Saturday, December 30, 2017

कोहरा

हम सभी देवरिया जाते हुये

कल शाम को अमित, गोलू और विजय के साथ मुझे अचानक देविरया जाना पड़ा। महराजगंज से देवरिया की सबसे कम दूरी भी लघभग 80 किमी होगी। हमने जल्दी पहुँचने के लिये महराजगंज टू देवरिया वाया परतावल-कप्तानगंज-हाटा का रास्ता चुना। हम लोग दोपहर 1.30 बजे के बाद निकले। निकलने से पहले मैं श्रवण पटेल जी के कार्यालय पर थोड़ी देर रूका था। वहाँ ठंडक, कोहरा और एक्सीडेंट के बारे में बात होने लगी। दिसंबर के आखिरी हफ्ते में कोहरे का प्रकोप वैसे भी कुछ ज्यादा है। सब लोगों ने अपने हिसाब से कमेंट किये। मुझे अंदाजा था कि कोहरा वाकई में बड़ी समस्या हो सकता है। वैसे भी जाड़े के आगमन के साथ  व्हाट्स अप पर तमाम ऐसी वीडियोज देखने को मिली थीं जिसमें कोहरे की वजह से हाइवेज पर एक्सीडेंट्स दिल दहला देने वाली श्रृंखला मौजूद थी। फिलहाल मैं वहाँ से निकला और 1.15 बजे अमित के घर के सामने पहुँचा। वह अभी अपने क्लीनिक से नहीं आया था सो मैं वहीं गाड़ी में इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद वह आया और हम 1.30 बजे वहाँ से निकले। रास्ते में शिकारपुर हमें गोलू और विजय को भी लेना था।

इतने खराब मौसम में दोपहर बाद निकलने की वजह-
दोपहर बाद निकलने के वक्त ही यह पता था कि वापसी में 6-7 तो बज ही जायेंगे यानि कि वापसी का पूरा सफर घने कोहरे के बीच में तय करना था। यह अपने आप में काफी चैलेंजिग था क्योंकि कोहरे की चादर इस वक्त इतनी घनी हो रही थी कि पैदल चलने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था। उससे पहले विजय ने कुछ दिन पहले शोहरतगढ़ से रात में वापसी की अपनी कहानी भी सुनाई थी जिसमें उसे गाड़ी चलाने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। अमित ने पहले ही हथियार डाल दिये थे कि वह कोहरे में गाड़ी नहीं चला पायेगा। शायद उसे पहले के अनुभव डरा रहे थे, या वह कुछ ज्यादा सतर्क था, यह वही बता सकता था। खैर इन सारी बातों के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात क्या थी जिसने हम चारों को देवरिया जाने के लिये विवश कर दिया था।
वह वजह थी कि पछले कई दिनों से गोलू सेकेण्ड हैंड बोलेरो खरीदने की जिद कर रहा था। बोलेरो खरीदने की उसकी चाहत सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह थी जो रूक-रूककर महीने दो महीने में जाग उठती थी। लेकिन कुछ दिनों से उसकी यह चाहत लावा, राख और धूल के साथ भूकंप भी ला रही थी जिसकी वजह से मुझे उसकी चाहत पूरा करने के मैदान में अपने दोस्त के साथ उतरना पड़ा। कई गाड़ियाँ देखने और गोरखपुर में दो दिन पहले एक अच्छी गाड़ी हाथ से निकल जाने की टीस गोलू के मन में माइग्रेन की तरह बार बार परेशान कर रही थी। इस चक्कर में उसने एक दिन खाना भी नहीं खाया मानो अपनी प्रेयसी से ना मिलने का दर्द किसी प्रेमी द्वारा अपनी भूख पर उतारा जा रहा हो।
इसी चक्कर में मैने कल सुबह से लगातार तीन घण्टे ओलेक्स पर बिताकर सैकड़ो बोलेरो गाड़ियाँ देखी और उसकी पसंद की एक बोलेरो जो देवरिया में थी उसे खरीदने की योजना बनाई गई। आनन फानन में रूपयों की व्यवस्था की गई और मैने अमित को कहा कि वह भी देवरिया चले। ऐसा करने के पीछे की वजह थी कि उसकी देवरिया में रिश्तेदारी थी और वक्त आने पर वह काम आ सकता था।

यात्रा की शुरूआत-
गाड़ी मैं ड्राइव कर रहा था क्योंकि मैं विजय जो हम सबमें सबसे अच्छा ड्राइवर था (जो पेशे से एक ड्राइवर ही है) उसे अपनी ड्राइविंग दिखाना चाहता था। मैं सबसे नया चलाने वाला था और सबसे कम अनुभव रखता था। खैर बिना किसी दिक्कत में मैंने गाड़ी हाटा तक चलाई और उसके बाद विजय ने स्टेयरिंग सँभाल ली। 3.30 बजे के आसपास हम देवरिया पहुँचे। जिस आदमी के पास गाड़ी थी उसका घर शहर के बाहर था। जाकर पता चला कि वो सेकेण्ड हैंड गाड़ियों का बिजनेस करता था और उसके बगल में उसके भाई  का भी आफिस था। जिस गाड़ी को हम देखने गये थे वह दिखने में ही बेकार लग रही थी। खैर दूसरे डीलर के पास जाने पर भी कोई खास फायदा नहीं हुआ। उसके पास कई बोलेरो गाड़िया थीं लेकिन कोई डील हो नहीं पायी। निकलने की तैयारी करते-करते 6 बज गये। और फाइनली कुछ खा पीकर निकलने के वक्त 6.30 बज रहे थे।

असली चैलेंज-
कोहरा अपना रंग दिखा रहा था लेकिन शहर में लाइट और चारों तरफ गाड़ियों की आवाजाही में उसकी भयानकता का अंदाजा नहीं हो रहा था। वापसी में विजय ही गाड़ी चला रहा था जिसे सबसे ज्यादा अनुभव था। जैसे ही हम शहर से बाहर आये उसकी सारी काबिलियत दाँव पर लग गई क्योंकि कोहर इतना घना था कि आगे दो मीटर भी नहीं दिखाई दे रहा था। गाड़ी की स्पीड 20 के आसपास थी और विजय उल्लू की तरह विंड स्क्रीन पर नजरें गड़ाये ड्राइविंग कर रहा था। पीछे बैठे मुझे और अमित को तो कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था।
घने कोहरे में ड्राविंग-रियल चैलेंज (एक खतरा)
इससे पहले मैंने कोहरे में गाड़ी चलाने का अनुभव आज के लघभग 15 साल पहले लिया था जब मैं और मेरा दोस्त सेराज खुटहाँ से जनवरी की रात साढ़े नौ बजे वापस आ रहे थे और कोहरा बादल की तरह सड़क पर लहरा रहा था। उस वक्त मैंने सेराज के कहने पर बाइक की हेडलाइट आफ करके उसे बहुत धीरे चलाया था और इस तरह हमने लघभग 10 किमी की दूर तय की थी। लेकिन कल का कोहर उससे भी घना था। एक तो सड़क अनजान थी, दूसरे वह बहुत पतली थी, तीसरे बन्द गाड़ी में सड़क का अंदाजा बिलकुल भी नहीं लग रहा था।
हाटा की तरफ से देवरिया की तरफ आने वाली कई गाड़ियाँ मिलीं लेकिन देवरिया से हाटा की तरफ जाने वाली कोई गाड़ी दिखने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसा लग रहा था कि उस समय सिर्फ हम ही लोग हाटा की ओर जा रहे थे। उस समय डर जैसी कोई बात दिमाग में नही थी लेकिन कहीं कोई अनहोनी ना घट जाये इसका अंदेशा दिमाग में न बरसने वालों बादलों की तरह रह-रहकर घुमड़ रहा था। काफी देर बाद अकेले चलते हुये एक इंडिगो गाड़ीं दिखाई दी जो इतनी धीरे चल रही थी कि वह अगर उसी रफ्तार से चलती तो हाटा पहुँचने में उसे चार घण्टे लग जाते। खैर विजय ने गाड़ी उसके आगे की और वह हमारी गाड़ी के पीछे आने की कोशिश करने लगा। विजय अपने पूरे अनुभव से गाड़ी चला रहा था इसलिये वह थोड़ी तेज चलाते हुये इंडिगो को काफी पीछे छोड़कर आगे निकल गया। खैर हाटा पहुँचने के कुछ किमी दूर एक निसान गाड़ी तेजी से आयी और हम उसके पीचे लग गये। शायद वह लोकल ड्राइवर था जो सड़क से परिचित था। उसके पीछे-पीछे हम हाटा तक आये और वहाँ पर अमित, गोलू और विजय ने अँडा खाया। उस समय लघभग आठ बज रहे थे। यानि कि हमें हाटा तक पहुँचने में 1.30 घण्टे से ज्यादा का समय लग गया था। ओस का घनत्व और भी ज्यादा बढ रहा था और अभी तीन चौथाई रास्ता बाकी था।

असली कठिनाई अभी बाकी थी-
जब गाड़ी हाटा से बाहर निकली तो कोहरा चादर की तरह गाडी के सामने लहरा रहा था जैसे हमसे कहने की कोशिश कर रहा हो कि जहाँ हो वहीं रूक जाओ,वरना कोई दुर्घटना हो सकती है। कई बार विजय सड़क का अनुमान लगाये बिन दूसरी तरफ बिलकुल किनारे चला जा रहा था। आगे बैठा गोलू उसे कभी-कभार बता रहा था कि वह सड़क के कितना किनारे है क्योंकि लाल रंग के साइड लाइट जलने से सड़क के किनारे का थोड़ा आभास हो रहा था। लेकिन गोलू ने अपनी तरफ का शीशा चढ़ा रखा था और इस वजह से उसे सड़क ठीक से नहीं दिखाई दे रही थी। विजय की परेशान थोड़ी कम करने के लिये मैंने कुछ सोचा और मैंने पिछले दरवाजे की शीशा नीचे कर दिया और सिर बाहर निकाल कर सड़क का किनारा देखने लगा। ऐसा करने से मुझे किनारा तो दिखने लगा लेकिन तेज हवा और कोहरे की वजह से चेहरे पर बहुत ज्यादा ठंडक लग रही थी। मैने इससे बचने के लिये अपने मुँह पर रुमाल बाँधा, और जैकेट के सिर वाले हिस्से को सिर पर टाइट लगाकर बाँध लिया। मैं इसके बाद सिर निकालकर विजय को सड़क के किनारे के बारे में बताने लगा। यहाँ तक कि सड़क की सूचनाओं वाले साइन बोर्ड भी जिसपर घुमाव के बारे में जानकारी के साथ और साइन बने हुये होते हैं। इस तरह मैं विजय के लिये को पायलट की भूमिका निभाने लगा और विजय थोड़ी राहत के साथ गाड़ी चलाने लगा।
मुसीबतों का अन्त यही नहीं हुआ पता नहीं किस वजह से विजय को गाड़ी चलाने मे दिक्कत होने लगी और उसके सिर में तेज दर्द होने लगा। आगे बैठा गोलू बार-बार उसे चेतावनी दे रहा था कि अगर उसे कोई परेशानी है तो बताये, वह खुद गाडी चला देगा। लेकिन मुझे पता था रात में गाड़ी चलाना उसके बश की बात नहीं थी क्योंकि वह पहले ही बता चुका था कि रात में उसे ठीक से दिखाई नहीं देता है। अमित पहले ही हाथ खडे कर चुका था। यह सही था कि विजय को गाड़ी चलाने में परेशानी हो रही थी और अंत में उसने हथियार डाल भी दिये। कप्तानगंज अभी आधी दूरी पर था और हमारा ड्राइवर आगे गाड़ी चलाने में समर्थ नहीं। गाड़ी वहीं रोक दी गई और विजय ड्राइविंग सीट से हट गया।

क्रमशः...........................

Wednesday, December 27, 2017

N.P.A. (नान परफार्मिंग एसेट)

खबर बहुत चिंतित करने वाली है कि भारतीय बैंको का एन.पी.ए. यानि कि नान परफारमिंग एसेट लगातार बढ़ता ही जा रहा है। कहा तो यह जा रहा है कि बैंको का फँसा हुआ जी.डी.पी.के 2 प्रतिशत से ऊपर हो चला है। कुछ दिन पहले अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार बैंकों का एन.पी.ए. 7.34 लाख पहुँच गया है। जिसमें सरकारी बैंको का एन.पी.ए. दो तिहाई से ज्यादा है।

क्या है एन.पी.ए. (नान परफार्मिंग एसेट)
बैंक विभिन्न मदों में व्यक्तियों अथवा संस्थाओं को कर्ज देते हैं जिनपर अदा किये जाने वाला ब्याज बैंक की कमाई होता है। यह ब्याज इंस्टालमेंट के रूप में होता है। जब किन्ही कारणों से बैंक की इंस्टालमेंट अथवा ब्याज समय से जमा नहीं हो पाता तो इसे बैड लोन कहा जाता है। 90 दिनों की अवधि के बाद इसे एन.पी.ए. यानि कि नान परफार्मिंग एसेट कहा जाता है। यह वह लोन होता है जिसके वापस मिलने की आशा खत्म हो जाती है अथवा बहुत कम हो जाती है।

विश्लेषण-
रिजर्व बैंक आफ इंडिया द्वारा प्रदान किये गये आकड़ों के अनुसार जून माह 2017 तक बैंकों द्वारा कुल 6802129 करोड़

कुल 6802129 करोड़ रूपये लोन दिया गया था जिसमें से 601215 करोड़ रुपये एन.पी.ए. के रूप में फँस गया है। इसमें सरकारी और प्राइवेट कुल मिलाकर 49 बैंक शामिल हैं। यदि आँकड़ों पर नजर डालें तो इंडियन ओवर सीज बैंक की हालत सबसे खराब है जिसने 149217 करोड़ रूपये लोन दिये और उसके 30239 करोड़ रुपये एन.पी.ए. के रूप में फँस गये। प्रतिशत के हिसाब से देखें तो इसका कुल 20.26 प्रतिशत रूपया एन.पी.ए. के रूप में फँसा है। इसके बाद नंबर आता है यूको बैंक का जिसका 115166 करोड़ रूपये में  21495 करोड़ रूपये, बैंक आफ इंडिया, जिसके 274391 करोड़ रूपये में से 43935 करोड़ रूपये , पंजाब नेशनल बैंक जिसके 356958 करोड़ रूपये में से 55003 करोड़ रूपये एन.पी.ए. के रूप में फंसे हैं।
अगर बात करें सबसे ज्यादा फँसे हुये एन.पी.ए. की तो इसमं सबसे पहला नंबर आता है स्टेट बैंक आफ इंडिया का जिसके 1193325 करोड़ रूपये में से 93137 करोड़ रूपये एन.पी.ए. के रूप में फँसा है।
किस क्षेत्र में कितना रूपया फंसा है, अगर इसपर नजर डालें तो पायेंगे कि धातु एवं इस्पात उद्योग की हालत सबसे खराब है। इस क्षेत्र में कुल दिये गये लोन 4.33 लाख करोड़ रुपये में 1.49 लाख करोड़ो रूपये एन.पी.ए. के रूप में फँसा है। इसके बाद नंबर आता है वस्त्र उद्योग एवं पेय पदार्थ उद्योंगों का जिसका एन.पी.ए. रेट 18 प्रतिशत के आसपास है।

सरकार के कदम-
सरकार ने एन.पी.ए. की रिकवरी के लिये SARFAESI (सिक्यूरिटाइजेशन एंड रिकन्शट्रक्शन आफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड इंफोर्समेंट आफ सिक्योरिटी इन्टरेस्ट) एक्ट बनाया है जिसका काम इस तरह के लोन न चुकाने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं के अधिकार वाली परिसंपत्तियों का अधिग्रहण करके कर्ज की वसूली करना है। लेकिन यह प्रक्रिया इतनी मद्धिम गति से आगे बढ़ रही है कि यह कब पूरी होगी, कह पाना मुश्किल है।
एक उदाहरण-
विजय माल्या बैंको का 6000 करोड़ रूपया लेकर लंदन भाग गया है लेकिन उसे भारत लाने और उससे कर्ज वसूली की प्रक्रिया बहुत जटिल और धीमी है। एक विजय माल्या से वसूली करने में इतनी कठिनाइयाँ आ रही हैं तो देश में ऐसे सैकड़ों विजय माल्या बैठे हैं।

देश पर असर-
देश और विदेश स्तर के कई जानकार लोगों और संस्थाओं का कहना है कि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। चुनाव के समय में राजनीतिक दलों द्वारा किसानों की कर्जमाफी का वादा और बाद में हजारों करोड़ रुपये का कर्ज माफ करना भी इसी के अंतर्गत आता है। कहना न होगा कि बैंकों के एन पी ए में किसान कर्जमाफी का भी बड़ा योगदाना है।
2009 में संप्रग सरकार ने 71000 करोड़ रुपये माफ किये थे। अभी हाल में उत्तर प्रदेश में संपन्न हुये चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने किसानो के 36000 करोड़ से ज्यादा रूपये के कर्ज माफ किये। किसानों का माफ किया जाने वाला कर्ज किसी न किसी रूप में देश की अर्थव्यवस्था को ही नुकसान पहुँचा रहा है। कहाँ सरकार को किसानों और छोटे व्यापारियों की आय बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये। मूलभूत व्यवस्था और बुनियादी स्तर पर विकास का प्रयास करना चाहिये किन्तु वह ऐसा नहीं कर पाती। सत्ता प्राप्ति की सबसे आसान सीढ़ी के रूप में वह कर्जमाफी को चुनती है और देश को आगे बढ़ाने के बजाय दो कदम और पीछे ले जाती है।



दस्तक सुरेन्द्र पटेल निदेशक माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स

Sunday, December 24, 2017

सुहेब इलियासी और इंडियाज मोस्ट वांटेड


सुहेब इलियासी अंजू के साथ
यह उन दिनों की बात है जब मैं हाइस्कूल का छात्र हुआ करता था और यदा कदा घरों में टेलीविजन सेट देवता की मूर्ति की तरह विराजमान थे। मनोरंजन के नाम पर दूरदर्शन द्वारा प्रसारित किये जाने वाले धारावाहिक थे और शनिवार-रविवार को ईंद के चाँद की तरह दिखाये जाने वाले फिल्म। उस दौर में जब अपराध-भ्रष्टाचार टीवी पर सनसनी नहीं हुआ करते थे तब दूरदर्शन पर एक साप्ताहिक अपराध कार्यक्रम शुरू हुआ जिसका नाम इंडियाज मोस्ट वांटेड था। टी.वी. पर जो व्यक्ति इसकी एंकरिंग करता था वह देखने में स्मार्ट, खुशमिजाज और अपराध पर पैनी नजर रखने वाला था। उस कार्यक्रम ने कुछ ही प्रसारणों में पूरे भारत में अपनी एक पहचान बना ली। कहा तो ये जाने लगा कि इस कार्यक्रम के प्रसारण में पुलिस को कई ऐसे अपराधियों को पकड़ने में सफलता मिली जो काफी समय से उनकी गिरफ्त से दूर थे। हमारे जैसे किशोरों के लिये जो, सिविल परीक्षा की तैयारी के सपने देखते थे,सुहेब इलियासी एक नायक की तरह था।
यू टर्न
धारावाहिक के प्रसारण के दरम्यान ही अचानक सन् 2000 में खबर आयी की इलियासी की पत्नी अंजू की हत्या हो गई है और सुहेब को पुलिस ने अपनी ही पत्नी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। अफवाहें उड़ीं की सुहेब को फंसाया गया है और हमारे जैसे बच्चों ने उनपर यकीन भी कर लिया। यकीन करने के अपने अधकचरे पूर्वाग्रह थे जिनमें सबसे वजनदार यह था कि; चूँकि सुहेब ने भारत के सबसे बड़े अपराधियों को पकड़वानें में मदद की थी इसलिये सत्ता के गलियारों में माफिया के जरिये पहुँचने वाले लोगों ने नाराज होकर उसे फँसा दिया। काफी दिनों तक यह चर्चा चलती रही और धीरे-धीरे यह मामला पर्दे के पीछे चला गया लेकिन कानून अपना काम करता रहा।
पूरा मामला-
सुहेब के पिता का नाम जमील इलियासी था जो आल इंडिया इमाम  आर्गेनाइजेशन के मुखिया थे। सुहेब की मुलाकात अंजू से जामिया मिलिया इस्लामिया कालेज में हुआ जहाँ दोनो मास कम्यूनिकेशन में पढ़ाई कर रहे थे। दोनों में नजदीकियाँ बढ़ीं और मामला शादी तक पहुँचा। दोनों के परिवारों ने नाराजगी जताई और नतीजन दोनों लंजन चले गये। उन्होने 1994 में कानूनी शादी की। 1995 में अंजू ने एक बेटी आलिया को जन्म दिया। सुहेब को लंदन के एक टी वी शो क्राइमस्टापर्स से इंडियाज मोस्ट वांटेड बनाने का खयाल आया और उसे पूरा करने के लिये दोनों भारत आये। शो के पायलट एपीसोड्स में इसकी एंकरिंग अंजू ने की लेकिन आन एयर होने के बाद सुहेब इसकी एंकरिंग करने लगा। इसके बाद अंजू वापस अपने भाई के पास कनाडा चली गई। शो चलता रहा और इसी बीच सुहेब ने अंजू से वापस भारत आ जाने की गुहार लगाई और अपनी कंपनी का नाम आलिया प्रोडक्शन रखा। इस कंपनी के 25 प्रतिशत शेयर सुहेब ने अंजू के नाम पर कर दिये। अंजू के वापस आने के बाद दोनों ने दिल्ली में एक फ्लैट खरीदा जिसको अंजू ने पूरे मन से सजाया। दोनों अपनी बेटी के साथ उसमे रहने लगे और वहीं पर 10 जनवरी 2000 को अंजू को जख्मी हालत में हास्पिटल पहुँचाया गया और उसकी मौत हो गई। शुरुआती दौर में सुहेब ने इसे आत्महत्या का मामला बताया और पुलिस ने इसे मान भी लिया। अंजू के घरवालों ने भी सुहेब को निर्दोष मान लिया था।
केस में अहम मोड़-
इसी बीच रश्मि जो अंजू की बड़ी बहन थी और कनाडा में रहती थी उसने वापस आकर पूरे केस को सुहेब के खिलाफ कर दिया। उसने अंजू की पर्सनल डायरी पुलिस के सुपुर्द की जिसमें अंजू ने सुहेब के बारे में पूरे विस्तार से बताया था। यहीं नही मौत से पहले रश्मि ही वह शख्स थी जिससे अंजू की अंतिम बार बात हुई थी। रश्मि ने कई ऐसी बाते बताईं जिसे अंजू ने सिर्फ उसे बताया था। उसने बताया कि अंजू किसी तरह से सुहेब से तलाक चाहती थी। इसके बाद पुलिस ने अपनी थ्योरी बदली और सुहेब के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया। केस चलता रहा और अंततः 20 दिसंबर 2000 में बीस साल बाद अंजू को न्याय मिला और अदालत ने सुहेब को अंजू की हत्या का दोषी मानते हुये उम्रकैद की सजा सुना दी।
नियत में खोट-
सुहेब ने जिस कार्यक्रम के जरिये पूरे भारत में वाहवाही बटोरी मूलतः वह चोरी थी। उस वक्त में किसी को यह अंदाजा नहीं हुआ कि यह कार्यक्रम इंग्लैंड के कार्यक्रम क्राइमस्टापर्स की नकल थी। जिस अंजू से उसने सारे घरवारों से लड़कर शादी की वह शादी के कुछ महीनों के बाद ही अपनी बहन के साथ कनाडा रहने चली गई। जिस कार्यक्रम के लिये उसने अपराधियों के बारे में जाँच पड़ताल की, उनकी कार्यशैली को करीब से देखा और शायद अंजू की हत्या करने की प्रेरणा उसी से मिली।

जरूरी नहीं कि इंसाफ की बात करने वाला इंसाफपसंद भी हो।

Friday, October 27, 2017

पोस्टर और बच्चे

पोस्टर और बच्चे
अक्टूबर जाने वाला है, नवंबर दस्तक देने वाला है और इसी के साथ मौसम भी अपना मिजाज बदल रहा है। हवा में ठंडक महसूस हो रही है और सुबह-सुबह ओस की हल्की चादर पसर रही है। बदलते हुये मौसम के तेवरों के उलट नेताओं के पसीने छूट रहे हैं क्योंकि निकाय चुनाव की घोषणा हो चुकी है। चक्रव्यूह का पहला द्वार तोड़ने के लिये संभावित प्रत्याशी हर प्रकार के पैतरें आजमा रहे हैं। सभी अपनी पसंद की पार्टियों से टिकट प्राप्त करने के लिये जिलाध्यक्ष से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष  से मिलने की तिकड़म भिड़ा रहे हैं। जिस पार्टी का टिकट गूलर का फूल हो गया है वह है भारतीय जनता पार्टी। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ हो रही है और टिकट पर कुंडली मारकर बैठे हुये विभिन्न प्रकार के अध्यक्ष बाजार में आम खरीदने वाली कुशल गृहिणी की भाँति हर दुकान पर जाकर आमों की गुणवत्ता को जाँच परखने की पूरी कोशिश कर रही हैं। आम कितना बड़ा है, कितना पका है, कितना पीला है, कितना लाल है, दवा से पकाया गया है कि डाल का पका है, कब तोड़ा गया है, ताजा है कि पुराना और भी न जाने क्या क्या....। बेचारे आम आजतक इसी गफलत में थे कि बिकने के लिये आम होना ही काफी है। सपने में भी नहीं सोचा था कि क्वालिटी के लिये उनकी परेड भी हो जायेगी। गच्चा खा गये यहीं पर। पानी पी-पी कर कोस रहे थे मोदी के उस सलाहकार पर जिसने उन्हे विदेशों में इतनी यात्राये करवा दी जितनी एक आम आदमी अपने ससुराल के भी नहीं लगाता। मोदी जहाँ गये, अपने आम की मिठास ले गये और देखा देखी पार्टी के कर्ता-धर्ताओं ने आम की गुणवत्ता जाँच करनी शुरू कर दी। इतना तो इन आमों को भी नहीं पता कि कब बौर से बौरा गये और डाली से टूटने की जिद में पेड़ से ही बगावत कर दी।
फिलहाल टिकट चाहे किसी को भी मिले, घमासान अभी से मचा हुआ है। हमारा चुनाव लड़ना किसी पार्टी के टिकट का मोहताज नहीं है, ऐसा समझने वालों ने अभी से रणभेरी बजा दी है। जिसका सबसे पहला असर घरों की दीवारों पर पड़ा है। दीवाली में अच्छा-खासा खर्चा किया घर की रंगाई पुताई में और दुलहन के हाथ की मेंहदी के रंग उतरने से पहले ही दनादन पतरू, कतवारू के पोस्टर दीवार पर चिपक गये मानो सोलह श्रृंगार की हुई किसी नवयुवती के चेहरे पर हैन्डीप्लास्ट चिपका दिया गया हो। बेचारे सीधे-सादे लोग किसी से शिकायत भी नहीं कर सकते उस दब्बू विद्यार्थी की तरह जो मास्टर साहब से दूसरे द्वारा की गई गलती के लिये धोबी के गदहे जैसे हमेशा धो दिये जाते हों। क्या पता कल इसी में से कोई कस्बे का चेयरमैन हो जाये तो क्या होगा। खैर बड़े तो ठहरे बड़े, हर काम सोच विचारकर करते हैं और करने से पहले फायदे नुकसान का गुणा भाग अवश्य लगा लेते हैं। किन्तु........बच्चों को कौन टाल सकता है, उनको कौन मना कर सकता है और मना करने के बाद वो मानेंगे कि नहीं, इसकी कोई गारन्टी नही है। इधर पोस्टर लगे, उधर बच्चों की टोली ने उसको फाड़ दिया। ऊँची से ऊँची जगह लगा दीजिये, ज्यादातर पोस्टरों की नियति बुरी तरह फटना ही होती है।
अभी मुहल्ले में तड़के सुबह किसी नेताजी का पोस्टर लगा हुआ देखा। ध्यान से देखने पर पता चला कि पोस्टर में चुनाव चिह्न वाली जगह खाली थी। थोड़ा विश्लेषण किया तो लगा कि टिकट तो फाइनल हुआ ही नहीं, शायद इसी वजह से नेताजी ने चुनाव चिह्न वाली गोल जगह खाली छोड़ दी। उनका सारा पोस्टर नीले रंग का था जिससे पता चलता था कि वह किस पार्टी से टिकट की आशा लगाये बैठे हैं। उनकी सोच शायद यह रही कि  जब टिकट फाइनल हो जायेगा तो पार्टी का सिंबल लाकर खाली जगह में फिट कर देंगे, या फिर कुछ और।  खैर पोस्टर उनके भी फटे, असल में सबके फटे।
बच्चों को सबसे ज्यादा मजा पोस्टर में छपे नेताजी की तस्वीर की आँखे निकालने में आता है। अलग-अलग तरीके से निकाली गई तस्वीरों की आँखें बहुत कुछ बयान करती हैं।  मानों इस दुनिया  को देखने के लिये  आँखों की जरूरत ही नहीं है क्योंकि पोस्टर में चेहरा तब भी मुस्कराता रहता है। शायद उसे अपनी निकाली गई आँखों का कोई मलाल नहीं रहता है। वैसे भी पोस्टर की बात थोड़ी देर भूलने के बाद लगता है कि दुनिया में आँख वाले तो ज्यादातर हैं लेकिन दिखाई उनको भी नहीं देता। देखकर भी वो अपनी आँख या तो बन्द कर लेते हैं या अनजान ब जाते हैं। बच्चे कहते हैं कि जरूरत ही क्या है आँख की, जब देखना ही नहीं है या देखकर मुस्करान ही है और संवेदनहीन बनकर दाँत ही दिखाना है तो ऐसी आँख रहे ना रहे, क्या फर्क पड़ता है। आँखे निकाले जाने के बाद पोस्टर के नीचे की दीवार दिखाई देने लगती है जो लाल, पीली और ना जाने किस-किस रंग में रंगी होती  है। ऊपर से इंसान दिखाई एक जैसा देता है लेकिन हकीकत इसके उलट होती है। अंदर ना जाने क्या-क्या छुपाकर रखा है उसने, जाति, धर्म, संप्रदाय, घृणा, नफरत, दक्षिणपंथ, वामपंथ और भी बहुत कुछ। बच्चों को इससे क्या मतलब। उन्हे मजा आता है उन तस्वीरों की आँख निकालने में। फाड़ने में। अपना काम करने के बाद उनके मन में खुशी किलकारी मारने लगती है....अंधा। वह जो नहीं होते हुये भी है....और वह जो होते हुये भी नहीं है। बच्चे इस बात को नहीं समझते और जो समझते हैं वह बच्च नहीं है। पर सबसे बुरी बात कि बच्चे हमेशा बच्चे नहीं रहते।

27-10-2017
("दस्तक" सुरेन्द्र पटेल)

Saturday, August 19, 2017

वर्षा सुन्दरी का रूठने की महिमा

अप्रैल में वर्षा सुन्दरी के प्रथम आगमन की  महिमा के बारे में लिखा था लेकिन पूरी मई और जून वर्षासुन्दरी के रुठने से खून के आँसू रोता रहा। मानसून बहुत देर से पहुँचा और वर्षा के इन्तजार में सजाये गये खेत रूपी थाल सूखे ही रह गये। सरकार सूखे की आशंका में सूखकर काँटा होने लगी और देश की अर्थव्यवस्था जलने लगी।
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

इस्तीफा (कहानी)

इस्तीफा
1.
सेन्ट मेरी स्कूल के प्रांगण में आज विषाद की एक अस्वाभाविक सी दरार दिखाई दे रही थी जिसके गहराई का दर्द बच्चों के साथ-साथ परिचारकों के चेहरे पर साफ-साफ महसूस किया जा सकता था। एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था  हर एक क्लासरूम में जो कहीं से भी स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता था। विद्यालय प्रशासन को ऐसा पिन ड्राप साइलेंस वाला माहौल तैयार करने में नाकों चने चबाने पड़ जाते, लेकिन आज बिना किसी आदेश अथवा प्रार्थना के पहली बार समुद्र में तूफान से पहले की शान्ति देखने को मिल रही थी। अचानक ही इस माहौल में खलल डाला विद्यालय के प्रबंधक मिस्टर फ्रांसिस की रुकती हुई कार ने,जिसके ब्रेक की आवाज पूरे वातावरण में एक चीख की भाँति गूँज उठी। हमेशा की तरह ही मिस्टर फ्रांसिस तेजी से अपने कार से उतरे और लंबे-लंबे डग भरते हुये फ्रंट कारीडोर में प्रवेश कर गये। सरसरी निगाह से हर एक क्लासरूम का निरीक्षण करते हुये  शीघ्र ही अपने आफिस में पहुँचकर वे कुर्सी पर बैठने से पहले आदतानुसार चपरासी को घण्टी दबाकर बुलाना नहीं भूले। बैठने से पहले ही चपरासी हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया।
-विद्यालय में इतना सन्नाटा क्यों हैं राधेश्याम।
मिस्टर फ्रांसिस ने अपना कोट उतारा और  राधेश्याम ने उसे लपककर हैंगर पर टाँगते हुये धीरे से जवाब दिया।
-विवेक सर आज जाने वाले हैं ना...।
-हाँ आज उनका विद्यालय में अंतिम दिन है, लेकिन इस सन्नाटे से उनके जाने का क्या संबंध।
मिस्टर फ्रांसिस ने  इस घटना को  कोई तवज्जो नहीं दिया लेकिन चेहरे पर अचानक ही आ गई उलझन की रेखा को वे जाने-अनजाने छुपा नही सके। राधेश्याम  ने एक बार उनके चेहरे की ओर देखा और मिस्टर फ्रांसिस ने अपना चेहरा एक फाइल में छुपा लिया। राधेश्याम बाहर निकलने के लिये धीरे से मुड़ा और जाने से पहले अचानक ही कुछ याद आ जाने की वजह से फिर से मिस्टर फ्रांसिस की ओर मुखातिब हुआ।
-काफी लाऊँ सर।
फाइल में मुँह गड़ाये हुये मिस्टर फ्रांसिस ने धीरे से अपना चेहरा उठाया और राधेश्याम की ओर देखते हुये तंद्रा से जागते हुये बोले।
-अँ...हाँ...।
राधेश्याम जाने के लिये मुड़ा पर अचानक ही मिस्टर फ्रांसिस ने फिर से कहा ।
-रहने दो राधेश्याम, आज काफी पीने का मन नही हैं।
राधेश्याम चला गया और मिस्टर फ्रांसिस उस कमरे में अकेले रह गये, ठीक उसी तरह से जब कुछ सालों पूर्व एक साथ कई अध्यापकों के जाने के बाद रह गये थे। पूरे विद्यालय में कोई ऐसा अध्यापक नहीं था जिसे जिम्मेदारी दी जा सके। पूरे विद्यालय में अस्त-व्यस्तता का माहौल बन गया था जिसका फायदा उठाने के लिये कई लोग ताक में बैठे थे। यहाँ तक कि विद्यालय के बाहर अफवाहों का बाजार भी गर्म हो गया  था। अचानक ही मिस्टर फ्रांसिस की नजर खिड़की के बाहर फूलों की काँट छाँट कर रहे माली पर गई जो बड़ी ही तन्मयता से अपना कार्य कर रहा था। उसकी बड़ी सी कैंची चल रही थी और पौधे की टहनियाँ, पत्ते धीरे-धीरे जमीन पर गिरते जा रहे थे। मिस्टर फ्रांसिस की नजरें गिरी हुई टहनियों पर जाकर टिक गईं जिनकी जरुरत अब उस पौधे को नहीं रह गई थी, या शायद माली को...या फिर मिस्टर फ्रांसिस को।
2.
मिस्टर फ्रांसिस अपने कार्यालय में गहन विचार की मुद्रा में बैठे विद्यालय की वर्तमान परिस्थिति पर विचार कर रहे थे। कुछ दिनों पूर्व विद्यालय के पांच अध्यापक बिना कोई कारण बताये इस्तीफा देकर जा चुके थे और विद्यालय में अध्यापकों की जबरदस्त कमी महसूस हो रही थी। कक्षाएं खाली जा रही थीं और अब तो अभिभावकों की शिकायतें भी आ रही थीं। वैसे तो सेन्ट मेरी कस्बे का एक बहुत ही अच्छा विद्यालय माना जाता था जिसकी गुणवत्ता की धाक पूरे जनपद में थी। मिस्टर फ्रांसिस ने अपनी मेहनत के दम पर सेन्ट मेरी विद्यालय को इस मुकाम तक पहुंचाया था जिसमें प्रवेश दिलाने के बाद अभिभावक निश्चिंत हो जाया करते थे। लेकिन आज उसी सेन्ट मेरी की हालत तूफान में फँसी नाव की भाँति हो गई थी। विचारों के इन्ही भँवर में डूब उतरा रहे मिस्टर फ्रांसिस को बाहर निकाला दरवाजे पर अचानक ही प्रकट हो गये एक छब्बीस-सत्ताइस साल के नवयुवक ने जो अंदर आने की इजाजत माँग रहा था। मिस्टर फ्रांसिस ने उसे अंदर बुलाया और उसका परिचय पूछा।
-सर मेरा नाम विवेक त्रिपाठी है।
युवक ने बैठते हुये कहा। मिस्टर फ्रांसिस ने ध्यान से उसे देखा। साँवले रंग के विवेक को एक बार देखने से कोई विशेष बात नजर नहीं आती थी। हाँ इतना तो जरूर था कि उसका कद 6 फुट से थोड़ा ही कम था और सेहत के मामले में भी वह सामान्य से कुछ ज्यादा ही नजर आता था।
-सर मुझे पता चला है कि आपके विद्यालय में अध्यापकों के लिए रिक्तियाँ हैं।
-जी हैं तो...पर आपको कैसे पता चला।
मिस्टर फ्रांसिस ने उत्सुकता मिश्रित आश्चर्य से पूछा।
-संजय जी ने बताया।
संजय श्रीवास्तव उस अध्यापक का नाम था जिसने विद्यालय में शिक्षकों को भड़काने का मुख्य काम किया था। मिस्टर फ्रांसिस के चेहरे पर शिकन की रेखाएं उभरीं। विवेक ने उनके चेहरे के बदलते हुये भाव को गौर से देखा और सफाई देते हुये कहा।
-मेरा संजय जी से कोई विशेष संबंध नही है, बस इतना ही कि मैं उन्हे जानता हूँ। मिस्टर फ्रांसिस सुनकर थोड़े से सामान्य हुये।
-आपकी क्वालिफिकेशन क्या है।
-हिस्ट्री से एम ए किया है। ग्रेजुएशन में हिस्ट्री के साथ अंग्रेजी भी थी।
कहकर विवेक ने अपने बैग से प्रमाणपत्रों की फाइल निकालकर मिस्टर फ्रांसिस को पकड़ा दी। मिस्टर फ्रांसिस ने फाइलों पर एक नजर डालकर तुरंत ही अगला सवाल दाग दिया।
-बी.एड. नहीं किया आपने।
-कभी जरूरत महसूस नही हुई। जिस क्षेत्र में जाना चाहता था उसमें बी.एड. की कोई अहमियत नहीं थी।
-किस क्षेत्र में जाना चाहते थे।
मिस्टर फ्रांसिस ने आँखें सिकोड़ते हुये पूछा।
-मेरा सपना हमेशा से  ही सिविल सर्विस में जाने का था। लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। दो साल दिल्ली में रहने के बाद आज आपके सामने प्रस्तुत हुआ हूँ।
विवेक के चेहरे पर अचानक ही उदासी के बादल मँडराने लगे और वह मिस्टर फ्रांसिस की आँखों में देखते हुये बोला।
-सर मुझे इस नौकरी की बहुत ज्यादा जरुरत है। एक्सपीरियेंस के मामले में भी मैं आपको निराश नहीं करूंगा, दो साल तक एक विद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया है और ट्यूशन का तो बहुत लंबा अनुभव है। 
एक बार तो मिस्टर फ्रांसिस ने विवेक की बातों का कोई जवाब नहीं दिया। शायद वह विवेक की जरुरत को उसकी आँखों की गहराई से मापने की कोशिश कर रहे थे। मिस्टर फ्रांसिस जैसे लोग कभी भी किसी के सामने अपनी आवश्यकता का पिटारा खोलकर उसे अपने ऊपर हावी होने का मौका नहीं देना चाहते हैं संभवतः इसीलिये मिस्टर फ्रांसिस ने विवेक की धड़कन को अपनी चुप्पी से बढाना उचित समझा। विवेक के चेहरे पर ना जाने कितने भाव आकर चले गये और मिस्टर फ्रांसिस ने उनको जाया नहीं जाने दिया।
-तो मेरी न्युक्ति के बारे में क्या विचार है सर।
-अँ..हाँ..हाँ...आपकी न्युक्ति...आप अपना नंबर छोड़ दीजिये। फोन करके बता दिया जायेगा।
अपने ही विचारों में खो जाने की मिस्टर फ्रांसिस की ये बहुत पुरानी आदत थी। यह आदत थी या फिर एक तरह का तरीका जिसमें सामने वाला अपने आपको महत्वहीन महसूस करता था, कह नहीं सकते थे। विवेक उठा और मिस्टर फ्रांसिस को धन्यवाद करके बाहर निकल गया। मिस्टर फ्रांसिस ने उसके बाहर जाते ही उसकी शिक्षण प्रमाणपत्रों वाली फाइल उठा ली, और ध्यानपूर्वक देखने लगे। विवेक हाईस्कूल से लेकर एम ए तक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। इसके अतिरिक्त उसके पास ना जाने कितने प्रकार के अन्य गतिविधियों से संबंधित प्रमाण पत्र थे जो उसकी काबिलियत को दर्शाते थे। फाइल रखकर मिस्टर फ्रांसिस कुछ सोचने लगे।
3.
विवेक लाइब्रेरी में बैठा कोई फाइल देख रहा था कि अचानक एक छोटा सा लड़का दौड़ता हुआ आया। विवेक ने उसकी ओर देखा।
-सर, आशुतोष का सर फट गया है। शालिनी ने अपने स्केल से उसके सिर पर मार दिया है।
विवेक ने फाइल जल्दी से मेज पर रखा और खड़ा हो गया। विवेक को सेन्ट मेरी में आये हुये छह महीने से ज्यादा का वक्त बीत गया था लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं बीता था जब किसी विद्यार्थी को कोई समस्या नही हुई हो और उसके समाधान के लिये विवेक को याद ना किया गया हो। विवेक स्वभाव से बहुत ही दयालु था जो किसी की सहायता करने के लिये हमेशा उद्यत रहता था। वहीं दूसरे अध्यापक बच्चों की समस्याओं को छोटा जानकर उसे अपने स्तर का नहीं मानते थे और उनको विवेक के पास भेज दिया करते थे।  इसका प्रतिफल यह हुआ कि धीरे-धीरे विवेक बच्चों के बीच में एक अलग स्थान बनाता गया और दूसरे अध्यापकों के मन में उसके प्रति ईर्ष्या की भावना घर करती गई। विवेक दौड़ता हुआ कक्षा तीन में पहुँचा जहाँ पर दो तीन बच्चे आशुतोष को ले आने का प्रयास कर रहे थे। कक्षाध्यापक, जिनका नाम राजीव गुप्ता था पास में ही खड़े होकर ऐसा दिखाने का प्रयास कर रहे थे कि देखने वाले को यह बिल्कुल ना अहसास हो कि वह इन सबमें नहीं पड़ना चाहते हैं। लेकिन उनके द्वारा किये जाने वाले सारे प्रयासों का केन्द्रबिन्दु अपने कपड़ों को गंदा होने से बचाना था। विवेक आशुतोष के पास पहुँचा और उसे अपने हाथों में उठाकर नीचे लाइब्रेरी में ले आया। तबतक चपरासी और दाई भी वहाँ आ चुके थे।  विवेक ने उसके घाव को साफ किया और मलहम लगाकर तत्कालिक रूप में एक पट्टी बाँध दी। दाई आशुतोष के सिर के ऊपर हवा करने लगी। इतना सब कुछ हो जाने के बाद कुछ अध्यापक और आये जिन्होने आशुतोष के बारे में बात करनी शुरु कर दी।
-अरे सर जाने दीजिये बहुत शरारती लड़का है।
-दिन भर धामचौकड़ी मचाता रहता है।
-क्या कर रहे थे जी, कक्षा में दौड़ रहे थे क्या।
अचानक एक साथ हुये इतने सवालों का जवाब देना आशुतोष के लिये मुश्किल था, इसलिये उसने बस इतना कहा कि शालिनी ने उसे मार दिया था। अध्यापकों को उसकी बात पर यकीन ही नही हुआ। उधर विवेक ने मिस्टर फ्रांसिस को फोन लगाया। थोड़ी देर में उधर से आवाज आयी।
-गुड मार्निंग सर।
-सर यहाँ पर एक लड़के के सिर में चोट लग गई है। डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा।
-चोट...चोट कैसे लगी। अध्यापक क्या कर रहे थे।
-सर एक लड़की ने उसे स्टील के स्केल से मार दिया था।
-वहीं तो मैं कह रहा हूँ कि उस कक्षा में अध्यापक आखिर कर क्या रहे थे। मैंने कितनी बार कहा है कि पढ़ाते समय ध्यान पूरी क्लास पर होना चाहिये। अध्यापक वही है जो एक-एक बच्चे की हरकतों पर नजर रखता है। पर यहाँ तो अध्यापक ऐसे पढ़ाते हैं कि कक्षा में बच्चे मारपीट कर रहे हैं और उन्हे नजर ही नही आता।
मिस्टर फ्रांसिस थोड़े से शब्दों में अपनी बात ना कह पाने की समस्या से काफी लंबे समय से परेशान थे, लेकिन वह परेशानी अब विवेक के चेहरे से झलक रही थी।
-सर ये बातें बाद में हो जायेंगी, पहले इस बच्चे का कुछ किया जाये। डाक्टर को दिखाना बहुत जरूरी है। फिलहाल तो मैने पट्टी बाँध दी है लेकिन यह काफी नही है। एक छोटे से बच्चे के लिहाज से चोट ज्यादा है।
-मैं यहाँ से गाड़ी भेजता हूँ। आप साथ चले जाइयेगा।
-मेरी क्लास है सर...। चन्द्रमोहन सर फिलहाल खाली हैं। उन्हे भेज दिया जाय।
-वो नहीं हैंडिल कर पायेंगे आप ही चले जाइये। मैं गाड़ी भेजता हूँ।
उधर से फोन कट गया। विवेक ने एक बार  फोन को देखा और फिर उसे अपनी जेब में रख लिया। हर बार यही होता था। कहीं किसी बच्चे को कुछ होता था तो डाक्टर को दिखाने के लिये विवेक को ही जाना पड़ता था। भले ही उसकी क्लास छूट जाये या फिर उसका कोर्स  अधूरा रह जाये या फिर कापियाँ ना चेक हो पायें। इसके अलावा और भी ना जाने कितने काम थे जिन्हे बिना किसी के कहे विवेक अपना कर्तव्य जानकर कर दिया करता था। कोई कार्यक्रम कराना हो, कोई अन्य क्रिया कलाप कराना हो, कोई प्रतियोगिता करानी हो, या फिर कोई फंक्शन कराना हो, विवेक उसे अपनी जिम्मेदारी समझकर कर दिया करता था। इतने समय में विवेक ने स्वतंत्रता दिवस, शिक्षक दिवस बाल दिवस इत्यादि के अतिरिक्त कक्षा दस के विदाई समारोह का आयोजन करवाया था। इन सारे कार्यक्रमों के लिये उसने किसी भी अध्यापक की कोई मदद नही ली। सारा काम उसने विद्यार्थियों से मिलकर करवाया। यही वजह थी कि अध्यापकों के मन में उसके प्रति  ईर्ष्या की भावना और भी बढती गई।  इस संबंध में मिस्टर फ्रांसिस ने भी कई बार उसे टोक दिया था कि किसी भी कार्यक्रम के आयोजन में अन्य अध्यापकों की मदद भी ले ली जाये। इसके पीछे मिस्टर फ्रांसिस का यह तर्क था कि विद्यालय को किसी एक अध्यापक के ऊपर निर्भर नही होना चाहिये। उनकी बातों पर ध्यान देकर ही विवेक ने हमेशा कार्यक्रम के पूर्व अध्यापकों को उसके बारे में बताना प्रारंभ किया लेकिन सहायता लेने के संदर्भ में उसने कभी किसी को मुँह खोलकर नही कहा। इसके पीछे उसका तर्क था कि जिसे मदद करनी होगी वह स्वयं ही आगे आ जायेगा। इतने देर में जीप विद्यालय में आ गई और चपरासी की मदद से विवेक ने आशुतोष को उसमें चढ़ाया और खुद भी बैठ गया।
4.
शाम के साढ़े सात बज रहे थे। मिस्टर फ्रांसिस अपने कमरे में  बैठे कुछ काम कर रहे थे कि अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई और उन्होने आने वाले को अंदर आने के लिये कहा। दरवाजा खोलकर विवेक अंदर आया।
-गुड इवनिंग सर।
-गुड इवनिंग...बैठिये।
विवेक एक कुर्सी खींच कर बैठ गया और मिस्टर फ्रांसिस भी अपना ध्यान अपने काम से हटाकर विवेक की ओर देखने लगे। विवेक ने इधर-उधर देखते हुये  बात शुरू की।
-सर जैसा कि आप जानते हैं कि सेन्ट मेरी के अतिरिक्त फिलहाल तो मेरा कोई करियर नही है। इसीलिये मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करता हूँ, विद्यालय की भलाई के लिये, विद्यार्थियों की भलाई के लिये।
-हूँ...।
मिस्टर फ्रांसिस ने बिना प्रभावित होते हुये कहा। विवेक ने बात जारी रखी।
-मेरे परिवार के बारे में तो आप जानते ही हैं, सारा दारोमदार मेरे ऊपर है।
विवेक अपनी हथेलियों को आपस में हल्के फुल्के ढंग से रगड़ने लगा। मनोविज्ञान के पंडित मिस्टर फ्रांसिस को समझते देर नहीं लगी कि विवेक कोई आशा लेकर यहाँ उपस्थित हुआ है। उन्होने अपने आपको तैयार कर लिया कि उसकी माँग का क्या जवाब देना है।
-आपने न्युक्ति के समय मुझसे यह कहा था कि जल्दी ही काम के अनुसार आपकी तनख्वाह बढ़ा दी जायेगी। मेरा काम तो आप देख ही चुके हैं। पूरे साल मैने अपने पारिश्रमिक के लिये कुछ नहीं कहा क्योंकि मुझे पता है कि आपने कहा है तो जरूर कुछ करेंगे। अभी मैं यह विनती करने के लिये उपस्थित हुआ हूँ कि पारिश्रमिक वृद्धि के संदर्भ में मेरे पिछले साल किये गये कार्यों को जरूर ध्यान में रखा जाय और थोड़ी कृपा करके इतनी वृद्धि अवश्य कर दी जाये कि मेरा काम सुचारु रूप से चल सके। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि अगला साल मेरे कार्यों के संदर्भ में और भी ज्यादा याद किया जायेगा।
-मुझे आपके कार्यों के बारे में पता है सर, पर शायद आपको नहीं पता कि यहाँ पर हर साल अध्यापकों के पारिश्रमिक में वृद्धि होती है और वह वृद्धि मामूली नही बल्कि अच्छी खासी होती है।
-ठीक है सर। मैं तो बस आपके ही सहारे ही हूँ। अच्छा तो मैं चलूँ।
-ठीक है...।
विवेक निकलने के लिये मुड़ा पर अचानक ही मिस्टर फ्रांसिस को कुछ याद आया और उन्होने विवेक को वापस बुलाया।
-विवेक जी...एक डिजाइन करवाना था।  हाँलाकि मैने कभी विद्यालय का प्रचार नहीं करवाया पर इस साल कई लोगो ने इसके लिये टोका। उनका कहना है कि प्रचार के लिये ना सही, स्कूल के बारे में बताने के लिये ही कस्बे में कुछ बोर्ड लगवा दें।
-सही है सर...सभी विद्यालय के बोर्ड लगते हैं, बस सेन्ट मेरी ही उनके बीच में गायब रहता है।
-इसीलिये मैने सोचा कि इस बार कुछ बोर्ड लगवा दिये जायें।
मिस्टर फ्रांसिस ने अपनी फाइल से एक कागज निकाला और विवेक को दे दिया।
-इसमें डिटेल्स हैं। देख लीजियेगा। डिजाइन बढ़िया होना चाहिये।
 विवेक की कंप्यूटर और डिजाइनिंग की जानकारी की वजह से मिस्टर फ्रांसिस अक्सर उसे इस प्रकार के कार्य दे दिया करते थे जिसे कराने में उन्हे मार्केट में जाना पड़ता और काम भी उस तरह से नही हो पाता जिस प्रकार से विवेक कर दिया करता था। इस तरह के ना जाने कितने कार्य विवेक ने विद्यालय और मिस्टर फ्रांसिस के लिये किये थे। अपनी लगन और कर्तव्यनिष्ठा के बदले में विवेक पारिश्रमिक में थोड़ी सी वृद्धि चाहता था तो उसे कहीं से भी गलत नहीं कहा जा सकता था।
5.
विवेक बाजार में खड़ा सब्जी खरीद रहा था जब उसके पास सेन्ट मेरी विद्यालय के ही एक अन्य अध्यापक शैलेष कुमार का फोन आया। नंबर देखने के बाद उसने फोन उठाया।
-हाँ शैलेष कैसे हो...।
-ठीक हूँ  सर जी। आप कैसे हैं। मेरी भी इन्क्रीमेन्ट हुई है।
-कितनी।
विवेक ने उत्सुकतापूर्वक पूछा, क्योंकि उसे पता था कि सारे अध्यापकों के वेतन में एक हजार रुपये की वृद्धि हुई है, सिवाय उसके। मिस्टर फ्रांसिस ने उसके अनुरोध को स्वीकार करते हुये उसके वेतन में डेढ़ हजार रुपये की वृद्धि की थी। हाँलाकि ये वृद्धि विवेक के आशानुरुप नही थी लेकिन उसने यह सोचकर संतोष कर लिया कि बाकी अध्यापकों की तुलना में उसकी वृद्धि ज्यादा ही थी। इसीलिये जब शैलेष ने खुश होकर अपने इंक्रीमेन्ट के बारे में बताया तो उसकी उत्सुकता बढ़ गई। शैलेष ने जब जवाब दिया तो विवेक के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। एक बार तो उसे विश्वास ही नही हुआ कि मिस्टर फ्रांसिस ने वाकई उसके साथ ऐसा किया है। शैलेष के वेतन में भी डेढ़ हजार की इंक्रीमेन्ट की गई थी।  विवेक की आँखों के सामने पिछला साल किसी पहिये की भाँति अचानक ही घूम गया। उसे अपनी मेहनत, अपनी लगन और विद्यार्थियों के चहुँमुखी विकास के लिये किये जाने वाले प्रयास याद आने लगे, जो उसने बिना किसी के कहे ही किये थे। स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा बाँधने के सवाल पर सारे अध्यापकों का मुँह छिपाना रहा हो या फिर वार्षिक पुरस्कारों के आयोजन की पूर्व संध्या पर रात के बारह बजे विद्यालय कैंपस में में साउण्ड और लाइट की व्यवस्था कराना रहा हो, एक-एक करके सभी विवेक के सामने आने लगे, जैसे कल ही की बात हो। उसे दुख इस बात का नहीं था कि शैलेष की तनख्वाह डेढ़ हजार बढी है, उसे दुख इस बात का था कि शैलेष की तनख्वाह उसके बराबर ही बढी है जबकि कार्य के मामले में शैलेष उसके सामने कहीं नही टिकता। विवेक ने निश्चय किया कि इस बारे में वह मिस्टर फ्रांसिस से बात जरुर करेगा कि आखिर किस वजह से शैलेष की तनख्वाह उसके जितनी बढ़ी है।
किसी तरह से सब्जी वगैरह खरीद कर विवेक वापस घर आया लेकिन रास्ते भर वह इस सोच से छुटकारा नहीं पा सका। घर पहँचते ही उसने तुरंत ही मिस्टर फ्रांसिस को फोन लगाया। काल कनेक्ट होते ही उधर से आवाज आयी।
-गुड इवनिंग सर।
-गुड इवनिंग सर। आपसे एक बात कहनी थी।
विवेक ने थोड़े दबे स्वर में कहा।
-हाँ-हाँ कहिये।
-सर मेरी बात को एक शिकायत के तौर पर मत लीजियेगा और इसे अन्यथा भी मत लीजियेगा। जैसा कि आप जानते हैं कि स्वभाव से ही मैं प्रतिक्रियावादी रहा हूँ। ऐसे किसी मसले पर, जिससे में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित होता हूँ, बिना प्रतिक्रिया दिये नहीं रह सकता।
-कोई बात नहीं, आप बेहिचक कहिये।
-सर मैने सुना है कि शैलेष सर का वेतन भी मेरे जितना ही बढ़ा है।
-ठीक सुना है आपने।
-उसी सिलसिले में बात करनी थी। सर मैने पिछले साल ना जाने कितने कार्य किये बेहिसाब समय भी दिया ताकि विद्यालय और विद्यार्थी दोनों का भला हो सके। फिर ऐसा क्यों हुआ कि शैलेष के द्वारा किये गये कार्यों को मेरी श्रेणी में रख दिया गया। जबकि असलियत तो यह है कि शैलेष ने मेरे चौथाई भी काम नहीं किया है।
-सर वेतन में वृद्धि तो सबकी एक हजार ही होनी थी लेकिन आपके कार्यों को देखते हुये आपके वेतन में कुछ ज्यादा वृद्धि करने की योजना पूर्व में ही थी। जहाँ तक शैलेष के वेतन वृद्धि की बात है तो वह भी मेरे द्वारा दिये गये सारे कार्यों को निष्ठापूर्वक कर लेते हैं। इसलिये मैने सोचा कि उनके वेतन में भी कुछ ज्यादा वृद्धि हो जाये।
-सर..शैलेष आपके द्वारा दिये जाने वाले कार्यें को ठीक तरीके से पूरा कर लेते हैं लेकिन मेरा क्या, मैं तो वह काम भी निष्ठापूर्वक करता हूँ जो आप नहीं कहते। सबसे पहले विद्यालय में आता हूँ और सबसे बाद में जाता हूँ। विद्यार्थियों में विकास की नई-नई संभावनायें तलाश करता रहता हूँ और उसके लिये प्रयास भी करता हूँ। क्या शैलेष मेरे जितना कार्य करते हैं।
-सर कार्य करना अच्छी बात है लेकिन यह कहना कि आप ही सबसे ज्यादा कार्य करते हैं, अच्छी बात नही हैं। शेलेष की वृद्धि इसलिये भी की गई है कि बाकी अध्यापकों को यह संदेश जा सके कि वह भी इस तरीके की इंक्रीमेन्ट के हकदार हो सकते हैं, बशर्ते उन्हे मेहनत करनी होगी।
-आपने दूसरे अध्यापकों को प्रेरणा देने की बात तो सोची लेकिन मेरी प्रेरणा का क्या होगा, शैलेष के वेतन में अपने बराबर की वृद्धि देखकर मेरे मन पर क्या बीत रही होगी।
-देखिये सर ऐसा नहीं है कि वृद्धि सिर्फ आपकी ही होती। अगर दूसरे अध्यापक अपनी कार्यशैली सुधार लें तो अगले साल उनकी भी इतनी ही वृद्धि हो जायेगी। कार्य कौन ज्यादा कर रहा हौ और कौन कम, वृद्धि इसके आधार पर नहीं होती। एक क्राइटेरिया बना दिया गया है जिसके हिसाब से काम करने वाले की इंक्रीमेन्ट तय है।
-उन लोगों का क्या जिनका कार्य उस क्राइटेरिया में सिमट ही नहीं पाता।
-सर आप समझ नहीं पा रहे हैं, आप सबसे ज्यादा कार्य करते हैं इसमें कोई शक नही, लेकिन सिर्फ आपकी तनख्वाह सबसे ज्यादा बढ़ा दी जाये...अध्यापकों में गलत संदेश जायेगा। मुझपर पक्षपात का आरोप भी लग सकता है।
-लेकिन काम ...
-सर काम तो सभी करते हैं। कोई ज्यादा तो कोई थोड़ा कम। अब इस हिसाब से तनख्वाह बँटनी शुरु हो जाये तो ना जाने कितनी श्रेणियाँ बन जायेंगी। विद्यालय है, कोई कारखाना नही। मैं सारे अध्यापकों को समान मानता हूँ और नहीं चाहता कि कहीँ से भी मेरे ऊपर पार्शियलिटी का आरोप लगे।
विवेक उसी विद्यालय में दक्षिण भारत के अध्यापकों के वेतन के बारे में सोचने लगा जो स्थानीय अध्यापकों के मुकाबले कहीं ज्यादा थी। अब विवेक को लगने लगा कि ज्यादा बात करने से कुछ नहीं होगा, सिर्फ अपनी जुबान ही खाली होगी। आगे उसने सिर्फ इतना ही कहा-
-ठीक है सर आप जो कह रहे हैं ठीक ही होगा। लेकिन मुझे हमेशा इस बात का अफसोस होगा कि मेरी मेहनत को नजरअंदाज कर दिया गया।
कहकर उसने फोन काट दिया और अपने भविष्य के बारे में सोचने लगा। सेन्ट मेरी में एक और दिन भी रहना उसके लिये असह्य हो रहा था। विवेक के लिये सबसे बुरी बात यह थी कि उसने वेतन बढ़ाने के लिये मिस्टर फ्रांसिस से गुजारिश की थी जो एक तरह से बेकार ही गई।  विद्यालय और विद्यार्थियों से विवेक को एक विशेष प्रकार का लगाव हो गया था जिसे एक झटके में त्यागना उसके लये मुश्किल था इसीलिये इस्तीफा देने के बारे में उसने पूरी रात सोचा।
मिस्टर फ्रांसिस की नजर अभी भी जमीन पर गिरी हुई टहनियों और फूल पत्तों पर थी जिसमें उन्हे विवेक की छवि नजर आ रही थी। कमरे के वातावरण में उन्हे घुटन सी महसूस होने लगी और वे बाहर निकल आये। सामने से विवेक आता दिखाई दिया। उसने पास आकर मिस्टर फ्रांसिस को विश किया और जाने की इजाजत माँगी।
-तो आखिर आप जा ही रहे हैं।
-किसी ने रोका भी तो नहीं सर इसलिये लगता है कि मेरी जरूरत नही हैं विद्यालय को, वरना मुझे इस तरह नहीं जाने दिया जाता।
-जाने का निर्णय आपका था विवेक जी, इसमें कोई क्या कर सकता है।
-कुछ नहीं सर...। वैसे भी विद्यालय का भविष्य अब उज्ज्वल है।
-सेन्ट मेरी विद्यालय का भविष्य हमेशा ही उज्ज्वल रहा है विवेक जी। इसकी नींव इतनी मजबूत है कि किसी के आने या जाने का कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन आप बताइये, क्या करने का इरादा है अब।
-किसी और के लिये काम ना करना, फिलहाल तो यही इरादा है। बाकी भगवान की मर्जी देखते हैं क्या होता है।
कहकर विवेक मिस्टर फ्रांसिस को नमस्कार करके गेट से बाहर निकल गया।


सुरेन्द्र पटेल, 02 सितंबर, 2012

बाढ़ का कहर

बाढ़ में  डूबा हुआ प्राथमिक विद्यालय
समस्त उत्तर भारत में पिछले कई दिनों से हो रही मूसलाधार बारिश की वजह से हिमालय से निकलकर उत्तर के मैदान में बहने वाली नदियाँ खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। जगह-जगह तेज बहाव के कारण टूट चुके तटबन्धों से बह रहे पानी ने हजारों गाँवों को समंदर बना दिया है। जिधर देखिये उधर पानी ही पानी नजर आ रहा है। गोरखपुर-बस्ती मंडल के दर्जनों जिले बाढ़ की कहर से सहमे हुये हैं और हजारों जिंदगियाँ दूसरों की कृपा की मोहताज हो गई हैं।
क्या मूसलाधार बारिश बाढ़ की असली वजह है?
कायदे से कहा जाय तो कतई नहीं। बाढ़ की असली वजह बारिश नहीं बहुत हद तक प्रशासन की लापरवाही है। हालाँकि हर साल की तुलना में बारिश इस बार कुछ दिनों के अंतराल में ज्यादा हुई लेकिन इतने बड़े स्तर पर बाढ़ लाने में मात्र इसकी भूमिका को ही रेखांकित नहीं किया जा सकता है। असल में बाढ़ का कहर नदियों के किनारे वाले क्षेत्रों में ज्यादा दिखाई दे रहा है जिसकी वजह है बंधों का टूटना। नेपाल के पहाड़ी इलाकों से बारिश का पानी नदियों के जरिये उ.प्र. के तराई जिलों जैसे-महराजगंज, सिदधार्थनगर इत्यादि जिलों मे आता है। अचानक हुई आशा के विपरीत ज्यादा बारिश ने नदियों के किनारों पर दबाव बनाया और सालों से कमजोर बन्धे एक-एक कर टूटते गये। 

महराजगंज में बाढ़ की स्थिति-
बाढ़ में डूबी हुई सड़क
महराजगंज जनपद के वे इलाके जो नदियों के किनारे वाले हिस्से में पड़ते हैं वहाँ बाढ़ की विभिषिका ज्यादा देखने को मिल रही है। जनपद के फरेंदा, पनियरा, धानी, नौतनवा, ठूठीबारी इत्यादि क्षेत्रों में बाढ़ अपने चरम स्थिति पर है। सैकड़ों गाँव जलमग्न हैं और उनको राहत पहुँचाने में प्रशासन के पसीने छूट रहे हैं। रोहिन नदी के आसपास का इलाका पूरी तरह पानी में डूब गया है और गाँव टापू की तरह दिखाई दे रहे हैं। महराजगंज का एकमात्र इंजीनियरिंग कालेज, आई टी एम पूरी तरह से पानी में  डूब गया है। कई लोंगे की मृत्यु हो चुकी है और सैकड़ों मवेशी लापता हैं। महराजगंज-फरेंदा मार्ग, ठूठीबारी-निचलौल-मार्ग, महराजगंज-पनियरा मार्ग पर आवागमन पूरी तरह ठप है। जिलाधिकारी के आदेश पर जनपद के समस्त स्कूल, कालेज 20 अगस्त तक बन्द कर दिये गये हैं।

नगर पालिका की हालत बुरी-

मूसलाधार बारिश की वजह से महराजगंज नगर पालिका की हालत पूरी तरह से खस्ता हो गई है। पानी की उचित निकासी न होने की वजह से कई मुहल्ले पूरी तरह से पानी में डूब चुके हैं। मुख्य सड़कें चलने लायक नहीं हैं और दुकानों में पानी घुँस गया है। व्यापार पूरी तरह से ठप  है।

बाढ़ के बाद बीमारी-

समस्या आगे और भी भयंकर होगी जब पानी उतरने के बाद बाढ़ग्रस्त इलाकों में संक्रामक और मच्छर जनित बीमारियों का प्रकोप बढेगा। प्रशासन को इसका सामना करने के लिये अभी से तैयार होना पड़ेगा क्योंकि आने वाले समय में बीमारियाँ महामारी की तरह फैलेंगी। 


दस्तक सुरेन्द्र पटेल
निदेशक
माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स

Monday, June 19, 2017

विराट एण्ट कंपनी


अपेक्षायें प्रदर्शन को प्रभावित करती हैं।
अपेक्षाओं का दबाव
एक छोटी सी कहानी जो मैं अक्सर सुनाता हूँ, आपको भी सुनाना चाहता हूँ।
एक छोटे से गाँव में रूई धुनने वाला धुनिया रहता था। गाँव में छोटे-मोटे रजाई गद्दे बनाकर उसका और परिवार का गुजारा नही हो पा रहा था इसलिये वह शहर चला गया। शहर भी कोई ऐसा-वैसा नहीं, मुंबई। एक परिचित के साथ वह घूमने के लिये यूँ ही बन्दरगाह चला गया जहाँ एक गोदाम में उसने पहाड़ जैसे रूई के गट्ठर देखे। जहाँ तक नजर जाती थी बस उसे रूई ही रूई दिखाई देती थी। देखते ही देखते उसे चक्कर आया और वह बेहोश हो गया। गोदाम के अंदर हल्ला मच गया। थोड़ी देर में वहाँ भीड़ जुट गई और देखते ही देखते उसे हास्पिटल पहुँचा दिया गया। डाक्टर को कुछ समझ नहीं आ रहा था क्योंकि उसकी शरीर पूरी तरह से ठीक था और धड़कन सामान्य रूप से चल रही थी। सभी लोग उसके परिचित की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे। डाक्टर ने विस्तार से उससे पूरी बात सुनी और उसे धुनिये की बीमारी के बारे में पता चल गया। वह बाहर गया और थोड़ी देर में कमरे के बाहर शोर मच गया कि रूई के गोदाम में आग लग गई-रूई के गोदाम में आग लग गई....काफी देर तक यह शोर आस-पास गूँजता रहा और सबकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं जब उन्होने देखा कि धुनिया बड़बड़ाते हुये उठा- बहुत अच्छा हुआ कि रूई के गोदाम में आग लग गई वरना सारी रूई मुझे ही धुननी पड़ती...मैं तो मर जाता
ठीक यही स्थित भारतीय क्रिकेट टीम के सामने अक्सर उपस्थित होती रहती है। हर बार वह अपने ऊपर बेजा अपेक्षाओं का इतना अधिक दबाव ले लेती है कि रेशम के कीड़े की भाँति अपने द्वारा ही बनाये गये रेशम में उलझकर दम तोड़ देती है। और बात जब भारत-पाकिस्तान मैच की हो तो यह दबाव युद्ध स्तर का हो जाता है जहाँ शुरुआती पिछड़ाव पूरा युद्ध हरवा देता है।
जब भारत दूसरी इनिंग में बल्लेबाजी करने उतरा तो रोहित शर्मा से लगायत, शिखर धवन, विराट कोहली, युवराज सिंह और महेन्द्र सिंह धोनी शायद यही सोचकर उतरे कि सारा दारोमदार उन्ही के ऊपर है और अगर वह आउट हो गये तो भारत मैच हार जायेगा। और अगर भारत मैच हार जायेगा तो उनकी तो छोड़ो, देशवासियों का दिल टूट जायेगा। एक अरब लोगों को पाकिस्तान से हारने का दुख वर्षों तक सालता रहेगा। अब क्या कहें ऐसे देशवासियों और क्रिकेट प्रेमियों को जिनका दिल, मासूम बच्चियों और औरतों से बर्बर बलात्कार और हत्या से नहीं टूटता। उनका दिल तब नहीं टूटता जब पैसे के अभाव में अस्पताल में कोई गरीब दम तोड़ देता है और उसके परिवार वालों को शव कंधे पर लादकर ले जाना पड़ता है। उनका दिल तब भी नहीं टूटता है जब गुंडे ताकत और धनवान पैसे के दमपर लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं। लेकिन उनका दिल भारत के क्रिकेट मैच हार जाने पर जरूर टूट जाता है और पाकिस्तान से हारने पर तो उनको हार्ट अटैक आ जाता है।
बार-बार ऐसा क्यों हो जाता है क्रिकेट खिलाड़ियों से हम इतनी उम्मीद क्यों लगाकर रखते हैं। क्यों उसी शाम को कदांबी श्रीकान्त और हाकी टीम के जीतने की खबर भारत के हारने की खबर के नीचे दब जाती है। इसकी एकमात्र वजह है क्रिकेट की ब्राडिंग और खिलाड़ियों को सुपर हीरो की तरह पेश करना। भारत में दस साल पहले तक कोई ऐसा खेल नहीं था जिसपर भारतीय गर्व कर सकें। हाकी की प्रतिष्ठा कई दशकों पहले ही मिट्टी में मिल चुकी थी। इसके अलावा कोई और खेल था ही नहीं जिसमें भारतीय चुनौती गंभीरतापूर्वक ली जाती। क्रिकेट में भी ऐसा कुछ था नहीं...वो तो 1983 का वर्ड कप था जिसमें भाग्य के सहारे भारतीय टीम ने दो बार के चैंपियन वेस्टइंडीज को हरा दिया। किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी और कहा तो यहाँ तक गया कि यदि अगले 100 मैच भारतीय टीम वेस्टइंडीज के साथ खेलती तो उसके एक भी मैच जीतने की उम्मीद नहीं थी। भाग्य के सहारे जीत का सिलसिला 2011 में महेन्द्र सिंह धोनी की अगुवाई में टूटता हुआ दिखाई दिया और वर्तमान टीम हर मायने से पुरानी टीम से बेहतर है। वह चैंपियन्स ट्राफी जीतने की दावेदार थी लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई।
जब विश्वास रूपी नाव में भय रूपी छेद हो जाता है तो नाव के डूबने का समय तो नहीं लेकिन परिणाम तभी तय हो जाता है। कल समाचार चैनलों को शायद कोई खबर ही नहीं मिली सिवाय भारत पाकिस्तान क्रिकेट मैच के कवरेज के। महासंग्राम, सदी का मुकाबला, रणभूमि, जीता है जीतेंगे....और भी ना जाने क्या क्या शीर्षकों से समाचार दिखाये जा रहे थे। और जब भारत हार गया तब भी वह भिन्न-भिन्न शीर्षकों से समाचार दिखा रहे होंगे। एक बात तो साफ है...किसी की हार हो किसी की जीत हो, कोई मरे-कोई जिये, कहीं फसल अच्छी हो-कहीं सूखा पड़ जाये, कुछ भी हो, मीडिया की पाँचों उंगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में रहता है।

फिलहाल कोई कुछ भी कहे, भारतीय टीम चैंपियन्स ट्राफी जीत सकती थी, यदि वह हार गई है तो इसकी एकमात्र वजह है....दबाव। 10 विकेट मात्र दस गेंदों पर ही गिरते हैं...और एक गेंद को गेंदबाज के हाथ से निकलने और बल्ले पर पहुँचने में सेंकेन्ड भी नहीं लगता है...उसके बीच में यदि बैट और बाल के अतिरिक्त उसे कुछ भी दिखाई-सुनाई दिया तो आउट होना तय है। भारतीय टीम इसी दस सेकेण्ड में हारी...बाकी तो पूरे टूर्नामेन्ट में वह विजेता की तरह खेली।
दस्तक सुरेन्द्र पटेल
निदेशक माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल
लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...