Thursday, December 22, 2011

कुछ देर पहले ही मैं कक्षा 8 की अंक तालिका ( मार्कशीट) बनाकर खाली हुआ हूँ और मौका मिलते ही मैने ब्लाग लिखना ज्यादा अच्छा समझा। हालाँकि इस समय रात के 12.20 हो रहे हैं लेकिन फिर भी अंकतालिका बनाते समय जो भाव मन में नदी के अनियंत्रित लहरों की भाँति ऊपर नीचे हो रहे थे उनका शब्दों के रूप में अभिवयक्तिकरण होना नितान्त आवश्यक है। क्वार्टर्ली इग्जामिनेशन में मैं कक्षा 8 का कक्षाध्यापक नहीं था किन्तु फिर भी मैने एक बार क्लास में जाकर श्रेणी लाने वाले छात्रों के बारे में जाना था। मजेदार बात है और यकीनन खुशी की भी कि, पिछले बार के कुछ ही छात्र अपना स्थान बचा पाने में सफल हुये हैं। यह नवीन प्रवृत्ति दिखाती है कि आजकल कक्षाओं में कितनी प्रतिस्पर्धा चल रही है। ज्ञान के मामले में यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा यकीनन उत्साहजनक है जो छात्रों में प्रतियोगिता का वातावरण उत्पन्न करती है। हालाँकि परीक्षाफल 24 दिसंबर को दिखाया जायेगा लेकिन कुछ छात्रों और छात्रों के प्रदर्शन से मैं बहुत खुश हूँ, जिसमें विकेश पाल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। स्मरणीय है कि विकेश क्लास के सबसे कमजोर छात्रों में गिना जाता है, लेकिन अर्धवार्षिक परीक्षा के अंको ने मुझे आश्चर्यचकित औऱ प्रसन्नचित्त, दोनो किया है। अंकों के विषय में तो आने वाला 24 दिसंबर ही बतायेगा लेकिन मेरी ओर से कक्षा 8, अ और स, दोनों वर्गों के छात्र और छात्राओं को ढ़ेर सारी शुभकामनायें। मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि भविष्य में भी इसी तरह मेहनत करके वे तय किये गये सारे लक्ष्यों को प्राप्त करके देश के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं।
कक्षाध्यापक
कक्षा 8
सेन्ट जोसेफ्स स्कूल
चौक रोड, महराजगंज 
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Saturday, December 17, 2011

जहरीली शराब और लोगों की जान....जान बूझकर अंजान बनती सरकार


पश्चिम बंगाल में जहरीली शराब पीने की वजह से 111 लोगों की जान गई।
 घटना 14 दिसंबर 2011 की है जब पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में जहरीली शराब पीने की वजह से सैकड़ों की लोगों की मौत हुई। भारत का इतिहास ऐसी घटनाओं से खाली नही है और ना ही खाली है ऐसे लोगों से जो इन घटनाओं के लिये जिम्मेदार होते हैं।
मृत लोगों की संख्या में और भी बढ़ोत्तरी हो सकती है क्योंकि ळघभग 50 आदमी अभी भी दुआओं और इच्छाशक्ति के कमजोर धागों से बंधे जिंदगी और मौत के झूले में झूल रहे हैं। इन लोगों ने मगराहट नामक स्थान पर नकली शराब पी ली थी। सवाल ये उठता है, हालाँकि हम वर्तमान में ऐसे हजारों सवालों से जूझ रहे हैं और कोई रास्ता न देखकर मुँह ढ़ाँपकर सो जा रहे हैं कि इन मौतो का जिम्मेदार कौन है....क्या वे जिन्होने शराब पी और अपनी मौत बुला ली। पहली नजर में देखने से तो यही लगता है कि अपनी मौतों के जिम्मेदार वे बदनसीब खुद हैं। लेकिन नहीं यह सही नही है कि अपनी मौतों के लिये वे जिम्मेदार हैं, जिम्मेदार है हमारी सरकार जो ऐसे अवैध ठेकों को रोक नही पाती है, सारी शक्तियों और ठिकानों की जानकारी के बावजूद भी हमारी पुलिस क्यों नही ऐसे लोगों पर शिकंजा कस पाती है। आबकारी विभाग वाले क्यों नही उनका कुछ बिगाड़ पाते हैं। ये तो भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि पुलिस और हर वो सरकारी विभाग जिसकी जिम्मेदारी जनता की सुरक्षा करने की बनती है, कुछ पैसों के लालच में वे उसी की जिंदगी का सौदा करने से नही हिचकिचाते। भारत में साँप के गुजर जाने के बाद लकीर पीटने की प्रथा बहुत पुरानी है जिसके चलते भारत विनाश के खाई में दिन-प्रतिदिन और निकट जाता प्रतीत होता है। अभी उसी राज्य में कुछ दिनों पूर्व ही एक अस्पताल में लगी आग की वजह से सैकड़ों लोग मारे गये गये थे। क्या अग्निशमन अधिकारियों द्वारा एक बार अनापत्ति प्रमाणपत्र देने के बाद उसके पुनः जाँच की जिम्मेदारी नही बनती। बनती है, जरूर बनती है जिसके आधार पर ही अस्पताल हर महीने उस तरह के कइयों विभागों में मासिक नजराना महीने के शुरुआत में पहुँचा दिया करता होगा। अब दुर्घटना हो गई तो सिर्फ अस्पताल के प्रबंधकों को दिखावे के लिये पकड़ना इन जैसी मुसीबतों से बचने के उपायों के लिये किये जा रहे प्रयासों के क्रम में एक खानापूर्ति ही है। अगर वाकई गुनाहगारों को सबक सिखाना है तो उन सभी अधिकारियों को कानून के फंदे में लाना ही होगा जो किसी भी तरह से उस अस्पताल की सुरक्षा उपायों से जुड़े थे। अस्पताल में भर्ती मरीज भी कम दोषी नही हैं जो बेसमेंट में लगे हुये सामानों के ढ़ेर को देखकर भी चुप रहे। लेकिन इस तरह की जागृति भारत में अभी दूर की कौड़ी है। दुर्घटना चाहे किसी भी तरह की हो, उसके घटने के लिये सिर्फ स्थानीय लोग ही जिम्मेदार नही होते। इंसान स्वभाव से ही लालची होता है। कुछ पैसे बचाने के लिये वह दूसरे को धोखा देने में बिलकुल ही नही हिचकिचाता, लेकिन हमारे जनता के सेवकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी सेवा देने के बदले प्राप्त किये जाने वाले मूल्य की कुछ तो हलाली दिखायें।

बच्चों पर एन सी ई आर टी के सर्वे में उत्तर प्रदेश के बच्चे सबसे आगे, दिल्ली, तमिलानाडु को भी पछाड़ा-
यू पी के नौनिहालों का ज्ञान देशा के बाकी बच्चों से बेहतर है।

दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Thursday, December 15, 2011

अनोखे कण की झलक

पहले लग रहा कि सफलता की गुंजाइश बहुत कम बची है यूरोपीय परमाणु शोध संस्थान (सर्न) का लार्ज हैड्रोन कोलाइडर (एल एच सी) परियोजना विज्ञान के इतिहास की सबसे विशाल, सबसे मँहगी और सबसे महत्वाकाँक्षी परियोजना है औऱ इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसे सूक्ष्म कण का पता लगाना था, जिसका अस्तित्व वैज्ञानिकों के लिये सिर्फ सैद्धांतिक गणित में था। इस कण का नाम हिग्ज बोसान है और अगर यह नही मिलता तो सूक्ष्म कणों की भौतिकी के सारे नियम उलट पलट हो जाते। लेकिन अभी यह खबह आयी है कि एल एच सी के दो मापक यंत्रों ने उस कण का पता लगा लिया है जो संभवतः हिग्ज बोसान है। अभी और प्रयोंगो से ही इस बात की पुष्टि हो पायेगी लेकिन वैज्ञानिक इस सफलता से काफी उत्साहित हैं क्योकि भौतिकशास्त्र की सबसे बड़ी खोंजों में से यह एक होगी। जाहिर है, हिग्ज बोसान का अस्तित्व सिद्ध नही होता तब भी यह भौतिकी इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक होती। बोसान कुछ खास किस्म के एटामिक कणों को कहते हैं जिनका नामकरण महान भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के नाम पर किया गया है।1960 के दशक में अंगरेज भौतिकशास्त्री पीटर हिग्ज और उनके सहयोगियों ने हिग्ज बोसान की अवधारणा प्रस्तुत की। इस अवधारणा के मुताबिक विभिन्न सूक्ष्म कणों की संहति या भार इस विशिष्ट कण की वजह से होता है। यानि हिग्ज बोसान की खोज के साथ ही परमाणु भौतिकी का वह माडल पूरा हो गया जिसे स्टैंडर्ड माडल कहते हैं और जिसके आधार पर प्रकृति में पाये जाने वाले तमाम सूक्ष्म कणों और बलों के कार्य-कारण की व्याख्या हो सकती है, सिवाय गुरुत्वाकर्षँण के। सैद्धांतिक रूप से तो यह माडल सही था लेकिन इसको पूरी तरह से सही तब कहा जा सकता था जब इसकी प्रायोगिक स्तर पर तस्दीक हो सके।
आधुनिक भौतिक शास्त्र में सबसे मुश्किल काम प्रयोगों से कुछ सिद्ध करना है। क्योंकि हम या तो बहुत विराट शक्तियों और प्रकाश वर्षों के आमने सामने होते हैं या अत्यंत सूक्ष्म कणों और सेकेंड के हजारों-हजारवें हिस्से से हमारा साबक पड़ता है। इस स्तर की नाप-जोख अक्सर असंभव ही साबित होती है। हिग्ज बोसान कोई आसानी से दिखने वाला कण नही है, उसका अस्तित्व इतने कम समय  के लिये होता है कि उसके सामने एक सेकेंड भी कई युगों के समान लगे। फिर वह आसानी से स्वतंत्र रूप में मिलने वाला भी नही।  इसलिये वेज्ञानिकों ने ये तय किया कि सृष्टि के आरंभ  यानि बिग बैंग जैसी परिस्थितियाँ पैदा की जाय। एल एच सी में फ्रांस और स्विट्जरलैण्ड की सीमा पर धरती से 174 मीटर नीचे और 27 किमी लंबी सुरंग है, जिसमें बहुत तेजी से सूक्ष्म कणों को आपस में टकराया जाता है। सैकड़ों बेहद सूक्ष्म संवेदी मापक हर हलचल को रिकार्ड करते रहते हैं औऱ दुनिया में बैठे वैज्ञानिक अपने-अपने कंप्यूटरों पर इस जानकारी का विश्लेषण करते रहते हैं। इसी प्रयोगों के दौरान उन न्यूट्रिनों का भी पता चला था जिनकी गति संभवतः प्रकाश की गति से भी ज्यादा तेज है। अगर हिग्ज बोसान न भी मिलता तब भी इस प्रयोग से इतनी जानकारी मिल ही रही थी जो वैज्ञानिकों को वर्षों तक व्यस्त रखती। प्रयोग 2008 में शुरू हुआ था और धीरे-धीरे हिग्ज बोसान की खोज का दायरा सिमट गया। वैज्ञानिक यह सोचने लगे थे कि कणों को वजनदार बनाने वाला वह कण नही मिला तो फिर क्या संभवनायें हो सकती है। लेकिन दे डिटेक्टरों से संकेत मिलने पर अब फिर उत्साह लौटा है। जल्द ही यह घोषणा हो सकती है कि पीटर हिग्ज ने जो सोचा था, वह सही निकला।
हिंदुस्तान अखबार, संपादकीय- 15-12-2011 से साभार
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Friday, December 9, 2011

ठंड की शुरूआत

 दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।
जब बादलों ने धरती से अपना पुराना हिसाब चुकाने का अच्छा समय देखकर सूर्य देव से साँठ-गाँठ की और चुपके-चुपके एक समझौता करके धरती की गपशप की साथिन धूप को चौखट पार नही करने दिया तब बेचारी सीधी-सादी धूप बादल और सूर्य के जाल में फँसकर अपनी सहेली से मिल नहीं पायी और गुस्से में सूर्य को गालियाँ देने लगी...लेकिन कुछ हो नही पाया। बादल कुछ ज्यादा ही चालाक निकला और उसने धरती को ताना मारा अब तुम्हारी सारी हेकड़़ी निकल जायेगी जब बच्चों जैसे तुम्हारे पशु-पक्षी-पेड़-पौधे और यहाँ तक कि मनुष्य भी त्राहि-त्राहि करने लगेंगे। तब धरती ने कहा-
धरती-
तुम जैसे पाषाण हृदय दूसरों का दर्द क्या समझेंगे, जिनका अपना कोई घर नही, कोई परिवार नही वे लोग तो दूसरों को तकलीफ देकर अपने लिये खुशी तलाशने की बेवकूफी जीवन पर्यंत करते रहते हैं।
बादल-
मेरा कोई घर नही इसलिये मैं निश्चिंत रहता हूँ...मुझे परिवार का डर नही सताता और न ही मुझे अपने संबंधियों के लिये कोई चिंता करनी पड़ती है...अगर इस स्वतंत्रता और बेफिक्री के आनंद से तुम वंचित हो तो इसमें कोई आश्चर्य नही कि तुम इर्ष्या के दावानल में जलती रहो।
धरती-
जिस घर के न रहने से तुम निश्चिंत रहते हो, जिस परिवार के भरण-पोषण का डर तुम्हे दिन रात सताता रहता है औऱ जिन संबंधियों के न होने से तुम बेफिक्र रहते हो उसके पास होने के सुकून और शांति से तुम कोसों दूर रहे हो ठीक उसी तरह जैसे चंद्रमा से चातक दूर रहता है।
बादल-
चातक अपनी बेवकूफी की वजह से कष्ट भोगता है वरना प्यास तो किसी भी जल से बुझ सकती है।
धरती-
तुम जैसे बेवकूफ जीवन भर यही सोचते रहेंगे कि चातक प्यास बुझाने के लिये स्वाति की बूँद का इंतजार करता है।

Friday, November 25, 2011

महराजगंज के निवासियों के लिये एक नया नाम

मेरी हमेशा से यही सोच रही है कि काश मैं अपने छोटे से कस्बे के लिये कुछ ऐसा कर पाता कि इसकी भी पहचान देश और विश्व स्तर पर हो सकती। फिलहाल ऐसा अभी हो तो नही पाया लेकिन कोशिश अभी जारी है और यकीनन भविष्य में यह होगा जरूर भले ही उसका कारण मैं ना रहूँ।
फिलहाल तो मैने कुछ देर पहले अपने यातायात वाले पोस्ट को कुछ दोस्तों के ईमेल आईडी पर भेजा जिसे भेजते हुये मैसेज वाले बाक्स में मैनें अचानक ही लिख दिया कि...plz fwd this to all maharajas...यह लिखते ही अचानक ही ख्याल आया कि अगर मुंबई के मराठी लोग मुंबईकर हो सकते हैं....दिल्ली के दिलवाले हो सकते हैं...पंजाब के पंजाबी हो सकते हैं....केरल के मलयाली हो सकते हैं तो महराजगंज के Mahrajas क्यों नही हो सकते हैं। जरूर हो सकते हैं यह नाम महराजगंज के निवासियों के लिये और भी प्रासंगिक है क्योंकि यहाँ के निवासियों जैसी अमन पसंद जनता शायद ही कहीं हो...हम भले ही विकास के टट्टू पर बैठकर ही अपनी यात्रा पूरी करने की कोशिश कर रहे हों और शेष भारत के तेज कदमों से कदम मिलाकर ना चल पा रहे हों लेकिन हममें एक बात तो है जो औंरों से अलग करती है और वह है हमारी मेहनत से उगाई गई अनाज की बोरियाँ, धान और गेहूँ के रिकार्ड उत्पादन से लाखों भारतवासियों को मिल रहा भोजन, सांप्रदायिक सौहार्द से की मिसाल कायम करती यहाँ की सहिष्णु जनता जो दिल से राजा ही नही महाराजा है....हम पेट भरते हैं..लेकिन हमारे पेट पर उत्तर प्रदेश से बाहर लात मारी जाती है...हम यहाँ पर सबका सम्मान करते हैं, आने वालों की इज्जत करते हैं जबकि बाहर वाले हमें भिखारी कहकर दुत्कारते हैं और हमें हमारा हक देने से कतराते हैं...हम दिल्ली की सरकार बनाते हैं लेकिन वही सरकार हमें मू्र्ख बना देती है....हम आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं लेकिन हमें पिछड़ा कहकर पीछे धकेल दिया जाता है....हम फिर भी आगे बढ़ने की कोशिख कर रहें है आज नही तो कल वह वक्त आयेगा जब यहाँ के लड़के अंग्रेजी नाम की विदेशी चाबुक को अपने हाथ में लेकर विकास नाम के बिगड़ैल घोड़े को मार-मारकर यहाँ पर लायेंगे और उसे सड़कों नही जुते हुये खेतों में दौड़ायेंगे... तब ना केवल राज ठाकरे जैसे लोग बल्कि चिदंबरम जैसे लोग भी मानने के लिये बाध्य होंगे कि हम ही हैं महाराजा....।
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

अतिक्रमित सड़कों पर अनियंत्रित यातायात से जूझता महराजगंज

2001 की दीपावली की पूर्व संध्या (जिसे धनतेरस के नाम से भी जाना जाता है) पर महराजगंज में टू व्हीलर की बिक्री के आकड़ें अगले दिन अखबार में पढ़ते हुये एक बारगी विश्वास ही नही हुआ कि यहाँ पर ऐसा भी हो सकता है। धनतेरस के दिन यहाँ पर एक करोड़ की बाइक्स बिकी थीं। महराजगंज को करीब से जानने वालों के लिये य़ह खबर चौंकाने वाली हो सकती है, लेकिन असल चौंकाने वाली चीज तो दूसरी है। जितनी तेजी से यहाँ पर बाइक्स की बिक्री हो रही है उसका दूसरा पहलू यहाँ की गलियों जैसी पतली सड़कों पर देखने को मिलता है जो पहले से ही दुकानदारों के अतिक्रमण से बेहाल हो रही हैं। उस पर कोढ़ में खाज वाली स्थिति यहाँ पर बाइपास की कमी कर देती है जिसके न होने की वजह से ट्रक और बस जैसे भारी वाहनों को मुख्य कस्बे से होकर जाना पड़ता है और नतीजन ट्रैफिक जाम जैसी समस्या से दो चार होना वर्तमान महराजगंज कस्बे की नियति बन चुकी है। बात यहीं तक सीमित रहती तो गनीमत थी लेकिन स्थिति बहुत ज्यादा तकलीफदेह तब हो जाती है जब स्कूलों की छुट्टियाँ होती हैं और सभी मुख्य़ स्कूलों की बसें एक ही रास्ते से होकर आने जाने का प्रयास करती हैं। अगर ठीक उसी समय कुछ ट्रक भी आ गये तो हो गया बंटाधार। इसी अफरा तफरी के माहौल में मामला बिगड़ता है और कोई न कोई अनहोनी घट ही जाती है जब, स्कूल से लौट रहा छोटा बच्चा या फिर बच्ची, अपने आपको संभाल नही पाते और अनियंत्रित होकर किसी वाहन के चपेट में आ जाते हैं। अभी हाल में ही कुछ दिनों  पहले मऊपाकड़ में एक स्कूली छात्रा की ट्रक के चपेट में आ जाने की वजह से दर्दनाक मौत हो गई।
महराजगंज कस्बे में नवंबर का महीना यातायात महीने के रूप में मनाया जाता है लेकिन आँकड़े कहते हैं कि 1 नवंबर से 20 नवंबर तक के बीच में यहाँ दुर्घटना की वजह से 18 मौतें हो चुकी हैं जिसमें कस्बे में चार शामिल हैं।
अभी डेढ दो महीने पहले मेरे स्कूल के एक छात्र का भी एक्सीडेन्ट हो गया पर सौभाग्य से वह बच गया और उसे हल्की-फुल्की चोंटे ही आयीं फिलहाल तो वह आराम कर रहा है। कुछ महीने पहले मेरे सामने ही एक वृद्ध आदमी अनियंत्रित होकर एक ट्रक के पिछले पहिये पर ही गिर पड़ा लेकिन उसकी किस्मत बहुत अच्छी थी कि वह सही सलामत बच गया। ये सारे आकडे़ं बताते हैं कि महराजगंज की सड़कें सुरक्षित नही रह गई हैं विशेषकर बच्चों और वृद्धों के लिये।
जनता की बढ़ रही क्रय क्षमता का असर सड़कों पर विशेष तौर पर दिख रहा है जहाँ पर साइकिलों से ज्यादा मोटरसाइकिलें दिख रही हैं। अनियंत्रित गति से बढ़ रही बाइकों की संख्या चलाने वालों की धैर्य क्षमता पर भी असर डाल रही है जिसकी वजह से जल्दी निकल जाने की कोशिश भी बढ़ती जा रही है। हमारे कस्बे में भविष्य में यह समस्या और भी गंभीर होने वाली है क्योंकि यहाँ पर न तो कोई यातायात नियम का अनुसरण करता है और न ही इसके लिये कोई दिल से कोशिश करता है। पर जब हम अपने बच्चों के बारे में सोचते हैं तो हमें फिक्र होनी ही चाहिये कि क्या ऐसा नही हो सकता है कि सड़कों से इस दबाव को कम किया जा सके।
आज सड़क पर चलने में स्वयं बचकर चलना ही हमारी सुरक्षा की गारंटी नही रह गई है जब तक कि हम हर आने जाने वाले से बचकर नही चलें। मेरे लिये सबसे बड़ी हैरत की बात पिछले दिनों रही जब मुझे सरोजनी नगर वाली गली से निकल कर मुख्य सड़क पर आने के बाद हनुमान गढ़ी तक आने में लघभग 15 से 20 मिनट लग गये। 26 साल तक महराजगंज में रहते हुये पहली बार यह अहसास हुआ कि हालात बड़ी तेजी के साथ बदल रहे हैं अगर हमने कुछ नही किया तो स्थिति और भी खराब हो जायेगी। मँहगाई की सुरसा से निकलने की कोशिश में बाइक पर रेंगते हुये उस दिन मुझे लगा कि बाइक में मेरा पेट्रोल नहीं बल्कि मेरा खून जल रहा है।
काफी दिन से सोच रहा हूँ कि अब बाइक से स्कूल जाना छोड़ ही दूँ...लेकिन यह दिखावे की प्रवृत्ति मेरी दुश्मन बनी हुई है...देखता हूँ कि कब इसे छोड़कर महराजगंज की कमनीय बाला के कटि प्रदेश सदृश पतली सड़कों पर अपनी बाइक सदृश छोटे चींटे के रेंगने कि गति को शांत कर सकता हूँ, इसका दूसरा अच्छा पहलू यह होगा कि अपने देश के लिये मैं हर महीने लघभग 5 लीटर पेट्रोल बचा सकता हूँ.....।
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Wednesday, October 26, 2011

शिब्बनलाल सक्सेना


शिब्बनलाल सक्सेना, महराजंगज के मसीहा के रूप में प्रसिद्ध। जन्म 13 जुलाई 1906 में आगरा के गोकुलपुरा नामक मुहल्ले में अपने मामा के घर पर। बरेली में आवला तहसील, बल्लिया नामक गाँव के मूल निवासी जिन्होने महराजगंज के विकास के लिये अपना पूरा जीवन लगा दिया। पेशे से डिग्री कालेज के अध्यापक शिब्बन लाल सक्सेना ने 1932 में अपने अध्यापन कार्य से इस्तीफा दे दिया और महात्मा गाँधी के आह्वान पर पूर्ण रुप से नेशनल मूवमेंट में हिस्सा लेकर महराजगंज के किसानों और यहाँ के मजदूरों को इसमें हिस्सा लेकर आंदोलन को मजबूत बनाने के लिये प्रेरित किया। मृत्यु 20 अक्टूबर 1985 को महराजगंज में।
 
== '''प्रारंभिक जीवन''' ==
शिब्बनलाल सक्सेना का जन्म 13 जुलाई 1906 में अपने मामा के घर आगरा के गोकुलपुरा नाम के मुहल्ले में हुआ। इनके पिता का नाम श्री छोटेलाल सक्सेना था जो पोस्टमास्टर थे। इनकी माता का नाम बिट्टीरानी था। दादाजी का नाम नारायणदास था जिनके तीन बेटे- श्यामसुन्दर, छोटेलाल तथा रामप्रीत थे। शिब्बनलाल का परिवार अपने जमाने में बल्लिया का एक समृद्ध परिवार था जिसकी वजह से उसका गाँव में काफी सम्मान था। सबकुछ ठीक-ठाक चलता अगर शिब्बनलाल की माता का देहांत सात साल की उम्र में और उसके डेढ़ साल बाद ही पिता का भी देहांत नही होता। बालक शिब्बनलाल और उनके दो छोटे भाई-बहन होरीलाल और प्रियंवदा को उनके मामा दामोदार लाल सक्सेना ने सहारा दिया और अपने साथ कानपुर ले गये जहाँ पर वह स्वयं वकालत करते थे। शिब्बनलाल की प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा कानपुर में ही हुई। शिब्बनलाल प्रारंभ से ही काफी मेधावी छात्र रहे थे जिसके फलस्वरूप उन्होने अपनी सारी परीक्षायें न केवल प्रथम श्रेणी में बल्कि स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की थीं। कानपुर में शिब्बनलाल को अपने सामर्थ्य से कहीं अधिक की सुविधायें प्रदान करने के बाद दामोदर लाल ने उन्हे उच्च शिक्षा के लिये इलाहाबाद विश्वविद्यालय भेजा जहाँ से शिब्बनलाल ने 1927 में अपनी बी. ए. की परीक्षा गणित और दर्शन शास्त्र विषयों के साथ स्वर्ण पदक के साथ उत्तीर्ण की। 1929 में इन्होंने एम. ए. की परीक्षा स्वर्ण पदक प्राप्त करते हुये गणित विषय के साथ उत्तीर्ण की। शिब्बनलाल शुरू से ही स्वराज आंदोलन से काफी प्रभावित थे जिसकी वजह से वह हमेशा ही लोगों की नजरों में चढे रहे। विश्वविद्यालय में एक बार किसी उत्सव में भाग लेने पहुँचे शिब्बनलाल ने शेरवानी पहना था जिसे देखकर प्राचार्य ने उन्हे देशी पहनावा पहनने के लिये टोक दिया। शिब्बनलाल ने उसी समय से अंग्रेजी वेश-भूषा को अलविदा कह दिया और आजीवन धोती और कुर्ता ही पहनते रहे। सन् 1930 में शिब्बनलाल गोरखपुर के सेन्ट एण्ड्रूयूज कालेज में गणित के प्रवक्ता के रुप में नियुक्त हुये और 1931 में उन्होने आगरा विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र विषय से एम. ए. की डिग्री ली। शिब्बनलाल पढ़ाई के साथ-साथ खेलों को भी पूरा महत्व देते थे और यह मानते थे कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का विकास होता है।  वे पहलवानी करते थे और विश्वविद्यालय में फुटबाल टीम के कप्तान थे।

== पहली गिरफ्तारी ==
कानपुर में रहते हुये ही शिब्बनलाल आजादी की लड़ाई का महत्व समझने लगे थे और स्वराज आंदोलन में अपनी उपस्थिति दर्शाने लगे थे। सन् 1919 में हुये जलियावाला कांड ने जब पूरे भारत को हिला कर रख दिया तब कानपुर में शिब्बनलाल ने भी 13 साल की उम्र में एक विरोध जुलूस का नेतृत्व किया और पकड़े गये। उस समय उन्हे तीन बेतों  की सजा मिली जिसने शिब्बनलाल का विश्वास और भी मजबूत बना दिया और आजादी के लिये लड़ी जा रही लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये प्रेरित किया।

== महात्मा गाँधी से मुलाकात और स्वतंत्रता की लड़ाई के लिये प्रेरणा ==
सन् 1930 में शिब्बनलाल सेंन्ट एण्ड्रूयूज कालेज में गणित के प्रवक्ता नियुक्त हुये और उन्होने यहीं से कारखाना मजदूरों को एकत्र करके कारखाना मालिकों की मनमानी का विरोध करना शुरु कर दिया। उसी दौरान महात्मा गाँधी एक सभा में भाषण देने के लिेय गोरखपुर आये हुये थे। गाँधी जी से शिब्बनलाल की पहली मुलाकात यहीं हुई और गाँधी जी ने उन्हे कांग्रेस में आने का न्यौता दिया जिसे शिब्बनलाल ने स्वीकार कल लिया। इसी घटना के कुछ दिनों के बाद ही शिब्बनलाल कांग्रेस के एक अधिवेशन में भाग लेने के लिये बनारस पहुँचे जहाँ पर गाँधी जी ने एक बड़ी ही हृदयविदारक घटना के बारे में बताया जिसने शिब्बनलाल को पूरी तरह झकझोर दिया और शिब्बनलाल ने महराजगंज जाने का निर्णय लिया। अखबार में निकली एक खबर के अनुसार महात्मा गाँधी ने बताया कि महारजगंज में जमींदारों ने राजबली नाम के एक किसान को जिंदा जला दिया है। गाँधी जी ने उस समय उपस्थित लोगों से महराजगंज की दयनीय हालत के बारे में चर्चा की और किसी को वहाँ जाकर जागृति फैलाने का अनुरोध किया। कोई जाने के लिये तैयार नही हुआ अंत में शिब्बनलाल ने महाराजगंज जाकर वहाँ के लोगों के एक करने का बीडा़ उठाया और गाँधी जी से आशीर्वाद लेकर अपने प्रवक्ता पद से इस्तीफा देकर महराजगंज आ गये।
== शिब्बनलाल और महराजगंज ==
वर्तमान में उत्तर प्रदेश का एक जिला महारजगंज उस समय गोरखपुर जिले का एक तहसील था जहाँ पर किसी भी प्रकार की कोई सुविधायें नहीं थीं। चारों ओऱ जमींदारों का आतंक छाया हुआ था जिनके खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी में नही थी। ऐसे समय में जब शिब्बनलाल यहाँ आये तो उन्हे अपने साथ काम करने के लिये लोगों को इकट्ठा करने में ही तमाम परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। शुरुआती दौर में उन्होने गाँव-गाँव जाकर प्राथमिक स्तर पर लोगों का संगठन खड़ा किया और उन्हे जमींदारो के खिलाफ तैयार किया। उस समय गन्ना यहाँ की प्रमुख फसल थी जिसके किसानों के हक के लिये उन्होने 1931 में ईख संघ की स्थापना की जिसका अस्तित्व आज भी है और जो सबसे पुराने संघों में से एक है। आगे चलकर ईख संघ के आंदोलनों की वजह से ही केंन्द्रीय विधान सभा को गन्ना एक्ट लागू करना पड़ा था। शिब्बनलाल ने अपनी सफल हड़तालों की वजह से गन्ने का तत्कालीन मूल्य दो आना प्रति मन से पाँच आना प्रति मन करा दिया था।
== विभिन्न किसान और मजदूर आंदोलन ==
महराजगंज में उस समय कृषि के अलावा ऐसा कुछ नही था जिसके लिये इसे जाना जा सके। यही वजह थी कि शिब्बनलाल ने यहाँ आते ही यह समझ लिया था कि यहाँ के किसानों में जागृत फैलाये बिना यहाँ का विकास असंभव है जिसके लिये उन्होने पहले किसानों को ही एक करना प्रारंभ किया। उस समय जमींदार ही उन सारी जमीनों के मालिक होते थे जिसे किसान जोतते थे और अन्न उगाते थे। किसान अपनी उपज का अधिकांश हिस्सा जमींदारों को लगान के रुप में दे देते थे। जिससे उनकी हालत में कोई सुधार नही हो रहा था। गन्ना किसानों की बेहतरी के लिये उन्होने गन्ना उत्पादन नियंत्रण बोर्ड की भी स्थापना की। जिस समय पूरा भारत गाँधी जी के अहिंसा मार्ग पर चलते हुये आजादी का सपना देख रहा था उसी समय महराजगंज शिब्बनलाल के नेतृत्व में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन की शुरुआत में तत्पर था। 1937 से लेकर 1940 तक शिब्बनलाल ने विभिन्न किसान आंदोलनो से अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया जिसकी वजह से सरकार को जमीनों का एक बार फिर से सर्वे कराना पड़ा और जमीनों का पुनः आबंटन करना पड़ा। यह वही व्यवस्था थी जिसकी वजह से तत्कालीन महराजगंज के एक लाख पच्चीस हजार किसानों को उनकी जमीनों पर मालिकाना हक प्राप्त हुआ और किसानों को जमींदारों के चंगुल से आजादी मिली। अखबारों ने शिब्बनलाल को पूर्वी उत्तर प्रदेश का लेनिन कहकर संबोधित किया था। किसानों की जमीनों पर मालिकाना हक की इस व्यवस्था को '''गण्डेविया बंदोबस्त''' कहते हैं। शिब्बनलाल ने न केवल किसानों के हित के लिये बल्कि कारखाना मजदूरों के बेहतरी के लिये काम किया। उस समय महाराजगंज प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्र था जसकी वजह से इसके विभिन्न उपक्षेत्रों जैसे-घुघली, सिसवां, फरेन्दा इत्यादि में चीनी मिलें अपनी उन्नत अवस्था में थीं लेकिन इनके मजदूरों की हालत बड़ी खराब थी। शिब्बनलाल ने इन मिलों में मजदूर एशोसियेशन बनाये औऱ इनके मालिकों के अत्याचारों पर लगान लगाई। अपने विकास के कार्यों और फौलादी इरादों की वजह से शिब्बनलाल इस क्षेत्र के लिये मसीहा बनकर उभरे जिसकी वजह से यहाँ के जमींदारों ने उनके खिलाफ तरह-तरह के षडयंत्र करना प्रारंभ कर दिया। किसानों के लिये शिब्बनलाल का नारा हुआ करता था कि अपने खेत के मेड़ पर डटे रहों, उसे हरगिजन नही छोड़ो।
== शिब्बनलाल और जमींदारों के षडयंत्र ==
1940 तक आते-आते शिब्बनलाल जमींदारों के लिये आँख की किरकिरी बन चुके थे जिसे निकालना उनके लिेये आवश्यक हो गया था। शिब्बनलाल पर जमींदारों और पुलिस का मिलाजुला पहला सशक्त हमला 1942 में हुआ जिसमें शिब्बनलाल बचकर तो निकल गये लेकिन उनके तीन कार्यकर्ता शहीद हो गये। शहीदों की याद में विशुनपुर गबड़ुआ नामक गाँव में एक शहीद स्मारक भी बना हुआ है। शहीदों में सुखराम पुत्र बेचन कुर्मी तथा झिनकू पुत्र मानिक कुर्मी थे। एक व्यकित की मृत्यु इलाज कै दौरान हुई थी। घायलों में सोमदेव, जनकराज, त्रिलोक, तिलकधारी, रामधारी, शिवदत्त, सरजू, हरिवंश, रामजतन, नगई आदि थे। यहाँ से निकलने के बाद शिब्बनलाल को आखिरकार गोड़धोवा गाँव के बाहर उसी गाँव के जमींदार ने पकड़ लिया क्योंकि वह शिब्बनलाल पर घोषित किये गये पुरस्कार को लेना चाहता था। जब गोड़धोवा गाँव के जमींदार ने शिब्बनलाल को अपने आंगन में पकड़कर रखा था तो उसी समय हरपुर महंथ का काजी वहाँ पर पहुँचा और उसने शिब्बनलाल सक्सेना को माँगा जिसे न देने पर काजी ने जमींदार को गोली मार दी और उसकी वहीं पर मृत्यु हो गई। हरपुर मरंथ ने शिब्बनलाल को गोरखपुर के तत्कालीन कलेक्टर ई. वी. डी. मॉस को सौंप दिया जहाँ से शिब्बनलाल को फाँसी की कालकोठरी में डाल दिया गया जहाँ पर वह छब्बीस महीनों तक रहे और उन पर ना जाने कितने अत्याचार किये गये जिसकी वजह से शिब्बनलाल की ठीक तरह से बोलने की शक्ति जाती रही। मॉस ने शिब्बनलाल को फाँसी पर चढ़ाने का पूरा बंदोबस्त कर रखा था जिससे शिब्बनलाल को बचाया मॉस के एक पत्र ने जिसे उसने नैनीताल में रहने वाली अपनी पत्नी के नाम लिखा था। पत्र में उसने शिब्बनलाल को गालियाँ दी थीं और उनके बारे में सच्चाई लिखी थी। जब मॉस ने वह पत्र अपने चपरासी को पोस्ट करने के लिये दिया तो उस चपरारी ने उसे पोस्ट न करके पत्र शिब्बनलाल को पहुँचा दिया। उसी पत्र की बदौलत शिब्बनलाल जेल से बाहर आ सके। हालाँकि कहा यह भी जाता है कि शिब्बनलाल को जेल से निकलवाने में जवाहर लाल नेहरू की भूमिका रही थी।
== '''महराजगंज में शिक्षा की शुरुआत''' ==
1940 से पहले महराजगंज में कोई स्कूल नही था और चारों तरफ अशिक्षा का बोलबाला था। मुश्किल से ही कोई पढ़ालिखा व्यक्ति मिलता था। शिब्बनलाल ने अशिक्षा की कमी से होने वाली समस्या को समझा और 1940 में यहाँ का पहला स्कूल अपने राजनीतिक जीवन के प्रथम गुरू गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर खोला। जिसका वर्तमान नाम गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक इंटरमीडियेट कालेज है। 13 मार्च 1965 में शिब्बनलाल ने यहाँ का पहला डिग्री कालेज जवाहर लाल नेहरू के नाम पर खोला। इसके बाद 24 मार्च 1972 में उन्होने दूसरा डिग्री कालेज लाल बहादुर शास्त्री के नाम पर खोला। शिक्षा के क्षेत्र में शिब्बनलाल द्वारा जलायी जाने वाली अलख का अंत यहीं नहीं हुआ और उन्होने अपना अंतिम डिग्री कालेज सिसवां के बीसोखोर में अपने पिता और मामा की याद में खोला जिसका नाम उन्होने छोटेलाल दामोदर प्रसाद स्मारक डिग्री कालेज रखा। वर्तमान में इस कालेज के नाम में शिब्बनलाल भी जुड़ गया है। इसके अतिरिक्त शिब्बनलाल ने शकुंतला बाल विद्या मंदिर के नाम पर एक जूनियर हाई स्कूल भी खोला।
== शिब्बनलाल और राजनीति ==
शिब्बनलाल स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यहाँ के पहले सांसद बने और इस क्षेत्र के विकास के लिये कार्या किया। उन्होने महाराजगंज को रेलवे लाइन से जोड़ने के लिये 1946 में ही प्रयास शुर कर दिया था लेकिन उनके उस प्रयास का महराजगंज को आज भी नही मिला है। आजादी के बाद उन्होने कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया और अपनी खुद की पार्टी बनाकर सांसद हुये। शिब्बनलाल कुल मिला जुलाकर महराजगंज से तीन बार सांसद चुने गये। अंतिम बार वह 1976 में जनता पार्टी के टिकट पर सांसद चुने गये थे। 1946 में शिब्बनलाल संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य चुने गये और संविधान निर्माण में भी अपना योगदान दिये।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Sunday, August 21, 2011

आज के शैक्षिक परिवेश में नैतिक शिक्षा की जरूरत

 पिछले एक दशक से भारत की आम जनता के रहन सहन में आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के साथ एक बेलगाम गति आयी है जिसके रौ में अमीर तो अमीर, गरीब भी तेजी के साथ बहे जा रहे हैं। मुद्दा चाहे ज्यादा पैसा कमाने का हो या फिर समाज में पुरानी परंपराओं के विरोध में खड़े होने या व्यवहार करने का हो, सभी नवोन्मेषी होना चाहते हैं। इक्कीसवीं सदी में मीडिया के झोपड़ी में पहुँचने का सिलसिला टेलीकाम क्रांति के साथ उस पायदान पर जा पहुँचा जहाँ पर भारत की साठ करोड़ जनता के पास मोबाइल है। तेजी से बदलते इस परिवेश में आज का भारतीय बिना सोचे समझे अफीम रुपी विकास के पिनक में मस्त समस्त वर्जनाओं के तोड़ते हुये नई सदी का ग्लोबल नागरिक बनने के लिये तैयार है जिसके आँख में कमाई की चमक और चलने को बाकी लंबा रास्ता है। लेकिन इन सब परिवर्तनों के बीच में क्या हमने कभी सोचा है कि
-आज कल के बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है।
-उनके व्यवहार में किस तरह के सूक्ष्म लेकिन लागातार परिवर्तन आ रहे हैं।
-अपने साथी बच्चों के साथ उनका व्यवहार किस तरीके से बदल रहा है।
-तेजी के साथ बदल रहीं घटनाओं और विकास के पहिये के साथ उनका सामंजस्य कैसा है।
-वे क्यों आजकल अलग-थलग पड़े रहते हैं
इन सबके बारें में अगर हम विचार करें तो हम पायेंगे कि बहुत सारे बदलाव ऐसे भी हो रहे हैं जिनके बारे में हम अनजान है।

क्लासरूम में बच्चों का व्यवहार बड़ी तेजी के साथ बदल रहा है। घर में टीवी और बाहर मोबाइल के साथ समय बिताने वाले बच्चों के बालमन पर बिना किसी रोक-टोक के दिखाये जाने वाले आपत्तिजनक कार्यक्रमों एवं कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-नुक्कड़ पर खुल गये मोबाइल गुमतियों में धड़ा-धड़ किये जा रहे डाउनलोड्स मटेरियल्स का कितना गहरा असर पड़ रहा है यह हमे आने वाला वक्त अचानक आने वाले तूफान की तरह बतायेगा। बच्चे इन सब चीजों को प्रयोग करते हुये मानसिक विकास की उस अधकचरी अवस्था पर पहुँच गये हैं जहाँ से उन्हे यह पता है कि हमारा सीनियर भी इस हमाम में नहाने वाला एक नंगा ही है। समाजिक व्यवहार मे बरती जाने वाली संयम की पतली रेखा ही वह दीवार है जो लोगों को एकदूसरे का अतिक्रमण करने से रोकती है और वर्तमान में सर्वसुलभ तकनीक के द्वारा उपलब्ध खतरनाक कंटेन्ट बाढ़ के पानी की तरह उसे रौंदकर ना जाने कहाँ पहुँच गये हैं। यही कारण है कि वे किसी को सम्मान देने में अपने ज्ञान और विकास में अवरोध मान लेते हैं।
क्लासरूम में अनुशासन का वातावरण बनाने के लिये अध्यापकों को लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं और सजा देना ही एकमात्र उपाय नजर आ रहा है। कुछेक विद्यार्थियों के सेल्फएनलाइटमेंट को छोड़ दे तो बाकी अध्यापकों को सम्मान देना अपनी इज्जत के विरुद्ध मानते हैं। सुबह अभिवादन ना करके वे अपने आपको ऊँचा समझते हैं और संभवतः दोस्तों में स्वयं की बड़ाई भी करते हों।

ऐसे परिवेश में बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से बचाने का कोई रास्ता नजर नही आता सिवाय ऐसे आत्मविश्वासी शिक्षकों के जो खुद नैतिकता के ठोस धरातल पर खड़े रहकर विद्यार्थियों के स्वाभाविक गुणों को विकसित कर उन्हे भविष्य का जिमेदार नागरिक बना सकें।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Monday, August 15, 2011

64वें स्वतंत्रता दिवस की ढ़ेर सारी शुभकामनायें....।

दिल से निकलेगी ना मरकर भी,
वतन की उल्फत,
मेरी मिट्टी से भी,
खशबू-ए-वतन आयेगी...।

आज के दौर में देशभक्ति की ये भावनायें और जज्बा उपभोक्तावाद संस्कृति तथा बाजारवाद के बोझ तले दबकर अंतिम साँसे गिन रही हैं जिसे पोषण की जरूररत है जो ईमानदारी की आँच से पककर ही निकल सकता है।

Monday, April 11, 2011

हिंन्दुस्तान और उसकी गलतियाँ-2

अभी सुबह ही मैने हिन्दुस्तान अखबार की खबरों के बारे में लिखा था। आज दोपहर में मैं अपने दोस्त अमित के घर गया था। मैंने उसे आज की खबर के बारे में बताया क्योंकि उसके घर भी हिन्दुस्तान ही आता है। जब मैंने अखबार उठाया तो चकरा गया क्योंकि उसमें वो खबर ही नही थी जिसके बारे में मैने लिखा था। यहाँ तक और सारे मैटर भी अलग थे। सबसे बड़ी बात कि अन्ना हजारे की जिस समिति के बारे में रामदेव ने भाई-भतीजावाद का आरोप लगाया था वह भी उसमें से गायब था। उस अखबार में खबर थी हजारे के पहल से मामला सुलझ गया। मैंने अमित से पूछा कि क्या यह आज का अखबार है, उसने कहा हाँ। मैने सोचा कि क्या दिखाने के लिये अखबार उठाया और क्या दिख गया।


हुआ यूँ था कि अमित के घर जो अखबार था वह गोरखपुर संस्करण था, क्योंकि अमित रोज सुबह गोरखपुर से घर आता है और शाम को फिर गोरखपुर चला जाता है।

मैने सुविधा के लिये दोनों अखबारों को स्कैन करके लगाया है। अभी तक मैं खबरों में गलतियों के बारे में बात कर रहा था पर अभी एक नया मामला है और वह है-दो संस्करणों में खबरों के अंतर का। स्थानीय खबरों में विभिन्नता तो समझ में आती है लेकिन मुख्य पृष्ठ ही अलग-अलग, कुछ अजीब है। महराजगंज संस्करण में निकला है कि अन्ना हजारे द्वारा जन लोकपाल समिति में पिता-पुत्र को लेने पर रामदेव ने आपत्ति की और हजारे पर भाई-भतीजावाद का आरोप लगाया। वही गोरखपुर संस्करण में खबर है कि अन्ना के पहल से मामला सुलझ गया और रामदेव ने आरोप लगाया कि उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया। रामदेव की भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षायें हैं जिसके बदौलत वह भी किसी न किसी तरह खबरों में बने रहना चाहते हैं। फिलहाल हमारी बातचीत का मुद्दा यह नही है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि दो आसपास के जिलों में खबरों के स्तर में इस तरह का बर्ताव नही होना चाहिये। यकीनन महराजगंज का खबरों को प्राप्त करने की महत्ता एवं अधिकार को हिन्दुस्तान का यह रवैया दोयम दर्जे का ही दर्शा रहा है कि एक ही दिन दो तरह की खबरें निकल रही हैं और महराजगंज को एक दिन पीछे की खबरें मिल रही हैं। यही हाल है तो बहुत सारी खबरें महराजगंज संस्करण को मिल ही नही पाती होंगी क्योंकि ऐसा इसलिये होता है कि महराजगंज संस्करण पहले ही छप जाता होगा जिसकी वजह से उसकी खबरों को अपडेट नही किया जाता होगा।

हिन्दुस्तान और उसकी गलतियाँ

हिन्दुस्तान अखबार की पाठक संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है, यह हिन्दुस्तान के आकड़ें कहते हैं। इस पर कोई स्पष्ट रिपोर्ट आज तक अखबार में नहीं निकली। कुछेक बार कुछ विज्ञापनों के जरिये इस बात की जानकारी दी गई थी कि हिन्दुस्तान वर्तमान समय में सबसे तेजी के साथ बढ़ने वाला अखबार है। ऐसा क्यों है, इसकी भी कुछ वजहें हैं। उसके विषय में हम चर्चा बाद में करेंगे। पहले शीर्षक के साथ न्याय तो कर लें।

टीवी चैनल और अखबार वाले किसी के भी बयान अथवा व्यवहार की बखिया उधेड़ देते हैं यदि वह किसी भी प्रकार से असंगत हुआ तो, लेकिन उनसे कुछ गलतियाँ हो जाती हैं तो वे सिर्फ एक खेद का कालम निकाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। और अखबारों के बारे में तो नही जानता पर मैं हिन्दुस्तान का नियमित पाठक हूँ इसलिये इस अखबार के बारें में ज्यादा अच्छी तरह जानता हूँ। अक्सर इस अखबार में खबरों की प्रमाणिकता और यथार्थता में विसंगतियाँ देखने को मिल जाती हैं। ज्यादा दिन नही हुए जब भोजपुरी सिनेमा के पचास वर्ष पूरे होने की उपलब्धियों के बारे में एक आलेख पढ़ने को मिला था जिसमें नदिया के पार के निर्माण वर्ष के बारे में गलत जानकारी उपलब्ध करायी गई थी। हालाँकि उस दिन का अखबार मेरे पास उपलब्ध नही है इसलिये उसपर मैं साक्ष्य के साथ कुछ कहने की कोशिश नही करूंगा लेकिन आज का मुद्दा हट कर है और इसका साक्ष्य भी मेरे पास है।

आज हिंदुस्तान अखबार के मुख पृष्ठ पर एक खबर निकली है जिसमें दिल्ली की एक वृद्ध महिला, जिनकी उम्र 107 साल है, के कूल्हे के आपरेशन की सफलता के बारे में कहा गया है। सफल ऑपरेशन, गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड इत्यादि के बारे में मुझे कुछ नही कहना है। मुझे कहना है खबर के हिस्से पर जिसमें बताया गया है कि विद्यावती, वह महिला जिनका ऑपरेशन हुआ है, उन लोगों में से एक हैं जिन्होने भगत सिंह, सुखबीर और राजगुरु को जेल में देखा है। भगत सिंह, सुखबीर....मुझे नही लगता कि हिन्दुस्तान अखबार के एडीटर को ये बात पता नही होगी कि भगत सिंह और राजगुरु के साथ सुखबीर नही, सुखदेव जेल में बंद थे। लेकिन फिर भी यह खबर छपी है तो इसे क्या समझा जाना चाहिये मुझे ठीक से नही पता। इस तरह कि गलतियों से अखबार वाले अपना मुँह नही छुपा सकते, और ना ही इस सवाल का जवाब देने से मुँह चुरा सकते हैं कि अगर वो पैसा खबर देने का लेते हैं तो क्यों अखबार के तिहाई हिस्से में विज्ञापन ही विज्ञापन दिखाई देते हैं। हिंदुस्तान इस मामले में सबसे आगे है, जबसे इसका महराजगंज संस्करण निकलना प्रारंभ हुआ है तबसे यह अखबार, अखबार कम विज्ञापन ज्यादा लगता है। सप्ताह में हर दूसरे दिन इसका अंतिम पृष्ठ पूरा गायब रहता है और उसपर विज्ञापन रहता है। आज के अंतिम पृष्ठ पर कार का विज्ञापन निकला है। मुझे नही लगता कि किसी छोटे से जिले के बारे में तीन चार के आसपास पृष्ठ क्यों रखने जरूरी हैं। विश्व के बारे में इसकी जानकारी न के बराबर होती है और रविवार के दिन इसके अतिक्तांक को देखकर सुबह-सुबह ही गुस्सा आ जाता है। पेज और रंग का तो भगवान ही मालिक है। उसपर से तुक्का यह कि कल से हिंदुस्तान अखबार किसी गार्सिया नाम के अमेरिकन डिजाइनर के डिजाइन किये हुए फार्मेट पर निकलेगा। यकीन मानिये कि इससे पहले में इस गार्सिया नाम के डिजाइनर को जानता ही नही था, हालाँकि यह भी सही है कि मैं दुनिया के बहुत से लोगों को नही जानता लेकिन अखबार वालों को इतना तो जरुर बताना चाहिये कि इसके अखबार को परिवर्तित करने के लिये क्या हो रहा है। पहली बार आज समाचार निकला है कि पिछले कुछ महीनों से अखबार के डिजाइन को बदलने के लिये हिंदुस्तान की सीनियर टीम गार्सिया के साथ मिल कर काम कर रही थी। देखते हैं कि कल का हिंदुस्तान कैसा होता है। हिन्दुस्तान कैसा भी हो अगर उसकी खबरे देने के तरीके में बदलाव नही किया गया तो जिस अंधाधुंध विज्ञापनो के जरिये सबसे तेजी के साथ बढ़ने वाले खबरों को यह खुद ही बड़े चाव के साथ निकाल रहा है, भविष्य में सबसे तेजी के साथ घटने वाली खबरों को पढ़ने के लिये सिर्फ हिंदुस्तान के लोग ही बचेंगे।

पुनश्च-

गार्सिया ने यकीनन काफी मोटी रकम ली होगी अखबार डिजाइन करने के लिये जिसकी कीमत और भी ज्यादा विज्ञापन देकर निकाली जायेगी, पर मैं हिंदुस्तान अखबार का हाकर जो मेरे घर रोज सुबह अखबार डालकर चला जाता है और अक्सर देर से उठने की वजह से मैं उसका मुँह नही देख पाता, से बहुत खुश हूँ और हिंदुस्तान अखबार के संचालकों को उसका शुक्रिया करना चाहिये क्योंकि वही एक वजह है जो मुझे हिंदुस्तान अखबार लेने के लिये प्रेरित करती है। मैं सुबह छह बजे से पहले उठ जाता हूँ और शायद साढ़े पाँच बजे के आस पास और मुझे उस हाकर का नाम नही पता है, अगली बार जब वो मुझसे पेमेंट लेने आयेगा तो उसका नाम जरूर पूछूंगा।

Tuesday, January 4, 2011

राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में हिंदी सिनेमा की भूमिका

14-15 अगस्त 1947 की अर्द्धरात्रि को ब्रिटिश दासता से मुक्त होकर भारत यद्यपि एक राष्ट्र कहलाने का हकदार तो हो गया किंतु भारत में जब तक भाषाई क्षेत्रीय प्रजातीय इत्यादि विविध आधारों पर उपस्थित विषमताओं को एक सामूहिक चेतना के रुप में एकाकार कर एक सामूहिक उद्देश्य की ओर प्रेरित नही किया जाता तबतक वास्तविक अर्थों में भारत को एक राष्ट्र नही कहा जा सकता। वस्तुतः भारत में मौजूद अनेकानेक विविधताओं के बीच एक सामूहिकता स्थापित करने की प्रक्रिया ही राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है। इसके तहत न केवल सामूहिकता में बाधक तत्वों की पहचान कर उन्हे दूर करने का प्रयास किया जाता है अपितु सामूहिकता उत्पन्न करने वाले तत्वों को प्रोत्साहित भी किया जाता है।


राष्ट्र निर्माण की उपरोक्त प्रक्रिया में विविध कारक अपना-अपना योगदान कर रहे हैं। जिनमें साहित्य, पत्र-पत्रिकायें, जनसभायें, संगोष्ठियाँ इत्यादि तो प्रायः चर्चा में रहती हैं किंतु इस महान कार्य में लगे एक प्रमुख कारक हिंदी सिनेमा की भूमिका को प्रायः नजरअंदाज किया जाता है। प्रस्तुत पत्र सिनेमा की इस महत्वपूर्ण भूमिका को उभार कर सामने लाने का एक छोटा सा प्रयास मात्र है।


वास्तव में हिंदी सिनेमा आजादी प्राप्ति से पूर्व अर्थात स्वतंत्रता संग्राम के काल से ही राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में लगा हुआ है। अपने शरुआती दौर में प्रभात न्यू थियेटर्स बांबे टाकीज सरीखी फिल्म कंपनियों की फिल्मो ने सामाजिक चेतना को उभारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1936 में बांबे टाकीज निर्मित फिल्म अछूत कन्या ने भारतीय समाज की एक बड़ी बुराई अस्पृश्यता पर करारी चोट करते हुए लोगों को इसके दुष्प्रभावों की ओर आकृष्ट किया, तो ठीक एक वर्ष बाद अर्थात 1937 में हेमचंद ने अनाथ आश्रम में पहली बार विधवा पुनर्विवाह जैसे संवेदनशील मुद्दे को बड़े पर्दे पर जीवंत कर जनता को इसके प्रति जागरूक कर राष्ट्र के एक बहुत बड़े हिस्से अर्थात महिलाओं के उत्थान में बड़ी भूमिका निभाई। इसी क्रम में 1938 में बनी फिल्म धरती माता ने कृषकों की वास्तविक स्थिति का प्रस्तुतीकरण करते हुये सामूहिक कृषि को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर कृषक उत्थान की दिशा में एक सार्थक पहल की। 1940 में महबूब खान ने अपनी फिल्म औरत के माध्यम से स्त्री और कृषक दोनों की समस्याओं को एक साथ प्रस्तुत करने का अनूठा एवं सफल प्रयास किया। 1940 में रंजीत फिल्म्स के बैनर तले बनी एवं सरदार चंदू लाल शाह द्वारा निर्देशित फिल्म अछूत ने तो जातीय रूढ़ियों पर ऐसा प्रहार किया कि स्वयं महात्मा गाँधी एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल इसकी सराहना करने से खुद को नही रोक पाये। फिल्म के नायक-नायिका द्वारा स्वयं के प्राणों की आहुत देकर भी मंदिर के द्वार आम जनता, विशेषकर तथाकथित अस्पृश्यों के लिये खुलवाने का सफल प्रयास आने वाली पीढ़ियों के लिये भी एक प्रेरणास्रोत बनी। 1942 में नेशनल स्टूडियो के अंतर्गत महबूब खान द्वारा निर्मित और रामंचंद्र द्वारा निर्देशित फिल्म गरीब ने अमीर और गरीब के बीच के संघर्ष को बड़े पर्दे पर उभार कर गरीबों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास किया।


आजादी से पूर्व ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों के तहत कड़े सेंशरशिप कानूनों के लागू होने के कारण 1947 के पूर्व हिंदी सिनेमा अपना वास्तविक विस्तार नही प्राप्त कर सका और यह मुख्यतः सामाजिक बुराइयों के इर्द गिर्द ही सिमटा रहा किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत की सत्ता भारतीयों के हाथ में आयी तो हिंदी सिनेमा को एक खुला आकाश मिला और इसने खुलकर अपनी भूमिका का निर्वहन किया। ऐसे में एम. एस. सैथ्यू ने गरम हवा जैसी फिल्म बनाकर विभाजन की त्रासदी और उससे प्रभावित लोगों की वास्तविक स्थितियों और मजबूरियों को आम जनता के सामने प्रस्तुत किया जिससे सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे के विकास में काफी सहायता मिला। 1951 में फणि मजूमदार ने आंदोलन नामक फिल्म बनाकर 1885 में कांग्रेस के स्थापना से लेकर 1947 तक के स्वतंत्रता के पूरे इतिहास को रुपहले पर्दे पर उतारकर आने वाली पीढ़ियों में राष्ट्रवाद की ज्वाला को सदा प्रज्वलित रखने की दिशा में अमूल्य कार्य किया। किंतु जब 1957 में महबूब खान ने मदर इंडिया बनाई तो इसे इतनी लोकप्रियता मिली कि इसे हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर माना गया। इस फिल्म ने भारतीय स्त्री के अबला, परावलंबी जैसी छवियों को तोड़ते हुये उसकी संघर्ष क्षमता को न केवल उजागर कर स्त्री उत्थान की दिशा में एक महान कार्य किया अपितु कृषक समस्या की ओर भी सरकार एवं जनता का ध्यान आकर्षित कर कृषकों की राष्ट्र निर्माण में वास्तविक भूमिका सुनिश्चित करने की भी महत्वपूर्ण पहल की।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...