Monday, May 31, 2010

दोस्तों

दोस्तों, हम दिन भर में सैकड़ों मैसेज भेजते हैं, वे चुटकुले होते हैं, कमेंट होते हैं, इमोशंस होते हैं, फ्लर्टी होते हैं, डर्टी होते हैं....लेकिन क्या आपने ये भी कभी सोचा है कि भारत में कितने प्रतिशत गरीबी है, कितने लोग प्रतिदिन भूखे सोते हैं, कितने बच्चे प्रतिदिन वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेले जाते हैं, हमारी शासन व्यवस्था विश्व में किस पायदान पर आती है, हम भ्रष्टाचार में किस नंबर हैं, भारत के प्रति व्यक्ति पर वर्ल्ड बैंक का कितना कर्ज है....।

खाली समय में कभी-कभी ये भी शेयर कर लिया कीजिये...सही है कि अकेला कुछ नही कर सकता, लेकिन कई लोग अगर सोच लें तो कुछ भी कर सकते हैं...भारत नही अपनी आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचिये, शायद उसके पास ये सोचने का वक्त भी नही होगा.....।

अगर आप कुछ कहना चाहते हैं तो प्लीज कमेंट दें.....http//:dastuk.blogspot.com

Saturday, May 29, 2010

नेताओं का प्रिय खेल तू-तू मैं-मैं

कब तक खून बहेगा आखिर कुर्सी खातिर जनता का,

कब तक नक्सलवाद रहेगा, लावा बना उफनता सा,

कितने ताज जलेंगे, कितने हमले होंगे संसद पे,

ना जाने कब तक हर बच्चा सोयेगा रात सहमता सा।




वैसे तो भारत में क्रिकेट खेल के उस मुकाम तक पहुँच गया है जहाँ गाहे-बगाहे इसे धर्म की संज्ञा दे ही दी जाती है, और वह धर्म ही है जिसने भारत को इस अधःपतन के गर्त में लाकर खड़ा कर दिया है। खैर मैं अपने मुद्दे से भटकना नही चाहता इसलिये मुख्य बिंदु पर आता हूँ कि नेताओं का प्रिय खेल क्या है- गौर से नजर डाली जाये तो पता चलेगा कि ये तू-तू, मैं-मैं है। दुर्भाग्यवश भारत में कोई भी दुर्घटना या फिर हादसा, या फिर आतंकी हमला होता है तो नेता बड़ी शिद्दत से इस खेल को, जीतने की पूरी कोशिश करते हुये खेलने लगते हैं। ऐसा लगता है कि वे अगर हार गये तो उनका जीवन संकट में पड़ जायेगा, सही भी है कि हारने की वजह से उनकी कुर्सी संकट में पड़ जायेगी, और कुर्सी बोले तो नेता का जीवन।

इस तथ्य को जरा और निकट से जानने की कोशिश करते हैं। 22 मई 2010 को मंगलौर में एअर इंडिया का प्लेन क्रैश हुआ जिसमें 23 की शाम तक 104 यात्रियों के मरने की खबर क्लीयर हो चुकी थी। अगर हमारे देश के नागरिक उड़्डयन मंत्री में जरा भी शर्म और जिम्मेदारी की भावना होती तो वो सबसे पहले अपना इस्तीफा देते। 150 यात्रियों की जिंदगी उनकी कुर्सी के सामने छोटी पड़ जाती है और वे गाँव की पतुरियों की तरह आक्रामक मुद्रा अपनाते हुये एअर इंडिया के अधिकारियों पर निशाना लगाते हैं, ताकि उनकी तशरीफ रखने की जगह सुरक्षित ही रह सके। 22 मई की दुर्घटना हो, या फिर 26-11 का आतंकी हमला, नक्सलियों की प्रतिदिन की खेले जाने वाली खून की होली हो या फिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ की वजह से जाने वाली किसी यात्री की कुत्ते की तरह जान हो, हमारे देश में किसी भी नेता या फिर बड़े अधिकारी के दिल में चुल्लू भर पानी में डूब मरने का बाइज्जत ख्वाब भी नही आता।

हर घटना के बाद अपनी-अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करना प्रारंभ कर देते हैं और कुछ दिन बाद जनता भी सारी बातें भूल जाती है फिर से एक नई घटना का पर तू-तू, मैं-मैं सुनने के लिये।

Thursday, May 20, 2010

किस्सा कसाब का....

सबसे बड़ा दोष तो हमारे देश के कानून में हैं, जो अपने चोले के अनगिनत फटे छेदों से अपने कंचन शरीर को छुपाने के प्रयास में दोषियों के हाथ से बार बार बलात्कारित की जा रही है....

चार्ल्स शोभराज ने कभी कहा था कि भारत अपराधियों के लिये स्वर्ग है, लेकिन वर्तमान परिवेश में यह आतंकवादियों के लिये भी स्वर्ग बन गया है। मेरे खयाल में विश्व का कोई ऐसा देश नही होगा जहाँ पर सैकड़ों लोगों की हत्या करने में शामिल किसी आतंकवादी, जिसे करो़ड़ों लोगों ने गोलियाँ चलाते हुये टीवी पर देखा उसे फाँसी की सजा सुनाने के लिये अदालत ने डेढ़ साल से अधिक का समय लिया। उसपर तुक्का ये कि वह राष्ट्रपति के पास क्षमादान की याचिका दायर कर सकता है, जो अगर उसने कर दिया तो उसकी फाँसी कई सालों तक टल सकती है। क्योंकि राष्ट्रपति के पास कई ऐसी याचिकायें लंबित पड़ी हैं जिसपर विचार होना शेष है।

पहला सवाल-

ऐसे मामलों को हम कई सालों तक लटका कर दुनिया में क्या संदेश देना चाहते हैं, दुनिया की छोड़िये हम अपने देश को क्या संदेश देना चाहते हैं, कि कोई भी आये, राक्षसों की तरह गोलिया बरसा कर कई लोगों को मार दे और फिर अदालत में जाकर सरेंडर कर दे, बाकी का काम हमारी सरकार खुद कर देगी। वह उसकी सुरक्षा में लाखों का खर्चा करेगी, मानवता का फटा हुआ ढ़ोल पीटते हुये खुद आतंकवादियों को मौका देगी कि वे उसे छुड़ा लें। हमारी सरकार कहती है हम किसी को ऐसे ही फाँसी पर नही चढ़ा सकते। हमारे विधि मंत्री ने कुछ दिन पहले ये वक्तव्य दिया था, पर उनसे ये सवाल पूछा जाना चाहिये, कि क्या हमारी जनता की औकात जानवरों से भी गई बीती है जिसकी क्रूर हत्याओं के बाद भी हम ये सवाल पूछते हैं।

आतंकवादी हमलों में सिर्फ आम जनता मरती है, इसलिये हमारे देश के दोगले नेताओं को मानवाधिकार, कानून और देश का सम्मान इत्यादि खोखले शब्दों से प्यार हो गया है, वे बिना साँस लिये रातदिन इसका रोना रोते रहते हैं।

दूसरा सवाल-

हर आतंकवादी घटनाओं के बाद हमारी निकम्मी सरकार ये घोषणा करती है कि भविष्य में इस तरीके की घटनाओं से निपटने के लिये सुरक्षा तंत्र को विकसित किया जायेगा, गुप्तचर सेवाओं को दुरुस्त किया जायेगा, कानून को कोठर बना जायेगा, और किसी देश द्वारा अपने देश में उत्पन्न की जाने वाली अस्थिरता को बर्दाश्त नही किया जायेगा। लेकिन दूसरे ही दिन सारे नेता अपने पूर्व के वक्तव्य को भूलकर देश के विकास में लगाये जाने वाले पैसों में बंदरबाँट के लिये रणनीति बनाने लगते हैं।

तीसरा सवाल-

राष्ट्रपति को किसी क्षमादान की याचिका पर निर्णय लेने के लिये इतना समय क्यों लगता है, क्या वे भी इंतजार करते हैं कि क्षमादान के बदले उनकी मुट्ठी गर्म की जाये। शायद यही बात है वरना आज तक बीसियों के लघभग मामले लंबित क्यों पड़े हैं। सबसे करारा तमाचा तो यह है कि संसद के हमले का आरोपी अफजल जिसको फाँसी दी जा चुकी है, वह भी इस कतार में हैं। सबसे बड़ा दोष तो हमारे देश के कानून में हैं, जो अपने चोले के अनगिनत फटे छेदों से अपने कंचन शरीर को छुपाने के प्रयास में दोषियों के हाथ से बार बार बलात्कारित की जा रही है। ये कानून का बलात्कार ही है, कि इतने बड़े-बड़े दोषी सरकारी मेहमान बने हैं, जिसमें राजीव गाँधी के हत्यारे, अफजल और जिसमें कसाब का नाम भी जुड़ने वाला है।

मीडिया की भूमिका-

इन सारे मामलों मे हमारी मीडिया भी कम दोषी नही है, वह खाली पीली ऐसे लोगों को हीरो की तरह दिखाती है, जिन्होने लोगों की हत्याएं सोच-समझकर की हैं। मीडिया घरानों को समझना पड़ेगा कि सरकार अगर निकम्मी है तो उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी पड़ेगी, पैसा बनाना बिजनेस का मूलमंत्र है, पर सिर्फ पैसा ही उद्देश्य नही होना चाहिये।

जनता-

यह सबसे बड़ी ताकत है जो भारत की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुकी है। एक अरब तेरह करोड़ जनता वाले देश में अगर कोई आतंकवादी घुँसकर सरेआम लोगों की हत्या करता है तो यह उस देश का दुर्भाग्य ही है। लोगों को ये समझना ही पड़ेगा, कि आतंकवादी हमलों में मरे कोई, कल उनका भी नंबर आयेगा। इसलिये जरूरी है कि इस प्रकार का डर मन से निकाल कर विरोध किया जाय। रही बात बीवी बच्चों की, तो कुछ समय के बाद ही इस तरह की घटनायें बंद हो जायेंगी, और सारा देश राहत की साँस लेगा।

जनता को नेताओं का घेराव करना पड़ेगा, वे क्या कर रहे हैं इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिये। क्या हमारी जनता के जीवन का मूल्य आतंकवादियों के जीवन से कम है।

विरोध-

बहुत जरूरी है। हमारे देश की ऐसी हालत सिर्फ विरोध ना करने की वजह से है। दुराचारी या अत्याचारी की हिम्मत सिर्फ विरोध ना करने की वजह से होती है। हमें विरोध के लिये सड़कों पर उतरना ही पड़ेगा। अब वक्त आ गया है जब एक और असहयोग आंदोलन की जरूरत है। अगर हम फिर भी ऐसा नही कर सके तो हमें तैयार रहना चाहिये, गाँधी के देश में गोली खाने के लिये।

सुरेन्द्र पटेल...

Wednesday, May 19, 2010

एक्शन रिप्ले इन दंतेवाड़ा....

सही कहूँ तो यह छोटा सा लेख मैं 6 अप्रेल को ही लिखना चाहता था, पर शायद उस दिन लिखता तो हो सकता है कि रिफरेंस नही दे पाता। आज प्लस प्वाइंट है कि रिफरेंस दे सकता हूँ।

आशा करता हूँ आपको 6 अप्रेल 2010 याद होगा, अगर नही है तो भी कोई बात नही, क्योंकि हमारे देश में ज्यादातार लोगों को भूलने की खतरनाक बीमारी है। चलिये मैं याद दिला देता हूँ कि 6 अप्रेल 2010 को क्या हुआ था। 6 अप्रेल 2010 को दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने आपरेशन ग्रीन हंट के तहत जंगल में कांबिंग कर रहे लघभग 100 जवानों को चारों ओर से घेरकर हमला किया और 76 जवान शहीद हो गये, और कल उसी दंतेवाड़ा में उन्ही नक्सलियों न बम लगाकर एक बस को उड़ा दिया जिसमें 40 लोग मारे गये, जिसमें ज्यादातार पुलिस वाले ही थे।

7 अप्रेल 2010 को देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, रक्षामंत्री इत्यादि लोगों ने यही रोना रोया था जो आज 18 मई 2010 को रो रहे हैं। सवाल यह उठता है कि हमारी सरकार क्या कर रही है जबकि देश के आधे से अधिक राज्य नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। लघभग प्रतिदिन नक्सलियों से जुड़ी कोई ना कोई घटनायें होती है पर सरकार के कानों पर जूँ नही रेंगती।

मजाक लगता है जब सरकार इस तरह के नक्सली हमलों के बाद मारे गये जवानों को शहीद का दर्जा देती है, कैसा शहीद और क्यों शहीद। हमारी निकम्मी सरकार, जिसके मंत्रियों के घुटनों में दम नही, जिनकी कुछ देर चलते ही साँस फूल जाती है, जो वोटों की राजनीति करते हैं और जनता के बीच में नफरत फैलाते हैं, जो दिनदहाड़े हजारों करोड़ रुपये जो कि जनता के हैं, डकार लिये बिना खा जाते हैं, वे एक भ्रम फैलाते हैं कि जवान शहीद हुए, असलियत तो यह है कि हमारे जवान कुत्तों की मौत मारे जाते हैं नक्सल प्रभावित इलाकों में। हरपल डर के साये में अपना एक एक कदम बढ़ाते हमारे जवानों को पता ही नही चलता कि उनकी मौत किस कदम पर लिखी है, और हमारी सरकार नक्सलियों के उन्मूलन के लिये कुछ नही करती क्योंकि ना जाने कितने क्षेत्रीय दलों की दाल रोटी इन नक्सलियों के दिये गये चंदो से चलती है।

इन नक्सलियों जिनकी संख्या के बारे में हमेशा हउआ खड़ा किया जाता है कि उनकी संख्या पुलिस वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है, कि उनके ट्रेनिंग कैंप सैकड़ों जगहों पर चल रहे हैं, कि उनके हथियार हमारे

हथियारों से ज्यादा लेटेस्ट हैं। गीदड़ हमेशा झुंड में हमला करते हैं, क्या होगा इन नक्सलियों का जब हमारी वायु सेना इन नक्सलियों को एक घंटे में मटियामेट कर देगी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से बाहर कोई भी धमाका या फिर कोई भी हिंसात्मक कार्यवाही होती है और दुर्भाग्य से उसमें किसी मुस्लिम संगठन का हाथ होता है तो तुरंत ही आतंकी हमले की दुहाई दी जाने लगती है और फिर भी कुछ नही होता। कई दशकों से चल रहे नक्सलवादियों के इस खूनी खेल को क्या कहा जायेगा, स्वतंत्रता के लिये संघर्ष या उनका बचाव करते हुए ये, कि उनकी हिंसात्मक कार्यवाहियाँ विकास के दोहरे मापदंड और पुलिस अत्याचार के फलस्वरूप उपजे आक्रोश का नतीजा हैं। इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित कुछ क्षेत्रों में विकास की गति बहुत धीमी है, पर विकास की गति देश के बहुत सारे भागों में धीमी है, वहाँ गरीबी है, भूख है, लाचारी है, पर क्या वहाँ भी लोग हथियारों के बल पर विकास लाने का प्रयास करें, ऐसे तो हमारा पूरा देश गृहयुद्ध की चपेट में आ जायेगा। हथियारों के दम पर विकास नही लाया जा सकता ना ही हथियार किसी समस्या की जड़ हैं, सबसे बड़े गुनाहगार हमारे नेता और हमारी सरकार है, जो पहले नक्सलवाद जैसी समस्या को मुँह उठाने का मौका देती है और बाद में जब वह भस्मासुर बनकर खुद पर ही खतरा बन जाता है तब भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर डाल कर निश्चिंत रहती है।

नक्सलवादी अगर अपना रोष जाहिर ही करना चाहते हैं तो वे दिल्ली या राज्य की राजधानी में बैठे बड़े स्तर के नेता को क्यों नही मारते, जिससे कम से कम समाज की गंदगी तो कम होती। वे जानते हैं कि अगर उन्होने किसी नेता को मारा तो हमारे नेताओं के कान में धमाका हो जायेगा और कोई ना कोई कार्यवाही हो ही जायेगी। इस तरह पुलिस के जवानों और आम जनता को मार कर वे अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं, लेकिन कायरों की तरह, और हमारे नेता ये तमाशा देखते हैं...अंधों की तरह।

सुरेन्द्र पटेल...

Monday, May 10, 2010

भारतीय संविधान और संशोधन

भारतीय संविधान साठ साल पहले कई दर्जियों द्वारा कई देश के कपड़ों को मिलाकर कई साल में सिली गयी पुराने फैशन की वो पतलून है जिसको 18 जून,1951 में ही संसोधन का पैबंद लग गया था, दुर्भाग्यवश पैबंद लगने बंद नही हुये और 12 जून 2006 तक 94 पैबंद लग चुके और आज आलम यह है कि वो पतलून तो कहीं दिख ही नही रही है, दिख रही हैं तो बस पैबंदे, और तार-तार हो चुकी भारतीय कानून और व्यवस्था की इज्जत। काश कि इस फटे हुये पतलून को बदला जा सकता...।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...