Wednesday, August 18, 2010

जय हिंद



मैने यह आर्टिकल 16 अगस्त को लिखा था लेकिन ब्लाग पर पोस्ट आज कर पा रहा हूँ।

कल हमारे भारत का 64वाँ स्वतंत्रता दिवस था और विश्वास कीजिये, मैं बहुत खुश था कि हम स्वतंत्र हैं लेकिन साथ ही साथ मैं दुखी भी था कि हमने स्वतंत्रता का गलत उपयोग किया...ठीक उसी प्रकार जैसे कि हमारे अध्यात्मिक चर्चाओं और साहित्य में कहा गया है कि हमने ईश्वर से यह कहकर मानव जीवन माँगा था कि हम उसका भजन करते हुये सारी सृष्टि को उसकी कृति मानकर उसके समन्वित विकास का मार्ग प्रशस्त करते हुये अपने जन्म को सार्थक बनायेंगे और पुनः उसी में समाहित हो जायेंगे, लेकिन होता ठीक इसके विपरीत है। हम पृथ्वी पर आते ही उसके अस्तित्व को ही बिसरने लगते हैं और याद करते हैं उस वक्त जब हम मुसीबत में होते हैं। यही हाल हमारे स्वतंत्रता दिवस का है। जब हम गुलाम थे तब हम आजाद होने के बारे में सोचा करते थे...यह सोचा करते थे कि काश हम आजाद होते तो देश के लिये क्या-क्या नही करते, विकास के वे सारे मार्ग प्रशस्त करते जो अंग्रेजों ने रोक रखा है, अपने देश की गरीबी दूर करते, वगैरह-वगैरह...। ठीक वैसे ही जब हम धरती पर नही थे तो धरती पर आने की सोचते थे।

बच्चा जन्म लेते ही रोता है....बहुत रोता है, क्योंकि उसे पता चल जाता है कि ईश्वर की गोद से निकलकर उसने बहुत बड़ी गलती की। कुछ ऐसा ही हुआ हमारी स्वतंत्रता के विषय में, सत्ता के लोभ में दंगे कराये गये और लाखों लोग मारे गये। जिस आजादी के लिये भारत पिछले सौ सालों से संघर्ष कर रहा था और पूरी तरह एकजुट था....पैंतीस करोड़ लोग सिर्फ एक आवाज पर कुछ भी कर सकते थे। उन्ही पैंतीस करोड़ लोगों से सिर्फ सत्ता हथियाने के लिये विश्वासघात किया गया। जो आजादी की लड़ाई सिर्फ भारत के लिये थी, कुछ लोगों के सत्ता लोभ की वजह से मात्र एक दिन के अंतर से भारत और पाकिस्तान की आजादी के रूप में समाप्त हुई।

भारत की जनता भेड़ बकरियाँ है जिनपर शासन करने के लिये मात्र शासक का रूप और सत्ता का स्वरूप बदला गया, वरना स्थिति 1947 के पहले से ज्यादा खराब है।

जिस आजाद भारत की नीँव ही सत्ता प्राप्ति के षडयंत्र के साथ शुरू हुई उसका निर्माँण कैसा होगा शायद उस समय महात्मा गाँधी नही समझ पाये होंगे क्योंकि 60 साल के बाद भारत में आदमी सठिया जाता है और गाँधी तो उस समय 78 साल के थे, अगर उनके दिमाग ने काम नही किया तो इसमें उनकी गलती नही समझी जानी चाहिये, लेकिन गलती तो हुई...। भारत की भलाई के लिये चाहे उन्होने कुछ भी किया हो लेकिन नेहरू के मोह में आकर उन्होने भारत का बुरा बहुत किया ठीक उसी प्रकार जैसे अर्जुन के मोह में आकर द्रोणाचार्य ने एकलव्य और कर्ण का किया था। द्रोणाचार्य के मोह की वजह से एकलव्य का नाश हो गया और कर्ण बागी बन गया...वरना क्या पता, गुरू के समझाने पर कर्ण का विचार बदलता और वह दुर्योधन का साथ छोड़ देता। कर्ण बुरा नही था, उसे बुरा बनाया गया, कारण क्या थे चर्चा करना बेकार है। ठीक ऐसा ही हुआ जिन्ना के साथ। वे बलि के बकरे बनाये गये, क्योंकि वे बलि के लिये ही बने थे, लेकिन जिन्ना कर्ण की तरह बेकवूफ और दिमाग से पैदल नही थे। वैसे भी वो त्रेतायुग की बात थी और जिन्ना कलयुग के जिन्ना थे। उनका ध्येय यही था कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी तैरने नही देंगे, क्योंकि डुबाने की औकात जिन्ना में नही थी, और ना ही पाकिस्तान में है। यही कारण है कि आज भी भारत के विकास रूपी पहिये में, मार्ग में पड़े पाकिस्तान नाम की सूई से एकाध पंक्चर हो ही जाते हैं।

आजादी के बाद भारत की जनता समझ ही नही पायी कि हुआ क्या...वे भारत की आजादी के लिये लड़ रहे थे और बाद में भारत और पाकिस्तान के लिये अपने में मर कट रहे थे। भारतीय इतिहास का सबसे काला पन्ना जो आठवीं शताब्दी में अरबों के आक्रमण और नादिर शाह के कत्लेआम से भी भयानक था जिसमें लाखों लोगों ने अपनी जान व्यर्थ में गवांई, क्यों इसका जिम्मेदार कौन था। 1919 में जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था और लगता था कि भारत को आजादी मिल ही जायेगी, तब चौरीचौरा में एक छोटी सी हिंसात्मक घटना की वजह से समूचा आंदोलन यह कहकर वापस ले लिया गया कि देश आजादी के लिये तैयार नही था। यह गाँधी का धैर्य था, और जब करो या मरो आंदोलन शुरू किया गया उस समय तो पूरा विश्व ही विश्वयुद्ध की आग में जल रहा था...यह गाँधी की जल्दबाजी नही थी। इसके साथ ही साथ उस समय जिन्ना एक अजगर की तरह मुँह बाये खड़े हो चुके थे जिनका पेट बिना भारत को खाये या फिर पाकिस्तान लिये बिना नही भरने वाला था। गाँधी की समझ में यह नही आया कि इस समय देश की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण जिन्ना को विश्वास में लेना था और नेहरू पर से अँधविश्वास हटाना था। गाँधी कूटनीतिक थे, लेकिन पारिवारिक बिलकुल नही थे। काश कि उन्होने परिवारों के विघटन और तत्पश्चात उनमें पैदा होने वाली घृणा और ईर्ष्या को देखा होता तो वे देश के बँटवारे के लिये कभी तैयार नही होते। कहने का अर्थ यह है कि जिस तरह भारत ने 1919 से 1947 तक इंतजार किया उसी तरह कुछ साल और कर सकता था, जब देश वाकई आजादी के लायक हो जाता। सारा काम हड़बड़ी में हुआ, इस डर से कि कहीं जिन्ना के बाद कोई और ना खड़ा हो जाये जो सत्ता पर अधिकार जताने की कोशिश करे। देश को आजादी का मतलब समझने लायक बनाया ही नही गया और उसके हाथ में आजादी का लालटेन थमा दिया गया।

यहाँ एक बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि शिक्षा आजादी का मतलब समझने के लिये सबसे अहम चीज है जिससे भारत की जनता को मरहूम कर दिया गया। गाँधी ने आजादी के लिये स्कूल के छात्रों और कालेज के युवाओं का आह्वान किया जिन्होने सबकुछ छोड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लिया, लेकिन गाँधी ने विदेश में पढ़ रहे उद्योगपतियों और सेठों के ल़ड़के और लड़कियों का आह्वान नही किया, वे आते भी नही, लेकिन बाद में उन्ही पढ़े लिखे लोगों ने सत्ता और धन पर कब्जा जमाना प्रारंभ किया जो आज तक है।

जो देश हजारों सालों से मानसिक, शारीरिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक गुलामी से जकड़ा पड़ा था उसे सिर्फ सत्ता का स्वरूप बदल देने से ही आजाद नही कराया जा सकता था, लेकिन फिर भी कोशिश की गयी और नतीजा हमारे सामने है। देश की वही स्थिति है जो आजादी से पहले थी, फर्क सिर्फ शासक वर्ग में है, वरना गरीबों की हालत तो कहीँ से बदली नही दिखती....।

भारत की नयति में गुलामी लिखी है। हजारों सालों पहले धार्मिक गुलामी, ब्राह्मणों की गुलामी जिन्होने निम्न वर्ग की आत्मा तक को गुलाम बना रखा था। उसके बाद अरबों, तुर्कों और पता नही किन आक्रमणकारियों की गुलामी, उसके बाद मुगलों की गुलामी और फिर अंग्रेजों की गुलामी। जिस भी आक्रमणकारी का मन किया मुँह उठाकर भारत पर आक्रमण करने चला आया और इसकी आत्मा का ब..........र करके चला गया, बहुत मन किया तो यहीं रुक कर वही ब..........र बार बार किया, मजे की बात यह कि अपने नमक हलाल इतिहासकारों द्वारा अपना गुणगान भी कराया। किसी देश के लिये इससे शर्म की बात क्या हो सकती है कि उसका इतिहास उसी की आत्मा को रौंदने वालों के लेखकों द्वारा लिखा गया है। पता नही हम किस महान भारत पर गर्व करते हैं, पहले के या फिर आज के...(जबसे भारत का इतिहास लिखा गया है, मौर्य काल के बाद, ज्यादा से ज्यादा सातवीं शताब्दी तक) पहले का भारत तो सिर्फ पढ़ा है और उस पर भी विश्वास नही किया जा सकता, लेकिन आज का भारत तो आँखो देख रहा हूँ, जिस पर गर्व नही किया जा सकता.....सिर्फ आँसू बहाया जा सकता है। अपरिचित नाम की फिल्म में नायक एक बूढ़े व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मौत पर आँसू बहाता है जिसे बचाया जा सकता था, अगर किसी गाड़ीवाले ने समय से उसे पहुँचा दिया होता। नायक कई गाड़ी वालों को रोकता है पर कोई नही रुकता। वह रोता है और उसकी माँ उसे कहती है कि हम कुछ नही कर सकते, नायक कहता है, हम कुछ नही कर सकते, कम से कम आँसू तो बहा सकते हैं....। तो भारत के निवासियों आँसू बहाओ....क्योंकि स्थिति इससे भी ज्यादा खराब होने वाली है।

इतिहास ने हमेशा आक्रमणकारियों और हत्यारों को नायक का दर्जा दिया है, वरना आज हमारे पाठ्यक्रम में बिन कासिम, गजनबी, बाबर इत्यादि का इतिहास नही होता और ना हम उसे पढ़ते।

अगर हम गुलाम नही होते क्या खालिस्तानी आतंकवाद शुरू हुआ होता, हम गुलाम नही होते तो क्या नक्सली समस्या होती, हम गुलाम नही होते तो क्या कश्मीर समस्या होती, हम गुलाम नही होते तो क्या विषम विकास की समस्या होती, अगर हम गुलाम नही होते तो क्या भ्रष्टाचार की समस्य होती...गिनाते गिनाते मैं थक जाउंगा और आप पढ़ते-पढ़ते। असली मुद्दा यह है कि हम वास्तव में तबतक आजाद नही होंगे जब तक कि हम अपनी आजादी का मतलब नही समझ लेते। लोकतंत्र तभी तक है जबतक हम गलत चीजों का विरोध नही करते...नही तो कालांतर में गलत चीजें ही सही लगने लगती हैं। इसीलिये 64वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाते हुये मैं खुश भी था और दुखी भी.....।

सुरेंद्र पटेल...

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