Sunday, April 30, 2017

माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल

माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल
लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स
पड़री रोड महराजगंज, उ.प्र. 273303
शिक्षा सतत चलने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सीखने वाले की उम्र कोई मायने नहीं रखती। विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहाँ बच्चों को यह नहीं सिखाया जाता कि क्या पढ़ना है बल्कि यह सिखाया जाता है कि कैसे पढ़ना है। दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाता और विद्यालय का अधिकाँश समय इसमें ही बीत जाता है कि बच्चों को कैसे पढ़ना चाहिये। इस कड़ी में अध्ययन के व्यापक क्षेत्र को संकुचित करके मात्र विषयों के रटने तक ही सीमित कर दिया जाता है। यह विद्यार्थियों की क्षमता का वैसा ही दुरुपयोग है जैसे  आइंसटीन को पत्थर तौड़ने का काम दे दिया जाय या फिर रेस में दौड़ने वाले घोड़े को तांगे में जोत दिया जाय। उनकी कल्पनाशीलता को मात्र विषयों को पढ़ने और परीक्षा में कुछ उत्तर देने हेतु तैयार करने तक ही सीमित ना करके उसे ज्ञान के अनंत आकाश के एक छोर से दूसरे छोर को नापने के लिये उन्मुक्त छोड़ दिया जाय।
माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल, लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स, पड़री रोड, महराजगंज का एकमात्र उद्देश्य यही है। इस संस्था का उद्देश्य ना तो व्यवसाय, ना ही किसी प्रकार की प्रतिष्ठा अर्जित करना है।
                                   
निदेशक/प्रबंधक
सुरेन्द्र पटेल

लघभग 18 सालों से अध्यापन कार्य से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जुड़े रहने वाले सुरेन्द्र पटेल भूगोल विषय से परास्नातक और एडिटिंग में डिप्लोमा हैं। इन्होने लघभग दो दशक से शिक्षा, शिक्षार्थी और अध्यापन को करीब से देखा और समझा है। वर्तमान समय में शिक्षा के बदलते हुये परिवेश और विद्यार्थी के दिलो-दिमाग को बखूबी समझने वाले सुरेन्द्र पटेल भली-भाँति समझते हैं कि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थी आधारित है। जिसमें बच्चों को पढ़ाई के प्रति जिज्ञासु बनाया जा सकता है बजाय इसके कि उन्हे विषयों को रटने के लिये मजबूर किया जाय। इन्होने शिक्षा के कुछ बेहद जरूरी सिद्धान्त बनाये हैं जिसमें प्रमुख है फाइव सी का सिद्धान्त।
इनकी नजर में अध्यापन बहुत ही चैलेन्जिंग कार्य है। इसमें विद्यार्थियों के सामने आपको अपनी सारी काबिलियत झोंकने की जरूरत होती है जिसके द्वारा आप उन्हे बता सकें कि आपकी उपयोगिता गूगल गुरू से कहीं ज्यादा है। एक अच्छा अध्यापक क्रिकेट में आलराउंडर की तरह होता है जो बैंटिंग, बालिंग और फील्डिंग तीनों जिम्मेदारी अच्छे तरीके से निभा सके। सुरेन्द्र पटेल विषयों के संदर्भ में न सिर्फ भूगोल, इतिहास, अंग्रेजी, हिन्दी, कला, कंप्यूटर बल्कि संगीत के क्षेत्र में आर्गन, सैक्सोफोन, बाँसुरी, खेल के संदर्भ में क्रिकेट, वालीबाल, शतरंज, बैडमिन्टन, लेखन के क्षेत्र में निबंध, कहानी, कविता इत्यादि में विशेष योग्यता रखते हैं।

माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल

आपके पाल्य के लिये सबसे सही जगह क्यों?
यह एक ऐसा विद्यालय जहाँ आपके बच्चे को वे सारी सुविधायें मिलती हैं जो उसे सर्वांगीण विकास करने में सहायक होती हैं। इसके साथ ही साथ उसे अपने आपको निखारने का पूरा मौका मिलता है न सिर्फ एकेडमिक लेवल बल्कि क्रियेटिव लेवल पर भी। क्लासेज में उसकी बेसिक चीजों जैसे लिखावट और उच्चारण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके अलावा विद्यालय में अनेक ऐसी सुविधायें प्रदान की जाती हैं जो उसके विद्यार्जन और व्यक्तित्व विकास के लिये आवश्यक हैं।

1-फाइव सी
विद्यार्थियों के ओवरआल डेवलपमेन्ट के लिये माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल इस सिद्धानत को फालो करता है जिसमें-
1.      क्यूरियसिटी
2.      क्रियेटिविटी
3.      कान्टिन्यूटी
4.      कान्फडेन्स
5.      कम्यूनिकेशन
पर ध्यान दिया जाता है। क्यूरियसिटी बच्चे की पहली अवस्था होती है जिसमें वह किसी चीज के प्रति जिज्ञासु बनता है। जिज्ञासा उसे अगले पड़ाव यानि क्रियेटिविटी की तरफ ले जाती है जिसमें वह उसे जानने या समझने के लिये अपने नजरिये का विकास करता है। उसके बाद कान्टिन्यूटी की अवस्था आती है जिसमें वह अपने नजरिये को अभ्यास के धरातल पर ले जाता है और उसे लगातार जारी रखता है जबतक कि उसे उसमें प्रवीणता ना हासिल हो जाये। इसके बाद कान्फडेन्स की स्थिति आती है जिसमें वह अपने द्वारा अर्जित किये गये ज्ञान को परखता है और खुद में आत्मविश्वास का संचार करता है जो उसे कम्यूनिकेशन के अंतिम अवस्था तक ले जाती है जिसमें वह अपने ज्ञान व कौशल को दुनिया के सामने प्रस्तुत करता है और सफल व्यक्ति बनता है।

2-इंग्लिश मीडियम
वर्तमान विश्व में अंग्रेजी विचारों के अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने ज्ञान को दूसरों के सामने प्रस्तुत कर सकता है। देखा गया है कि विद्यार्थी जब अपने शहर व जिले से बाहर निकलता है तो

अंग्रेजी न बोल पाना उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनकर सामने आती है। इससे पार पाने के लिये माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल में अंग्रेजी कम्यूनिकेशन का एक बेहतर माहौल बनाया गया है जिसमें बच्चा अंग्रेजी न सिर्फ पढ़ पाता है बल्कि उसे व्यवहार में भी लाता है।

3-को-एजुकेशन
पूरे विश्व में लैंगिक समानता समाज के विकास के लिये सबसे बड़ी जरूरत में से एक बन गई है। आजकल हर जगह महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे चल रही हैं। विद्यालय में यह सोच विकसित करने के लिये माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल में को एजुकेशन की व्यवस्था लागू की गई है जिसमें लड़के और लड़कियाँ साथ पढ़ते हैं और विकास के रास्ते तलाश करते हैं।

4-आडियो-विजुअल क्लासेज
कक्षाओं को विद्यार्थी आधारित और विषयों की समझ को सुगम बनाने के लिये माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल में आडियो-विजुअल क्लासेज का व्यवस्था की गई है। इसके लिये कमरों में एल ई डी टीवी और इंटरनेट की व्यवस्था की गई है। एनिमेटेड कंटेन्ट को देखने के बाद बच्चा उसे आसानी से समझता है और लंबे समय तक उसे याद भी रख पाता है।

5-वीडियो लेसन्स
विद्यालय में कोर्स आधारित वीडियो, पावर प्वाइंट प्रजेन्टेशन बनाये जाते है और उन्हे टी वी के माध्यम दिखाया जाता है। इससे न सिर्फ उनका मनोरंजन होता है बल्कि उनका ज्ञान भी बढ़ता है।

6-एडवांस कंप्यूटर लैब
कंप्यूटर की पढ़ाई के लिये विद्यालय में एडवांस कंप्यूटर लैब की व्यवस्था की गई है जिसके द्वारा बच्चों को पाठ्यक्रम में शामिल चीजें तो पढ़ाई ही जाती है बल्कि उन्हे इंटरनेट, मीडिया और एनिमेशन की भी जानकारी दी जाती है।

7-लाइब्रेरी
बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिये एक पुस्तकालय की भी व्यवस्था भी की गई है जिसके द्वारा बच्चों को पाठ्यक्रम से इतर घर ले जाने के लिये मनोरंजक व ज्ञानवर्धक किताबें दी जाती हैं। बच्चे उसे पढ़ते हैं और पुनः विद्यालय को वापस कर देते हैं।

8-साइंस लैब
कक्षा 6 से बच्चों मे वैज्ञानिक अभिरूचि जागृत करने के लिये एक मिनी साइंस लैब की भी व्यवस्था की गई है।

9-फ्री कोचिंग
कोचिंग कल्चर समाप्त करने के लिये विद्यालय में शाम को एक्स्ट्रा क्लासेज चलती हैं जिसकी कोई फीस नही ली जाती है। इसमें विद्यार्थियों के होमवर्क, कठिन विषयों को पुनः पढ़ाना, खेलकूद इत्यादि शामिल हैं।

10-म्यूजिक, योगा क्लासेज
बच्चों में अन्य गुणों को विकसित करने के लिये विद्यालय में म्यूजिक, डांस और क्राफ्ट की कक्षायें चलती हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास का संचार होता है और वे स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ पाते हैं।






11-अनुभवी अध्यापक
अध्यापन कार्य के लिये विद्यालय में अनुभवी अध्यापकों की न्युक्ति की गई है जो न सिर्फ उच्च शिक्षित हैं बल्कि समझदार और बच्चों की मानसिकता को भली-भाँति समझने वाले हैं।

12-वाहन सुविधा
दूर-दराज के बच्चों को विद्यालय ले आने और ले जाने के लिये विद्यालय में वाहन की व्यवस्था भी की गई है।

13- साउण्ड सिस्टम-
 विद्यालय में निजी साउण्ड सिस्टम और लाउडस्पीकर्स हैं जिसका उपयोग प्रतिदिन असेंबली के दौरान किया जाता है। बच्चे माइक में बोलते हैं जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल
अब तक-
माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल अपने पहले ही सत्र में अभिभावकों की उम्मीदों पर खरा उतरा है और अपने विद्यार्थियों के व्यक्तित्व में उन गुणों का विकास करने में सफल हुआ है जो उसे औरों से अलग बनाते हैं। समय-समय पर विद्यालय में विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक, रचनात्मक गतिविधियों का संचालन कराया जाता है जो विद्यार्थियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मंच प्रदान करते हैं। इन गतिविधियों का खबरें जिले के प्रमुख अखबारों में सदैव छपती रहती हैं।

माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल
नर्सरी से कक्षा 8 तक
पिछले सत्र में विद्यालय कक्षा चार तक कक्षायें संचालित करता था। इस सत्र में कक्षा 8 तक कक्षायें संचालित की जायेंगी। भविष्य में यह कक्षा 12 तक चलेगा जिससे यह सभी स्तर के विद्यार्थियों की सेवा करने में सक्षम होगा।

सत्र 2017-18 के लिये रजिस्ट्रेशन शुरू हो चुका है। सीमित सीटे हैं अतैव शीघ्र करें।
रजिस्ट्रेशन के लिये संपर्क करें-
9125366128/8299844533
लाइक करें- www.facebook.com/mhsmrj
ईमेल करें- milstoneheritage@gmail.com




बाहुबली- 2

bahubali के लिए चित्र परिणाम
दो साल का इंतजार अंततः खत्म हुआ। बाहुबली 2 रिलीज हुई और रिलीज के पहले ही दिन इसने 100 करोड़ का आँकड़ा पार कर लिया जिसके पास पहुँचते पहुँचते ज्यादातर फिल्में हाफने लगती हैं।
कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा, यह सवाल सोशल मीडिया में दो सालों तक गूँजता रहा। लोगों की उत्सुकता इस फिल्म के प्रति दीवानगी के हद तक जा पहुँची। यहाँ तक कि मेरे विद्यालय में पढ़ने वाली एक लड़की ने बड़े ही गर्व से बताया कि वह 28 अप्रैल को गोरखपुर जा रही है बाहुबली 2 देखने। किसी फिल्म के प्रति इतना क्रेज, यह बताने के लिये काफी है कि उस फिल्म की कमाई कहाँ तक पहुँचेगी। फिल्म पंडित यह कयास लगा रहे हैं कि यह भारत की पहली फिल्म बन सकती है जो 1000 करोड़ रूपये की कमाई कर सकती है।
निःसन्देह पहली फिल्म हर मायनों में भारतीय फिल्मों से कई साल आगे रही थी। भव्य सेट, रिच कलर, शानदार सिनेमैटोग्राफी, अचंभित करने वाले ग्राफिक्स इन सबने मिलकर एक मायाजाल रच दिया था जिसके भीतर जाने पर दर्शक को कुछ याद नहीं रहता था। बाहुबली के कई सारे दृश्य ऐसे हैं जो अभी तक मानस पटल पर अंकित हैं लेकिन अफसोस कि बाहुबली 2 उस पैमाने पर खरी नहीं उतरी। हालाँकि यह फिल्म भी आम भारतीय फिल्मों से बहुत बेहतर है लेकिन इसमें पहले वाली बात नहीं।

कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा इसके जवाब में दर्शक किसी अकल्पनीय ताने-बाने की कल्पना कर रहे थे, लेकिन हकीकत में यह बहुत ही सतही साबित हुआ। शिवगामी देवी द्वारा अपने पुत्रमोह में कटप्पा को यह आदेश देना कि बाहुबली को मार दो अथवा वह उसे मार देंगी, बहुत ही बचकाना रहा। कटप्पा द्वारा बाहुबली को धोखे से मारने की बजाय प्रजा रक्षा के लिये उसके द्वारा खुद मौत के गले लगाने का निर्णय लेना और भी ज्यादा भावनात्मक प्रभाव पैदा करता।
दूसरे हाफ में भल्लाल के षडयंत्र इतने जल्दी-जल्दी घटित होते हैं कि किसी एक को भी एस्टाब्लिश करने का समय ही नहीं मिला।
शिवगामी देवी के चरित्र में इतनी जल्दी यू टर्न आना, अगले कुछ दृश्यों में बाहुबली को मारने का आदेश दे देना, खटकता है।  
जिस बाहुबली को पहली फिल्म में देवता समान दिखाया गया वह दूसरी फिल्म में अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के चलते अपनी जान गँवा बैठा, अखरता है।
पहले फिल्म में अरब से आये हुये एक हथियार के सौदागर का चरित्र दिखाया गया है, जिसे सुदीप ने निभाया था, दूसरे फिल्म में उसके दुबारा लाने की पूरी गुंजाइश थी लेकिन उसे दरकिनार कर दिया गया।
पहली फिल्म में युद्ध के दृश्य हालीवुड फिल्मों को भी मात देते थे...वह आकर्षण इस फिल्म में नजर नहीं आया।
पहली फिल्म में महेन्द्र बाहुबली का चरित्र अमरेन्द्र बाहुबली के टक्कर का था, लेकिन इस फिल्म में उसका इस्तेमाल सही तरीके से नही हो पाया।

और भी कई चीजे हैं लेकिन हम अपने कमरे में बैठकर फिल्म मेकिंग को जज नहीं कर सकते। फिल्म बनाने में हजारों लोगों की मेहनत और समय लगता है और बाहुबली को बनाने में तो लाखों की मेहनत लगी होगी। इस फिल्म ने इतिहास बनाया है लेकिन जिससे आशा होती है अगर वह उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता है तो एक टीस मन में रह ही जाती है। फिलहाल बाहुबली टीम को बधाई...।

Sunday, April 23, 2017

तेरा लाइक-मेरा लाइक

बहुत दिन नही हुये जब फेसबुक को कोई जानता नही था। पिछले कुछ सालों में इसके इस्तेमाल करने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। फेसबुक ही नहीं बल्कि हर प्रकार के सोशल मीडिया प्लेटफार्म के इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ी है। मास कम्यूनिकेशन के साधनों में सोशल मीडिया ने अपनी पकड़ बहुत बजबूत बनाई है। निःसन्देह यह काबिले तारीफ है। इन्टरनेट और सोशल मीडिया ने विश्व को और ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया है। बीते कुुछ सालों की बात करें तो हमें अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने के लिये कम्यूनिकेशन के पारंपरिक माध्यमों पर निर्भर रहना पड़ता था। जिसमें पत्र, टेलीफोन, बैनर, पोस्टर इत्यादि शामिल थे। ये तरीके धीमे, खर्चीले और कम लोगों तक पहुँचने वाले थे। इसके उलट सोशल मीडिया ने आज इसको बहुत ही ज्यादा आसान बना दिया है। आज कोई भी व्यक्ति जिसके फ्रेन्डलिस्ट में हजार-पाँच सौ लोग भी हैं, और वह फेसबुक पर छींकता भी है तो उसका संक्रमण उतने लोगों तक पहुँचता है। अच्छी बात है।
आक्सीजन जीवधारियों के लिये सबसे ज्यादा आवश्यक अवयय है जिसके बिना जिन्दगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इंसान और जानवर तो क्या पेड़-पौधे भी आक्सीजन के बिना नहीं रह सकते लेकिन इसी आक्सीजन की एक सबसे बड़ी खामी है कि यह जलने के लिये भी आवश्यक है। यह खामी भी है और खासियत भी। जब कहीं आग लग जाती है तो यह खामी नहीं तो खासियत के रूप में सृष्टि की सेवा करती रहती है। यही बात सोशल मीडिया पर भी लागू होती है। पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी, जो कालेज, स्कूल यहाँ तक कि प्राइमरी तक में पढ़ रहे हैं, इन माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैंऔर किसलिये सिर्फ अपने फोटोज शेयर करने के लिये। दिमागी तौर पर उनकी सोच इतनी ज्यादा विकसित ही नहीं हुई कि वो इन माध्यमों के जरिये कुछ रचनात्मक या फिर सर्जनात्मक विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। अफसोस होता है जब छोटे-छोटे बच्चे फेसबुक पर प्यार और मोहब्बत के बारे में अपनी राय और उनसे जुड़े अनाप-शनाप फोटोज शेयर करते हैं। पहले के स्कूलो में मेेरे पढ़ाये हुये बच्चे जो आज छठवीं से लेकर बारहवीं कक्षाओं में पढ़ रहे हैं वो बेधड़क लव, हेट, आफेक्शन पर अपने विचार रख रहे हैं। उससे भी बुरी बात कि उनको लाइक करने वालों की कमी भी नही है। 
बच्चे अपनी सेल्फी लेते हैंं, एडिट करते हैं, कैप्शन लिखते हैं और पोस्ट कर देते हैं। फिर शुरू होता है उसको लाइक और कमेंट करने का सिलसिला, जिसमें नाइस, आसम, डैशिंग, गुड लुकिंग, झक्कास इत्यादि शब्दों की भरमार होती है। हर कमेंट के लिये शेयर करने वाला थैंक्स ब्रो, थैंक्स भाई और थैंक्स दोस्त इत्यादि की कृतज्ञता दिखाता  है। बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं कि इन शब्दों की वास्तविक जिन्दगी में कोई अहमियत ही नही हैं। असली नाइस, आसम और हैण्डसम इत्यादि का कंप्लेन्ट तब मिलता है जब बच्चा पढ़ लिख कर लायक बन जाता है और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के काबिल हो जाता है। असली कमेंट फोटो में बाइक, कार या फिर नदी के किनारे फोटो खिंचवाने नहीं बल्कि रियल लाइफ में उसे अपने दम पर खरीद कर चलाने में हैं। 
दुख की बात है कि आजकल के बच्चे इस आभासी दुनिया में इतना रम गये हैं कि वो हकीकत की तरफ मुँह करना ही नहीं चाहते। मैं कई ऐसे बच्चों को जानता हूँ जो इण्टर की क्लासेज में फेल हो चुके हैं लेकिन फेसबुक पर उन्हे लाइक करने वालों की संख्या सैकड़ों हैं। असल में ये लाइक करने वाले भी उसी कैटगरी के बच्चे हैं।  बच्चे दूसरों को देखकर बहुत प्रभावित होते हैं। वो सेलिब्रिटीज की फैन फालोइंग को देखकर अपनी भी समांतर फैन फालोइंग बनाना चाहते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि अमिताभ की करोड़ों फैन फालोइंग फेसबुक इस्तेमाल करने से नहीं बल्कि पचासों साल से की गई मेहनत का परिणाम है। जिन नाम शख्सियतों के सोशल मीडिया पर फैन बेस को देखकर हम प्रभावित होते हैं वो उनके काम की वजह से है ना कि फेसबुक इस्तेमाल करने की वजह से है। मुझे याद है कि मैं जब मुंबई में था तब सचिन ने 2008-2009 मे ट्विटर अकाउंट ओपेन किया था और उनके अकाउंट ओपेन करते ही फालोअर्स की संख्या करोड़ों के पार चली गई। उस समय ट्विटर मिड डे में प्रतिदिन उनके बढ़ते फालोअर्स की संख्या प्रकाशित करता था। अगर सचिन क्रिकेट के भगवान नहीं होते तो उनको ये फैन फालोइंग की  संख्या पाते ना जाने कितना समय लगता। मैं खुद भी फेसबुक का 2008 जनवरी से इस्तेमाल करता हूँ। उस समय बहुत कम लोग इसके बारे में जानते थे। मैं खुद भी एक दोस्त के द्वारा ही जान सका जो उस समय दुबई से आई थी। लेकिन आज भी मेरे दोस्तों की संख्या 1000 तक नहीं पहुँची हालाँकि सैकड़ों फ्रैन्ड रिक्वेस्ट को मैने अभी एसेप्ट नहीं किया। 
सवाल यह है कि फ्रेन्ड लिस्ट बढ़ाने से क्या फायदा जब आप समाज और दूसरों के जीवन के लिये सार्थक योगदान नहीं कर सकते। गलतफहमी किसी हद तक ठीक हो सकती है लेकिन खुशफहमी निश्चित तौर पर इंसान के आगे बढ़ने में रूकावटें पैदा करती है। 
पढने वाले बच्चों से मेरी यही गुजारिश है कि वो पहले अपने पढ़ाई पर ध्यान दें और बाद में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करें क्योंकि यह धीरे-धीरे हमारी आदत में शुमार होता जा रहा है और आदतें अच्छी भी होती हैं और बुरी भी।

Wednesday, April 19, 2017

कमरा(कहानी)

कमरा
डा. साहब बड़े परेशान थे। तीस साल से ज्यादा समय हो गया था उन्हे राजाराम मार्ग पर अपना क्लिनिक खोले हुये। उस समय वहाँ बिजली तो क्या चलने लायक सड़क भी नहीं थी। गर्मी के मारे बुरा हाल होता था और हवा के लिये हाथ का पंखा ही एकमात्र सहारा था। कस्बे में जब डा. साहब दलित-पिछड़ी राजनीतिक चेतना के अग्रदूत बनकर उभरे तब यही क्लिनिक उनके राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र भी बन गया। धीरे-धीरे मरीजों की संख्या कम होती गई और फरियादियों की भीड़ बढ़ने लगी। गाहे-बगाहे मकान मालिक रज्जन मिश्रा से इस बारे में दो-चार बातें भी हो गईं। डा. साहब ठहरे बुद्धिजीवी, अपने किराये के दम पर उन्होने रज्जन मिश्रा की बातों पर कान देना मुनासिब नहीं समझा और गच्चा खा गये यहीं पर। अक्टूबर के महीने में मिश्रा जी ने नोटिस दे दिया कि कमरा खाली कर दिया जाय अब वह बेटे के लिये आफिस की तरह इस्तेमाल होगा। दशहरे दीपावली के शुभ अवसर पर डा. साहब को यह खबर रावण के जिन्दा हो जाने या फिर राम के अयोध्या से निर्वासित हो जाने से कम नहीं लगी। हाँलाकि वह पौराणिक गाथाओं को कपोल-कल्पित कहानियों और देवी-देवताओं को उनके नायक और नायिकाओं से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। उनकी नजर में यह सब समाज की पिछड़ी और दलित जातियों को बरगलाने के पुराने तरीके से ज्यादा कुछ नहीं था फिर भी कमरा खाली करना उन्हे राम के वनवास जाने जैसा ही महसूस हुआ।
डा. साहब कहाँ दीपावली के अवसर पर क्लिनिक की सफाई रंग-रोगन, सजावट इत्यादि की योजनाओं में व्यस्त थे कहाँ उसे खाली करने की नौबत आ गई। एक बार दिमाग में आया कि कोर्ट में केस कर दें, फिर खयाल आया कि लोग क्या कहेंगे। भले मानुस की तरह उन्होने उसी रोड पर दूसरा कमरा देखना शुरू कर दिया। किराये के मकान को छोड़ना जितना आसान है उतना ही कठिन दूसरा मकान ढूँढना है यह बात डा. साहब को अब जाकर समझ में आई। कई दिनों तक पूरे रोड की खाक छान मारी लेकिन कोई कमरा नहीं मिला। एक दिन टहलते-टहलते वह कुछ आगे बढ़ आये तो नजर आया कि एक फोटो स्टूडियो की दुकान जो उनके किसी जानने वाले की थी बंद पड़ी थी। पता किया तो मालूम हुआ की दुकान कई दिनों से बंद है। कारण के बारे में कुछ स्पष्ट पता तो नहीं चला लेकिन उड़ती हुई खबर मिली की शायद दुकान बंद होने वाली है। सड़क पर खड़े-खड़े उन्होने तुरंत उस सज्जन को काल किया। फोन कनेक्ट हुआ और उधर से आपरेटर की आवाज आई।
“थैंक्यू फार कालिंग मिस्टर राजू गुप्ता प्लीज वेट अनटिल योर काल इज बीइंग आन्सर्ड”
जब तक फोन उठा नहीं तब तक ये आवाज उनके कान में गूँजती रही और वह यह सोचते रहे कि आदमी दिखावे के लिये क्या-क्या नहीं करता है। फोन करने वाले को वह अपना नाम बार-बार सुनवाने से भी परहेज नहीं करता है। खैर कुछ देर बाद फोन उठा और उधर से आवाज आई-
“नमस्कार डा. साहब, कैसे हैं”
डा. साहब को समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दें। आमतौर पर वो अभिवादन के लिये जय मूलनिवासी बोलते थे, लेकिन परिस्थितियों से उत्पन्न हुई परेशानियों की बदौलत सामान्य तरीके से कुछ कह पाना उनके लिये मुमकिन ना हुआ।
“नमस्कार गुप्ता जी...ठीक हूँ...एक बात पूछनी थी”
“पूछिये”
आपकी दुकान कई दिनों से बन्द है। क्या बात है?
डा. साहब ने ऐस पूछा जैसे उन्हे कोई काम करवाना है। वैसे आये दिन उन्हे कुछ न कुछ टाइप कराने, डिजाइन कराने या फिर आडियो प्रचार कराने के लिये राजू गुप्ता की दुकान पर जाना पड़ता था। ये बात और थी कि पैसे अदा करने के मामले में वो थोड़ा कच्चे थे। गुप्ता की दुकान पर आज तक उनका हिसाब क्लीयर नही हुआ था। यही कारण था कि गुप्ता जान-बूझकर उनके कार्य को वेटिंग लिस्ट में रखना पसंद करता था।
कहिये कोई काम था क्या।
गुप्ता ने उत्सुकता से पूछा तो डा. साहब को आश्चर्य हुआ वरना उसकी आवाज में खराश से उनकी पहचान पुरानी थी।
कोई काम तो नहीं था, बस यही पूछना था कि आपकी दुकान कई दिनों से बन्द है क्या बात है।
राजू समझ नहीं पाया कि डा. साहब उसकी दुकान बन्द होने से परेशान है या फिर खुश। परेशानी वाली बात उसके समझ में आती थी क्योंकि और किसी दुकान पर उनका काम इतनी जल्दी और कम कीमत में तो होने से रहा। लेकिन उनके आवाज में खुशी की हल्की सी खुशबू कुछ और भी इशारा कर रही थी।
हाँ मैने दुकान बन्द कर दी है।
क्यों
दिल्ली जाने का प्लान बना लिया है। अब यहाँ करने के लिये कुछ बचा नहीं इसलिये वापस दिल्ली जा रहा हूँ।
दुकान का क्या होगा।
उसकी चाभी वापस मकान मालिक को दे दी है।
मकान मालिक का क्या नाम है।
शिवशंकर पटेल। मेरे मुहल्ले के ही हैं। वैसे आप क्यों पूछ रहे हैं।
यह कमरा मुझे चाहिये। मेरा पुराना कमरा मालिक वापस ले रहा है।
तो पहले बताया होता। अब तो यह कमरा उठ गया है।
क्या...कब
कुछ दिन पहले ही। मकान मालिक के रिश्तेदार ही यह कमरा ले रहे हैं।
मुझे दे दिया होता आपने।
मुझे कैसे पता होता डा. साहब कि आपको यह कमरा चाहिये। वैसे भी यह बात तो आपको मालिक से करनी चाहिये। मैं कौन होता हूँ कमरा किराये पर उठाने वाला।
ठीक है मैं उन्ही से बात कर लेता हूँ। फिलहाल ये दुकान अभी खुल तो नहीं रही है।
मुझे ठीक से नही पता। इस बारे में आप उन्ही से बात करें तो बेहतर है।
कहकर गुप्ता ने फोन काट दिया और इधर डा. साहब ईश्वर से दुआ करने लगे कि यह कमरा उन्हे मिल जाये।
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अगले दिन डा. साहब अपने क्लिनिक पर विचार की मुद्रा में बैठे थे ठीक उसी समय उनके सामने वाली दुकान में लेडिज टेलरिंग की दुकान चलाने वाला मास्टर उनके पास आया। सब लोग उसे मास्टर ही कहते थे और आजकल वह डा. साहब के क्लीनिक पर थोड़ा से कुछ ज्यादा आता जाता था। आते ही उसने हाथ उठाकर सलाम ठोंका।
कैसे हैं डा. साहब।
डा. साहब ने सिर उठाया तो मास्टर की तंबाकू चबाने से काली हो चुकी बतीसी दिखाई दी।
ठीक ही हैं मास्टर तुम बताओ। वीजा का इंतजाम हो गया।
मास्टर सउदी जाने वाला था जैसा कि उसने उन्हे बताया था। उसने यह भी बताया था कि सउदी जाने के बाद उसकी टेलरिंग की दुकान खाली हो जायेगी और डा. साहब उसे ले सकते हैं। हाँलाकि वह मकान कच्चे ईंटों का था और बिजली पानी के साथ अन्य सुविधायें सरकारी योजनाओं की तरह बाट जोह रही थीं। डा. साहब ने उस कमरे को बैक-प्लान की तरह रखा हुआ था।
इंतजाम तो हो गया बस टिकट निकल जाये। आप बताइये कमरे का क्या हुआ।
हुआ क्या...एक जगह खाली तो हुई थी, लेकिन किसी की नजर मुझसे पहले पड़ गई और वह कमरा भी उठ गया। अब तो लगता है कि तुम्हारे कमरे में ही शिफ्ट होना पड़ेगा।
तो क्या बुरा है। घर भले ही पुराना सही लेकिन थोडा मेन्टेन करवा देने पर चकाचक हो जायेगा। इससे बड़ी जगह है, आपका क्लिनिक भी सेट हो जायेगा और आने जाने वाले लोगों के बैठने के लिये आफिस भी बन जायेगा। खामख्वाह परेशान हो रहे हैं आप।
ठीक कहते हो...इस कमरे के चक्कर में पार्टी की मीटिंग कैंसिल करनी पड़ी, लखनऊ जाना था, वह भी नहीं हो पाया। अगर कुछ दिन और चक्कर लगाना पड़ा तो और भी काम रूक जायेंगे। सोचता हूँ जो मिल जाये उसी से काम चला लिया जाय।
तो इसमें बुराई क्या है। अच्छी भली जगह है। मैं आज ही मालिक से बात करता हूँ।
इस मतलबी दुनिया में डा. साहब को मास्टर ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति नजर आ रहा था जो उनके साथ था। लिहाजा उन्होने उससे वादा किया था कि भविष्य में यदि उसे या उसके परिवार को किसी भी प्रकार के मदद की आवश्यकता हुई तो डा. साहब अविलंब उसकी सहायता करेंगे।
और बताओ तुम्हारे बेटे का क्या हालचाल है।
ठीक है। डाक्टर ने कहा है कि उसे आराम करने की जरूरत है। बीमारी की वजह से उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया है और ताकत आने में वक्त लगेगा।
मास्टर का एक ही बेटा था। कुछ महीने पहले उसे बुखार आने लगा था जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। इसके साथ ही साथ उसकी भूख भी कम हो गई थी जिसकी वजह से उसकी वजन बड़ी तेजी से कम हो होने लगा। कई डाक्टरों को दिखाने के बाद भी जब कोई नतीजा नहीं निकला तो डा. साहब ने उसे जिला अस्पताल के टी.बी. क्लिनिक में भेज दिया। वहाँ से भी कुछ संतोषजनक परिणाम नहीं निकला लेकिन ट्रायल बेस पर डाट्स का कोर्स चलने लगा। थोड़े दिनों में बुखार की परेशानी दूर हो गई लेकिन उसका वजन कम होना जारी रहा। बाद में खून की जाँच हुई तो पता चला कि उसका हीमोग्लोबीन कम हो गया था। डा. साहब की सलाह पर उसे खून बढ़ाने के लिये अच्छी खुराक दी जाने लगी। इसी बीच मास्टर ने तय कर लिया कि उसे सउदी जाना है। वहाँ से वह रियाल कमाकर अपने घर भेजेगा और उसके परिवार का पालन-पोषण बेहतर तरीके से हो सकेगा।
ठीक हो जायेगा वह...बस खान-पान पर ध्यान देना पड़ेगा।
आपने बड़ी मदद की है। आपका एहसान कभी नहीं भूलूंगा।
मास्टर ने कृतज्ञता जताते हुये कहा। मैं आज ही अपने मकान मालिक से आपके बारे में बात करता हूँ।
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राधेश्याम तिवारी के घर पर कुछ लोग आये थे। कोई गंभीर बात-चीत चल रही थी ठीक उसी समय मास्टर कमरे में आया। राधेश्याम तिवारी उसी मकान के मालिक थे जिसमें मास्टर की दुकान थी। मास्टर को देखते ही राधेश्याम में खुश होकर कहा।
मास्टर ये लोग रामपुर से आये हैं। बीस लाख देने के लिये कह रहे हैं।
क्या बात करते हैं तिवारी जी..बीस लाख..मछली बेचने के लिये बाजार में नहीं बैठे हैं कि सड़ जायेगी और फेंकनी पड़ेगी। मौके की जमीन है...घर है...पचीस लाख देने के लिये तो कितने लोग तैयार हैं। आज ही यादव जी से बात हुई है, वो सत्ताइस देने के लिये तैयार हैं।
मकान कच्चा है तिवारी जी, और किसी काम का नही कुछ भी बनाने से पहले उसे गिराना जरूरी होगा। वैसे भी मकान के साथ बैनामा कराना ज्यादा मँहगा पड़ेगा।
एक आदमी जो खरीददार प्रतीत हो रहा था बोल पड़ा।
देखिये गुप्ता जी हमें इससे फर्क नहीं पड़ता कि मकान के साथ बैनामा होगा या मकान के बिना बैनामा होगा। सत्ताइस लाख कीमत जमीन की लगी है। छह डिस्मिल जमीन मेन रोड पर, इससे सस्ती तो मिल ही नहीं सकती। और अगर आपको कीमत ज्यादा लग रही हौ तो जमीने और भी हैं पर खरीददारों से भी दुनिया खाली नहीं है। आप कोई और जमीन देख लीजिये। मैं पचीस लाख से कम में जमीन नहीं बेचूंगा।
यह सुनकर गुप्ता और उसके साथ आये हुये लोग उठकर चल दिये। उनके जाने के बाद मास्टर तिवारी के साथ बैठते हुये बोला-
मैंने जमीन का सौदा यादव से सत्ताइस लाख में तय कर दिया है। आपको पचीस लाख चाहिये लेकिन आप यादव से इसकी कीमत सत्ताइस लाख बतायेंगे बाकी के दो लाख मेरा कमीशन होगा।
मुझसे इससे कोई मतलब नहीं कि तुम इसे कितने में बिकवाते हो...मुझे अपने पचीस लाख से मतलब है।
ठीक है...बाकी काम आप मुझपर छोड़ दीजिये।
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डा. साहब कुछ काम से अपने गाँव गये थे। कोई पारिवारिक मामला था जो बड़ी मुश्किल से सुलझ सका था। वापस आने पर उन्होने देखा कि
जिस मकान में उन्होने अपना क्लिनिक खोलने का सपना देखा था वह तो जमींदोज हो चुका था। मजदूर वहाँ से ईंट मिट्टी हटाने में लगे थे। यादव वहाँ कुछ आदमियों के साथ खड़ा था। उनमें से एक ईंजीनियर जैसा लग रहा था और वह यादव को कुछ बता रहा था। डा. साहब यादव के पास गये और यादव से घबराते हुये बोले-
ये मकान क्यों गिरा दिया गया।
क्यों गिरा दिया गया मतलब...मुझे इसकी जरूरत नहीं थी इसलिये गिरवा दिया। वैसे आप कौन हैं यह पूछने वाले।
यादव ने घूरने वाली नजरों से देखते हुये डा. साहब से पूछा।
मैं डा. मनोहर गौतम हूँ। सामने वाली क्लीनिक मेरी है। मेरी मकान मालिक से इस घर को किराये पर लेने की बात हुई थी।
हुई होगी...पर मैने यह जमीन खरीद ली है।
यादव ने लापरवाही से कहा। डा. साहब के पैरों तले जमीन खिसक गई। वह निराश होकर वहाँ से अपने क्लीनिक चले आये। कुर्सी पर बैठकर वह विचार करने लगे कि अब क्या किया जाये। इतनी जल्दी तो कोई कमरा मिलने से रहा तो इस हालत में एक ही सूरत बचती है कि रज्जन मिश्रा से कुछ दिनों की मोहलत और ली जाय ताकि किसी और कमरे का इंतजाम हो सके। इसी बीच उन्हे मास्टर का खयाल आया शायद वह उनकी कोई मदद कर दे। यह सोचकर उन्होने उसे फोन मिलाया लेकिन उसका फोन नाट रिचेबल था। उसके घर जाकर कुछ पता चले यह सोचकर वह क्लिनिक से बाहर निकले और दरवाजा लाक करके उसके घर की ओर चल दिये। मास्टर का घर कस्बे में दूसरी ओर था जिसे दौलतपुरा कहते थे। वहाँ मुस्लिम आबादी ज्यादा थी और अधिकांश आदमी सउदी में कमाने के लिये देश से बाहर थे। डा. साहब चलते हुये सोच रहे थे कि शायद यही वजह है कि मास्टर भी सउदी जाने के लिये इतना उतावला है। रियाल में तनख्वाह मिलती है। भले ही वहाँ के लिहाज से बहुत कम हो पर रूपयों में बदलने के बाद उसका भाव बढ़ जाता है। चलते-चलते वह मास्टर के घर पर पहुँचे। कोई दिखा नहीं तो उन्होने आवाज लगाई जिसे सुनकर उसका लड़का बाहर निकला। देखने में वह पहले से ठीक-ठाक नजर आ रहा था लेकिन कमजोरी अभी भी बनी हुई थी।
तुम्हारे अब्बा कहाँ है बेटा।
डा. साहब ने उससे पूछा।
बड़े शहर गये हैं। अम्मी कह रही थी कुछ सामान लाना था।
डा. साहब अनुमान नहीं लगा सके कि कौन सा सामान लाने के लिये मास्टर बड़े शहर गया है। अगले कुछ दिनों में वह सउदी जाने वाला है तो इस समय उसे किस सामान की जरूरत पड़ गई।
कब तक आयेंगे वह।
पता नहीं, कल परसों तक आ जायेंगे।
ठीक है आयेंगे तो बता देना कि डा. साहब आये थे।
कहकर डा. साहब वापस हो लिये। कुल मिला-जुलाकर तीसों साल पुराना स्थान उनसे छूटने वाला था। उससे दूर होने का गम उतना ज्यादा नहीं था जितना कि इस बात का कि उन्हे उस पुरानी सड़क पर क्लिनिक के लिये एक कमरा नहीं मिल सका। परिवर्तन संसार का नियम है और यह वैज्ञानिक भी है। इस बात को उनके जैसा भौतिकतावादी व्यक्ति भली-भाँति समझता था लेकिन परिवर्तन के समय होने वाले विस्थापन का एक नई अवस्था तक पहुँचना भी उतना ही आवश्यक था। इस नियम की सार्थकता तभी थी। विचारों के इसी भँवर में डूबते-उतराते कब वह अपने क्लीनिक पर पहुँच गये उन्हे पता ही नहीं चला। और जब क्लीनिक पर नजर गई तो उन्होने दरवाजे पर रज्जन मिश्रा को खड़े पाया। उन्हे देखते ही वह दाँत दिखाते हुये उनके पास आया।
अच्छा हुआ आप आ गये डा. साहब। आपका ही इन्तजार हो रहा था। कमरा खाली करने की दी हुई तारीख आज समाप्त हो चुकी है इसलिये आज आप अपना सामान निकाल लें तो बहुत कृपा होगी।
कमरा आपका है मिश्रा जी। जब चाहें खाली करवा लीजिये लेकिन आपका बेटा तो अगले महीने आने वाला है ना। फिर इतनी जल्दी क्यों।
वो क्या है ना कि कमरे को उसके हिसाब से थोड़ा सा मेन्टेन कराना है।
रज्जन मिश्रा ने हाथ मलते हुये कहा।
अब देखिये ना आपने इतना सारा रैक लगाया है। कई सालों से कमरे में पेन्ट नहीं लगा है। सारा कुछ कराने में टाइम तो लग ही जायेगा। खैर आप बताइये कमरा कहीं मिला कि नहीं।
मिला तो नहीं खैर कहीं ना कहीं तो इंतजाम हो ही जायेगा। रही इस कमरे की बात तो कल यह खाली हो जायेगा।
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कमरा खाली करने के कुछ दिनों के बाद डा. साहब किसी काम से राजाराम मार्ग पर आये तो देखा कि उस कमरे में अनारकली लेडीज टेलर नाम की दुकान खुल चुकी है। उत्सुकतावश वह उस दुकान में गये तो मालिक की कुर्सी पर मास्टर को बैठे पाया। यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उधर मास्टर उन्हे देखते ही खड़ा हो गया और नमस्ते करते हुये बोला-
आइये-आइये डा. साहब...तशरीफ लाइये। बड़े दिनों के बाद इधर नजर आये हैं।
डा. साहब दुकान के अन्दर नही गये। बाहर ही खड़े रहे। मास्टर खुद ही बाहर आ गया और उनका हाथ पकड़ते हुये बोला।
बुरा मत मानियेगा डा. साहब। तिवारी जी मकान को बेचना चाहते थे और मैं अपनी दुकान बढ़ाना चाहता था। तिवारी जी को उसके पचीस लाख चाहिये थे...मैने सौदा सत्ताइस लाख में पटवा दिया। बाकी के दो लाख कमीशन के मैने रख लिये। इधर मिश्रा जी आपसे पहले ही खार खाये हुये थे वह किसी तरह आपको अपने कमरे से निकालना चाहते थे। मैने सोचा कि यह कमरा मैं ही क्यों ना ले लूं...जगह भी वही रह जायेगी और ग्राहकों को कोई परेशानी भी नही होगी। यही सोचकर मैंने दो लाख रुपयों में से पचास हजार रूपये इसके सिक्योरिटी के दे दिये और बाकी में दुकान का डेकोरेशन और माल खरीद लाया। यकीन मानिये आपको यहाँ से हटाने में मेरा कोई हाथ नहीं है।
डा. साहब ने कुछ कहा नहीं बस वहाँ से वापस हो लिये।

समाप्त
दस्तक सुरेन्द्र पटेल
17-04-2017

Saturday, April 8, 2017

शिक्षा व्यवसाय क्यो?

कोई भी व्यवसाय पूँजी के बिना शुरू नही हो सकता और एक स्कूल खोलने के लिये पूंँजी की कुछ ज्यादा ही आवश्यकता है। इसलिये किसी हद तक यह सही भी है कि शिक्षा आजकल व्यवसाय का जरिया बन चुकी है। ऐसा क्यों हैं यह जानने के लिये कुछ बिन्दुओं पर गौर करना समीचीन है-
1-अभिभावक बच्चे का दाखिला कराने में स्कूल की गुणवत्ता से ज्यादा स्कूल के भवन की ऊँचाई, विद्यालय का कैंपस, आकर्षक रंग रोगन देखना पसंद करते हैं।
2-क्लासरूम में पढ़ाई के माहौल से ज्यादा उपलब्ध सुविधाओं पर उनकी नजर ज्यादा रहती है। जैसे कि स्मार्टक्लास, इंटरेक्टिव बोर्ड, सी सी टी वी कैमरा इत्यादि।
3-स्कूल से निकले हुये विद्यार्थियों की सफलता प्रतिशत की बजाय वह विद्यालय में पढ़ रहे बच्चों की गिनती करना ज्यादा पसंद करते हैं। उनकी धारणा है कि विद्यालय में नामांकित छात्रों की संख्या उसकी गुणवत्ता की पहचान है।
4-वह मानते हैं कि छोटे विद्यालयों में पढाई का माहौल बढ़िया नही होता और उनके बच्चे पीछे रह जायेंगे।
5-अनेक प्रकार के यूनिफार्म, सप्ताह में कई बार बदले जाने वाले जूते, रंग-बिरंगे टी-शर्ट और क्रियेटिविटी क्लासेज के नाम पर ली जा रही अतिरिक्त फीस उन्हे यकीन दिलाने में सफल रहती है कि विभिन्नता और इसके लिये ली जाने वाली फीस उनके बच्चे के आगे बढ़ने की गारंटी है।
6-दूसरों के सामने अपने बच्चे का मँहगा विद्यालय और मँहगी फीस के बारे में बताते हुये वो गर्व महसूस करते हैं।
7-कुल मिला-जुलाकर शिक्षा "Need" नही 'Want" बन गई है जिसकी वजह से यह व्यवसाय की ओर अग्रसर है।

ध्यान से सोचें की एक शिक्षित व्यक्ति जो बच्चों को बेहतर ज्ञान और अच्छा नागरिक बनाना चाहता है और विद्यालय के माध्यम से वह यह काम करना चाहता है लेकिन उसके पास पूँजी नही है तो वह उस स्तर का विद्यालय खोल ही नहीं पायेगा जिसमें अभिभावक अपने बच्चे को पढ़ाना चाहे।  वहीं दूसरी ओर एक पूँजीपति जिसका शिक्षा से कोई लेना देना नही, जिसका एक ही मकसद है, पैसा कमाना वह वन टाइम इन्वेस्टमेन्ट करता है और उपरोक्त सुविधाओं के बदले  मोटी फीस वसूल करता है और अभिभावक खुशी-खुशी अपने बच्चे का एडमिशन वहाँ कराके बाद मे सिस्टम को दोष देने लगते हैं।
 बच्चे को शिक्षित करने के लिये बुनियादी चीजें-
1-एक क्लासरूम जिसमे पूरे सत्र निर्बाध रूप से पठन-पाठन चल सके।
2-एक बोर्ड जिसपर पढ़ाया जा सके।
3-बैठने और लिखने-पढने के लिये सुविधाजनक डेस्क और बेंच।
4-और एक योग्य अध्यापक जो बच्चों को उनके हिसाब से पढ़ाये।

जरूरत सुख-सुविधाओं वाले बड़े भवन की नहीं  सीखने-सिखाने वाले एक विद्यालय की है। अगर शिक्षा आवश्यकता तक सीमित है तो सेवा है नही तो चाहत में बदलने के बाद यह व्यवसाय बनने की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर है।

दस्तक सुरेन्द्र पटेल


मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...