफ खिंचा चला आता है और सोचने के लिये विवश हो जाता है कि कितनी मेहनत लगती होगी इनको तैयार करने में

गोरखपुर से महराजगंज जाने वाली सड़क पर दस किलोमीटर चलने के बाद एक सड़क जाती है टेराकोटा के कलाकारों के गाँव जिसका नाम है...औरंगाबाद। नाम सुनने के बाद चौंकियेगा मत...क्योंकि यह महाराष्ट्र का औरंगाबाद नही है...यह है गोरखपुर का औरंगाबाद जहाँ पर भोलानाथ प्रजापति जी के साथ-साथ बारह पुश्तैनी परिवार टेराकोटा की मूर्तियाँ बनाने में संलग्न है और इस कला को आजतक जीवित रखे हुये हैं। टेराकोटा मूर्तिकला की खूबसूरती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी इसके सम्मोहन से नहीं बच सके थे। उसके बाद श्रीमती इन्दिरा गाँधी, राजीव गान्धी, सोनिया गान्धी, पी. वी. नरसिम्हा राव, माननीय श्री शंकर दयाल शर्मा, माननीय के. आर. नारयणन, उत्तर प्रदेश के  पूर्व मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह, पूर्व राज्यपाल डा. मुरली मनोहर जोशी इत्यादि राजनयिकों ने इस कला को सँवारा और सम्वर्धित किया।

 श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने यह तालाब जिससे कलाकार मूर्तियों के लिये मट्टियाँ निकालते हैं, इन कलाकारों के नाम ही कर दिया। बाद में सरकार ने इनका कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिये इस टेराकोटा भवन का भी निर्माण करा दिया। 

टेराकोटा मूर्तिकला के जिस रूप को हम वर्तमान में देख रहे हैं, वह सदा से ऐसी नही थी। समय के साथ-साथ इस कला ने भी अपने आपको परिवर्तित किया है और वर्तमान में इस रूप में हमारे सामने उपस्थित है। पं. जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि पड़ने से पूर्व टेराकोटा कला का स्वरूप गाँव में काली माता के पूजा के लिये प्रयोग किये जाने वाले हाथी और घोड़ों को बनाने तक ही सीमित था।

दिखने में यह मूर्तियाँ जितनी खूबसूरत हैं उतनी ही श्रमसाध्य है इनके निर्माण की प्रक्रिया। कई दिनों के लागातार परिश्रम के पश्चात यह इस मुकाम पर आ पाती हैं कि बाजार में इनकी मुँहमाँगी कीमत मिल जाती है।

मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया में पहला काम होता है मिट्टी को भुरभुरा बनाना। इसके पश्चात पानी मिलाकर इसे बारह घण्टे के लिये छोड़ दिया जाता है ताकि यह ठीक से गीली हो सके। उसके बाद मिट्टी को अच्छे तरीके से मड़कर उसे दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है जहाँ इसे पैरों से खूब अच्छी तरह से दबाया जाता है जिससे यह जमीन पर एक गोल चपटे आकार में परिवर्तित हो जाती है। अब इसे काटा जाता है और फिरसे पैरों से दबाकर पुनः पहले वाली प्रक्रिया दोहराई जाती है। तत्पश्चात लहछुर नामक यंत्र से मिट्टी को काट-काटकर अलग-अलग किया जाता है, ताकि इसमें से कंकड़-पत्थर इत्यादि निकल जाये। आगे की प्रक्रिया में इसे एक लकड़ी के तख्ते पर हाथों से गूँथा जाता है। यह प्रक्रिया भी मिट्टी से कंकड़-पत्थर निकालने के लिये ही की जाती है। अब मिट्टी मूर्ति निर्माण के अगली प्रक्रिया के लिये तैयार है।

किसी भी मूर्ति के निर्माण के लिये सबसे पहले उसका आधार तैयार करते हैं। यदि एक हाथी के मूर्ति का निर्माण किया जाना है तो सबसे पहले उसके पेट, पैर और सूँड़ का निर्माण किया जायेगा। आधार तैयार होने के पश्चात इसे एक दिन सूखने के लिये छोड़ा जाता है ताकि यह अगले प्रक्रिया, यानि कि जुड़ाई के लिये तैयार हो सके।
सूखने के पश्चात इसे जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की जाती है और सर्वप्रथम हाथी के पैर जोड़े जाते हैं। जुड़ाई एवं नक्काशी का कार्य सहूलियत के हिसाब से साथ-साथ ही संपादित किया जाता है। ध्यातव्य है कि इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी प्रकार के साँचे का प्रयोग नहीं किया जाता है। सब कार्य संपादित होने के बाद इसे सूखने के लिये छोड़ दिया जाता है। सुखाने का कार्य छायादार स्थान पर किया जाता है। पानी सूखने के पश्चात इसे कुछ देर के लिये धूप में सुखाते हैं। सूखने के बाद रंगाई का कार्य प्रारंभ किया जाता है। रंगाई का कार्य प्रायः महिलाएं ही करती हैं।

ध्यातव्य है कि मूर्तियों को रंगने के लिये किसी अन्य रंग का नही बल्कि मिट्टी से ही निर्मित घोल का प्रयोग किया जाता है जो पकने के बाद लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। मिट्टी का लाल रंग में परिवर्तित होना इसमें उपस्थित आयरन आक्साइड की वजह से होता है। रंगाई के पश्चात यह पकाने के लिये तैयार हो जाती है।
पकाने के क्रम में सबसे पहले खाली भट्टी के तह में राख की तह बिछाई जाती है ताकि गर्मी जमीन में ना जा सके। उसके बाद उसमें गोबर के कण्डे मध्य भाग से बाहर की ओर बिछाये जाते हैं। अब मूर्तियाँ सजाने का कार्य होता है। बड़ी मूर्तियाँ नीचे व छोटी मूर्तियाँ क्रमशः ऊपर रखी जाती हैं। इसके बाद इनपर पुनः कण्डे बिछाये जाते हैं एवं उन्हे पुआल से ढ़का जाता है। पुआल को ढ़कने के पश्चात उसे पानी से भिगोकर मिट्टी का लेप किया जाता है।

अब भट्टी आग डालने के लिये तैयार हो गई है। भट्टी के मध्य भाग में छिद्र करके उसमें आग डाली जाती है और फिर उस छिद्र को बंद कर दिया जाता है।भट्टी में मूर्तियाँ बारह से चौदह घण्टे में पक जाती हैं। भट्टी ठंडी होने के बाद उसमें से मूर्तियाँ निकाल ली जाती हैं और उसके बाद ये वितरण के लिये तैयार हो जाती हैं।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Friday, August 3, 2012

अन्ना हजारे, ये तो होना ही था


दिल की दबी ख्वाहिश आखिर होठों पे आ गई
उनके सुर्ख चेहरे पे कैसी लाली छा गई।
जो बात ना निकली थी अभी तक जुबान से,
निकली तो इस कदर कि हलचल मचा गई।।

किशन  बाबूराव हजारे....बहुत कम लोग उनके पूरे नाम के बारे में जानते होंगे, लेकिन अन्ना हजारे का पूरा नाम यही है। सामाजिक जीवन में 1978  से ही सक्रिय अन्ना हजारे ने सबसे पहले रालेगन नाम के अपने गाँव को पूरी तरह बदल दिया। उन्होने वहाँ बिजली, पानी और आवागमन के साधनों का विकास करवा के उसे सौर उर्जा के केन्द्र में परिवर्तित कर दिया। 1991 में महाराष्ट्र सरकार का विरोध करते हुये कुछ मंत्रियों के खिलाफ धरने पर बैठे अन्ना हजारे को मानहानि के मुकदमे का सामना भी करना पड़ा जिसके एवज में उन्हे तीन महीने की जेल भी हुई, लेकिन मुरली मनोहर जोशी की वजह से वह जेल से एक दिन बाद ही रिहा हो गये।
http://1.bp.blogspot.com/-SZHLECpYK64/TZ0qJzKD5sI/AAAAAAAAAEQ/rzy2YcwVptY/s1600/05.04.11anna_hajare1%255B1%255D.jpgअन्ना को सबसे बड़ी सफलता मिली 1997 में जब उन्होने सुचना के अधिकार के लिये मुंबई के आजाद मैदान में अपना आंदोलन शुरू किया। 9 अगस्त 2003 को अन्ना हजारे, आजाद मैदान में ही आमरण अनशन पर बैठ गये और 12 दिन तक चले इस अनशन के बाद महाराष्ट्र सरकार को सूचना अधिकार कानून को पास करना पड़ा। शीघ्र ही इस आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी रूप ले लिया और 12 अक्टुबर 2005 को भारतीय संसद ने भी सूचना के अधिकार का कानून बनाया।

जिस घटना के बाद अन्ना हजारे को पूरे देश ने जाना वह था लोकपाल विधेयक, जिसके लिये  अन्ना हजारे  5 अप्रैल 2011 को दिल्ली के जंतर मंतर पर धरने पर बैठ गये।  इस अनशन को शुरुआती दौर में सरकार ने हल्के तौर पे लिया और लेकिन बाद में जनता के द्वारा मिले अपार समर्थन से सरकार सकते में आ गई और 16 अगस्त तक संसद में लोकपाल बिल प्रस्तुत करने का आश्वासन देकर उसने एक समिति का भी गठन किया। अगस्त के मानसून सत्र में जो लोकपाल बिल प्रस्तुत किया गया वह सैद्धांतिक रूप से काफी कमजोर था जिसके विरोध स्वरूप अन्ना हजारे पुनः अनशन पर बैठने की तैयारी करने लगे लेकिन पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार करके मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया। दिल्ली से बाहर जाने अथव तीन दिनों के अनशन पर राजी न होने पर अन्ना को सात दिनों की न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल भेज दिया गया। पूरे देश में विरोधप्रदर्शन हुये और आखिरकार सरकार को उन्हे रिहा करना ही पड़ा।

वर्तमान में अन्ना हजारे फिर से सुर्खियों में हैं, वजह है उनकी टीम द्वारा राजनीति में प्रवेश के ऐलान। हर किसी के मन में ये सवाल हिलोरें मार रहा है कि 32 सालों के बाद अन्ना हजारे को राजनीति में प्रवेश करने की ऐसी क्या मजबूर आ गई। उनके समर्थक और उनके आलोचक दोनों ही सकते में आ गये हैं। इस घटना के बाद कहीं ना कहीं उनके आलोचकों को उनकी खिंचाई करने का एक मौका जरूर मिल गया है जैसा कि कपिल सिब्बल ने कहा कि- अन्ना और उनकी टीम शुरु से ही राजनीतिक ताकत प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील थी।  यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि कांग्रेस ने ही राजनीतिक ताकत अपने पास रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया है। खैर जो भी हो, इस पर गंभीर विमर्श करने की आवश्यकता है कि अन्ना को राजनीति में प्रवेश करने का क्या जरूरत थी। तीन दशकों से भी ज्यादा समय के अपने सामाजिक जीवन के दौरान अन्ना ने विरोध करने का गाँधीवादी तरीका ही अपनाया और उसमें सफल भी रहे। भारत में महात्मा गाँधी के बाद अगर किसी ने अनशन को विरोध का हथियार बनाया तो वे अन्ना हजारे थे। जब वे अपने तरीके से सरकार पर दबाव डाल सकते थे, तो उन्होने विरोध का राजनीतिक रास्ता क्यों अपनाया।

इसकी कई वजहें हो सकती हैं जिसमें प्रमुख है कि, कहीं ना कहीं अन्ना और उनकी टीम को यह लगने लगा है कि  सिस्टम में कोई भी बदलाव सिस्टम से बाहर रहकर नही हो सकता। अनशन और विरोध प्रदर्शन से छोटी-छोटी माँगे ही मनवाई जा सकती हैं लेकिन ऐसा कोई कार्य नही किया जा सकता जो सरकार में आमूलचूल परिवर्तन कर दे। कोई भी ऐसा बदलाव जो सरकार के लिये खतरे की घंटी बन सकता है, वह बदलाव क्यों किया जायेगा। यह सही है कि बिना सिस्टम में बदलाव किये, हमारे देश में किसी भी बदलाव की अपेक्षा करना बेकार है। अन्ना और उनकी टीम यह सोचती है कि सरकार का हिस्सा बनकर वे कुछ ऐसा कर सकते हैं जो जनता की भलाई कर सके। लेकिन इसके साथ ही साथ यह भी सत्य है कि जब उनकी टीम काजल की कोठरी में प्रवेश करेगी तो उसके दामन में भी उसके दाग लगेंगे जरूर, भले ेही वह कितनी भी सावधानी से उसमें प्रवेश क्यों ना करे। राजनीति में प्रवेश करते ही वे उन दागी मंत्रियों के समकक्ष हो जायेंगे जिनपर पहले से ही अनगिनत दाग हैं।

दूसरी प्रमुख वजह है, अन्ना की टीम के अन्य सदस्य। शायद उनमें अन्ना जैसी सहनशक्ति नही है जिसके फलस्वरूप बदलाव के लिये वे लंबे समय तक इंतजार कर सकें। वे अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों का फल तुरंत मिलता देखना चाहते हैं जिसका रास्ता उन्हे राजनीति के चौराहे पर ही दिखाई दे रहा है। लेकिन उन्हे यह समझना पड़ेगा कि यह तात्कालिक लाभ वाली वस्तु नही है जिसकी सफलता या असफलता उसके प्राप्त होने में लगे समय पर आधारित है। लंबे सामाजिक बदलाव के लिये इंतजार करना ही पड़ेगा।

कुल मिलाजुलाकर यह आशंका बहुत पहले से जताई जा रही थी कि अन्ना और उनकी टीम राजनीति में प्रवेश  करने का रास्ता तलाश कर रही है। रास्ते पर उन्होने कदम बढ़ा दिये हैं। देखना दिलचस्प होगा कि बढ़े कदम वापस होते हैं कि नही, अगर वापस नही होते, तो कहीं ना कहीं देश को बड़ी क्षति होने वाली है क्योंकि देश शांतिपूर्वक विरोध करने वाला एक जिम्मेदार चेहरा खो देगा।



दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Wednesday, August 1, 2012

एन डी तिवारी और एक बाप का पाप

जो तस्वीर दिखाई देती थी धुँधली, अब साफ है,
बड़े तिवारी जी रोहित शेखर के जैविक बाप हैं,
अभी ना जाने कितने रोहित कितने और तिवारी आयेंगे,
जो किसी वजह से अबतक पड़े हुये चुपचाप हैं।


भारतीय राजनीति के गलियारों में ना जाने कितने ऐसे बाप होंगे जिनके अनगिनत बेटे सड़कों पर धूल फाँक रहे होंगे। ये तो रोहित की हिम्मत और दिलेरी है जिसने 38 साल के बाद एन  डी तिवारी को यह स्वीकार करने के लिये मजबूर कर दिया कि वे उसके पिता हैं। पूरा घटनाक्रम एक नाटकीय स्वरुप लिये था जिसमें एन डी तिवारी ने लागातार कोर्ट के आदेश की अवमानना की, लेकिन कोर्ट ने बजाय किसी सख्त कार्यवाही के, तिवारी के प्रति हमेशा नरमी का व्यवहार किया। हाँलाकि यह सच है कि कोर्ट की दृढ़ता और रोहित के निश्चय के बाद ही यह फैसला सबके सामने आ सका है, वरना इस फैसले को गोपनीय रखने के लिये भी तिवारी की तरफ से कई नाकाम कोशिशें की गई।

यह घटना हमारे समाज के  दोहरे चरित्र का विशेष उल्लेखन है जिसमे मुखौटा लगाये लोगों की गिनती नही हो सकती। दिन के उजाले में सबकुछ साफ दिखता है लेकिन रात होते ही ना जाने कितनी जिन्दगिया  इन सफेदपोशों के फटे हुये कुर्तों में लाचारी में लग जाने वाली पैबंद बन जाती हैं जिनसे छुटकारा पाने का रास्ता बड़ा ही आसान होता है। पैबंद हटाना है तो, कमीज ही बदल दो।

किस तरह का समाज है जिसमें एक बाप अपने बेटे की छाया से दूर भागते हुये उसे अपना नाम देने से भी कतराता है। निश्चय ही हमारे समाज के विकास की गति उल्टी हो चुकी है जिसमें आगे बढने का मतलब है अपने आपको नीचे गिराना। जो जितना ही ऊपर बैठा दिखाई देता है , हकीकत में उसके पाँव  भ्रष्टाचार, अपराध, चोरी और बेइमानी में उतने ही ज्यादा धँसे हुये हैं। और जो सबसे बुरी बात है, उससे जान कर भी हम अंजान बनते जा रहे हैं। हम अपने समाज को क्या संदेश दे रहे हैं, ऐसे लोगों को सम्मान देकर उन्हे अपने शासन की बागडोर देकर। यकीनन हम यह मान चुके हैं कि ईमानदारी और सच्चाई जैसी सोच कूड़े के डिब्बे में फेंकने लायक हो गई है।




एन डी तिवारी और रोहित शेखर
इस मामले की शुरुआत तब हुई जब साल 2008 में रोहित शेखर नाम के शख्स ने दिल्ली हाईकोर्ट में अर्जी डाल कर दावा किया कि वह एनडी तिवारी के बेटे हैं। रोहित ने दावा किया कि एनडी तिवारी उसके जैविक पिता है। रोहित ने यह भी आरोप लगाया कि तिवारी ने इस मामले को उजागर न करने के लिए उन पर दबाव भी डाला है।

रोहित के इस आरोप के बाद कोर्ट में मामले पर जिसके बाद से इस मामले की कई बार सुनवाई हो चुकी हैं।

अदालत ने 2009 में खुद को तिवारी का जैविक बेटा कहने वाले रोहित शेखर और उसकी मां उज्ज्वला शर्मा से भी परीक्षण के तहत क्रमश: रक्त का नमूना देने के लिए अदालत की डिस्पेंसरी में पेश होने को कहा।

रोहित के दावे को खारिज करते हुए तिवारी ने एकल पीठ के आदेश को उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष चुनौती दी थी। खंडपीठ ने भी उनकी अपील को खारिज कर दिया। इस पर कांग्रेस नेता ने 28 फरवरी 2011 को शीर्ष अदालत में अपील दायर की।

इस बीच दिल्ली उच्च न्यायालय ने तिवारी से यह भी कहा था कि वह एक हफ्ते के भीतर जुर्माने के रूप में रोहित को 75 हजार रुपए प्रदान करें। उन पर यह जुर्माना अगस्त 2010 में इसलिए लगाया गया था क्योंकि उन्होंने रोहित के पितृत्व संबंधी वाद से एक पैरा हटाए जाने की मांग की थी।

दिल्ली न्यायालय ने 2011 अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया है कि कांग्रेस नेता और मां-बेटे दोनों को हैदराबाद स्थित ‘सेंटर फॉर डीएएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोसिटक्स’ में डीएनए परीक्षणों पर होने वाला खर्च वहन करना होगा।

रोहित द्वारा दायर पितृत्व विवाद में दिल्ली उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने पिछले साल 23 दिसंबर को तिवारी से डीएनए परीक्षण कराने को कहा था ताकि वादी के दावे की सत्यता का पता लग सके कि वह तिवारी का जैविक बेटा है या नहीं।

पितृत्व विवाद में डीएनए परीक्षण से बचने के लिए तमाम कानूनी दांव-पेंच आजमाने के बावजूद वरिष्ठ कांग्रेस नेता नारायण दत्त तिवारी को सफलता नहीं मिल पाई और उन्हें एक जून 2011 को रक्त का नमूना देने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय की डिस्पेंसरी में आने का आदेश दिया गया, लेकिन तिवारी ने इस आदेश की अनदेखी की।

इस मामले में कई बार तिवारी को डीएनए टेस्ट के लिए आदेश दिया गया, लेकिन उन्होंने उसे नहीं माना तब अप्रैल 2012 में दिल्ली हाईकोर्ट में दो जजों की डिवीजन बेंच ने कहा कि अगर तिवारी खून के नमूने देने को तैयार नहीं होते तो पुलिस और प्रशासन की मदद ली जाए।

तिवारी ने सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेशों के बाद देहरादून में अपने आवास पर 29 मई को डीएनए जांच के लिए अपने रक्त का नमूना दिया था।

हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर डीएनए फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स ने तिवारी, रोहित शेखर और उसकी मां उज्वला शर्मा की डीएनए जांच रिपोर्ट न्यायालय को सौंप दी थी।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नारायण दत्त तिवारी की वह याचिका शुक्रवार को खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने अनुरोध किया था कि रोहित शेखर द्वारा दायर पितृत्व मामले में सुनवाई पूरी होने तक उनकी डीएनए जांच रिपोर्ट गोपनीय रखी जाए।

तिवारी द्वारा दिए डीएनए नमूने की रिपोर्ट पर न्यायमूर्ति रेवा खेत्रपाल ने कहा कि डीएनए रिपोर्ट 27 जुलाई को न्यायालय में खोली जाएगी। तिवारी ने न्यायालय से यह भी अनुरोध किया था कि वह बंद कमरे में सुनवाई की अनुमति दे।

हैदराबाद के सेंटर फॉर डीएनए, फिंगरप्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक (सीडीएफडी) ने रोहित, उसकी मां उज्जवला शर्मा और उनके पति बीपी शर्मा की डीएनएन प्रोफाइलिंग तैयार की है। उसकी रिपोर्ट 27 जुलाई को बंद लिफाफे में न्यायमूर्ति के समक्षे पेश की गई।

न्यायमूर्ति रेवा खेत्रपाल ने हैदराबाद स्थित प्रयोगशाला में की गई तिवारी की डीएनए जांच के नतीजे की घोषणा खुली अदालत में की। रिपोर्ट के अनुसार, तिवारी कथित तौर पर रोहित शेखर के जैविक पिता और उज्ज्वला शर्मा कथित तौर पर उनकी जैविक मां हैं।

इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किए जाने के बाद एनडी तिवारी ने मीडिया को भेजे लिखित संदेश में कहा कि यह पूरा प्रकरण एक सुनियोजित षड़यंत्र है और इसे अपना निजी मामला बताते हुए मीडिया और जनता से इसे अनावश्यक तूल न देने की अपील की। वहीं, कांग्रेस ने इस पूरे मामले से पल्ला झाड़ते हुए इसे तिवारी का निजी मामला करार दिया।

दिल से माफी मांगे तो बात है : डीएनए टेस्ट का नतीजा सार्वजनिक किए जाने से खुश उज्ज्वला ने कहा कि यह सचाई मुझे शुरू से मालूम थी, मगर आज दुनिया के सामने भी आ गई। उन्होंने कहा यह सच की जीत है। जब उनसे पूछा गया कि अब इस सच के बाहर आने के बाद आप चाहती हैं कि एनडी तिवारी आप से माफी मांगें, तो उन्होंने कहा,' मैं कुछ नहीं चाहती, जब तक कि उनके दिल से न निकले


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

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