बात यदि भारत की करें तो यहाँ स्थिति और भी ज्यादा खराब है। आये दिन यहाँ के हर शहर में बलात्कार, हत्या, शोषण इत्यादि की खबरें देखने, सुनने, पढ़ने को मिल जाती हैं। इसका कारण क्या है? कानून बनने के बाद भी स्त्रियों के प्रति समाज के व्यवहार में परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा है। निर्भया काण्ड के बाद बलात्कार के मामलों में फाँसी तक की सजा का भी प्रावधान कर दिया गया। लेकिन इस तरह की घटनाओं के बाद भी कोई सकारात्मक बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। जो मामले मीडिया या फिर कानून के संज्ञान में आते हैं, बनिस्पत उसके, सामने न आने वाले मामलों की संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसे मामलों में घरेलू शोषण और हिंसा की शिकार बच्चियों, महिलाओं की हालत बहुत खराब है। ऐसी शिकार महिलायें तो अपना मुँह भी नहीं खोल सकतीं। उन्हे अपनी स्थिति को अपनी नियति मानकर उसे स्वीकार कर लेना पड़ता है। यही स्थिति उनकी सर्वकालिक दुर्दशा की सबसे ज्यादा जिम्मेदार है।
हमारा मुद्दा यह है कि, कड़े कानूनों के बावजूद इस तरह की घटनायें क्यों हो रही हैं।
ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ऐसा इसलिये है क्योंकि स्त्रियों को सभ्यता के आदिकाल से ही भोग की वस्तु माना जाता है। इतिहास से पता चलता है कि पुरुषो ने अनगिनत स्त्रियों के साथ विवाह किया। युद्धादि आपद काल में उन्हे लूट की वस्तु माना। उनका बकायदा बँटवारा किया। ऐसा नहीं है कि यह किसी देश-समाज विशेष की विशेषता रही हो। स्त्रियों पर अत्याचार ने देशकाल की सीमाओं को पार किया है। मध्यकाल में यूरोप में किसी भी स्वतंत्र विचारधारा वाली स्त्री को बड़ी आसानी से चुड़ैल घोषित कर दिया जाता था। ऐसी औरतों को बड़ी ही बेरहमी से मार दिया जाता था। स्त्री को भोग की वस्तु मानने वाली विचारधारा इक्कीसवीं सदी में भी नहीं बदली है। भारतीय समाज में बकायदा शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध हैं जिनमे स्त्रियों को शूद्रो के कोटि का माना जाता रहा है। पहले तो उन्हे शिक्षा ग्रहण करने की आजादी भी नहीं थी।
स्वतंत्रता पश्चात कानून का शासन लागू होने के बाद स्त्रियों की समाजिक, आर्थिक उन्नति अवश्य हुई है, किन्तु उनके प्रति कलुषित असांस्कृतिक सोच नहीं बदली है। आज भी हमारे समाज का एक बड़ा तबका यह सोचता है कि स्त्री उसकी जागीर है। इसकी बानगी हर मोर्चे पर दिख जाती है। प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के पश्चात प्रशासनिक सेवा के लिये चुनी गयी स्त्री के नीचे काम करने पर पुरूष को शर्म आती है। उसे विभागीय प्रोन्नति पाने के लिये नाकों चने चबाने पड़ते हैं। ज्यादातर सहकर्मी सदैव उसे वासना की दृष्टि से ही देखते हैं। सरकारी विभाग में उच्च पदों पर होने के बावजूद घर में उसे पति और सास-ससुर के नियंत्रण में रहना पड़ता है। आमतौर पर ऐसी स्त्रियों का कामकाज भी उनके पतियों द्वारा नियंत्रित करते देखा गया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजनीति है। जहाँ नाम के लिये चुनकर तो महिलाये जाती हैं लेकिन सारा कार्यभार पति ही उठाता है।
कहने का तात्पर्य यही है कि समाज में स्त्रियों को पुरूषों से कमजोर माना जाता रहा है। उनके शीरीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक क्षमता को कम करके आँका गया है। उसकी कोमलता को उसकी कमी माना गया है। और यह वही सोच है जो दो कौड़ी के पुरूष को, किसी महिला डाक्टर, इंजीनियर, वकील, लेफ्टीनेंट, जज इत्यादि के ऊपर अत्याचार करने का बढ़ावा देता है।