Wednesday, August 18, 2010

जय हिंद



मैने यह आर्टिकल 16 अगस्त को लिखा था लेकिन ब्लाग पर पोस्ट आज कर पा रहा हूँ।

कल हमारे भारत का 64वाँ स्वतंत्रता दिवस था और विश्वास कीजिये, मैं बहुत खुश था कि हम स्वतंत्र हैं लेकिन साथ ही साथ मैं दुखी भी था कि हमने स्वतंत्रता का गलत उपयोग किया...ठीक उसी प्रकार जैसे कि हमारे अध्यात्मिक चर्चाओं और साहित्य में कहा गया है कि हमने ईश्वर से यह कहकर मानव जीवन माँगा था कि हम उसका भजन करते हुये सारी सृष्टि को उसकी कृति मानकर उसके समन्वित विकास का मार्ग प्रशस्त करते हुये अपने जन्म को सार्थक बनायेंगे और पुनः उसी में समाहित हो जायेंगे, लेकिन होता ठीक इसके विपरीत है। हम पृथ्वी पर आते ही उसके अस्तित्व को ही बिसरने लगते हैं और याद करते हैं उस वक्त जब हम मुसीबत में होते हैं। यही हाल हमारे स्वतंत्रता दिवस का है। जब हम गुलाम थे तब हम आजाद होने के बारे में सोचा करते थे...यह सोचा करते थे कि काश हम आजाद होते तो देश के लिये क्या-क्या नही करते, विकास के वे सारे मार्ग प्रशस्त करते जो अंग्रेजों ने रोक रखा है, अपने देश की गरीबी दूर करते, वगैरह-वगैरह...। ठीक वैसे ही जब हम धरती पर नही थे तो धरती पर आने की सोचते थे।

बच्चा जन्म लेते ही रोता है....बहुत रोता है, क्योंकि उसे पता चल जाता है कि ईश्वर की गोद से निकलकर उसने बहुत बड़ी गलती की। कुछ ऐसा ही हुआ हमारी स्वतंत्रता के विषय में, सत्ता के लोभ में दंगे कराये गये और लाखों लोग मारे गये। जिस आजादी के लिये भारत पिछले सौ सालों से संघर्ष कर रहा था और पूरी तरह एकजुट था....पैंतीस करोड़ लोग सिर्फ एक आवाज पर कुछ भी कर सकते थे। उन्ही पैंतीस करोड़ लोगों से सिर्फ सत्ता हथियाने के लिये विश्वासघात किया गया। जो आजादी की लड़ाई सिर्फ भारत के लिये थी, कुछ लोगों के सत्ता लोभ की वजह से मात्र एक दिन के अंतर से भारत और पाकिस्तान की आजादी के रूप में समाप्त हुई।

भारत की जनता भेड़ बकरियाँ है जिनपर शासन करने के लिये मात्र शासक का रूप और सत्ता का स्वरूप बदला गया, वरना स्थिति 1947 के पहले से ज्यादा खराब है।

जिस आजाद भारत की नीँव ही सत्ता प्राप्ति के षडयंत्र के साथ शुरू हुई उसका निर्माँण कैसा होगा शायद उस समय महात्मा गाँधी नही समझ पाये होंगे क्योंकि 60 साल के बाद भारत में आदमी सठिया जाता है और गाँधी तो उस समय 78 साल के थे, अगर उनके दिमाग ने काम नही किया तो इसमें उनकी गलती नही समझी जानी चाहिये, लेकिन गलती तो हुई...। भारत की भलाई के लिये चाहे उन्होने कुछ भी किया हो लेकिन नेहरू के मोह में आकर उन्होने भारत का बुरा बहुत किया ठीक उसी प्रकार जैसे अर्जुन के मोह में आकर द्रोणाचार्य ने एकलव्य और कर्ण का किया था। द्रोणाचार्य के मोह की वजह से एकलव्य का नाश हो गया और कर्ण बागी बन गया...वरना क्या पता, गुरू के समझाने पर कर्ण का विचार बदलता और वह दुर्योधन का साथ छोड़ देता। कर्ण बुरा नही था, उसे बुरा बनाया गया, कारण क्या थे चर्चा करना बेकार है। ठीक ऐसा ही हुआ जिन्ना के साथ। वे बलि के बकरे बनाये गये, क्योंकि वे बलि के लिये ही बने थे, लेकिन जिन्ना कर्ण की तरह बेकवूफ और दिमाग से पैदल नही थे। वैसे भी वो त्रेतायुग की बात थी और जिन्ना कलयुग के जिन्ना थे। उनका ध्येय यही था कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी तैरने नही देंगे, क्योंकि डुबाने की औकात जिन्ना में नही थी, और ना ही पाकिस्तान में है। यही कारण है कि आज भी भारत के विकास रूपी पहिये में, मार्ग में पड़े पाकिस्तान नाम की सूई से एकाध पंक्चर हो ही जाते हैं।

आजादी के बाद भारत की जनता समझ ही नही पायी कि हुआ क्या...वे भारत की आजादी के लिये लड़ रहे थे और बाद में भारत और पाकिस्तान के लिये अपने में मर कट रहे थे। भारतीय इतिहास का सबसे काला पन्ना जो आठवीं शताब्दी में अरबों के आक्रमण और नादिर शाह के कत्लेआम से भी भयानक था जिसमें लाखों लोगों ने अपनी जान व्यर्थ में गवांई, क्यों इसका जिम्मेदार कौन था। 1919 में जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था और लगता था कि भारत को आजादी मिल ही जायेगी, तब चौरीचौरा में एक छोटी सी हिंसात्मक घटना की वजह से समूचा आंदोलन यह कहकर वापस ले लिया गया कि देश आजादी के लिये तैयार नही था। यह गाँधी का धैर्य था, और जब करो या मरो आंदोलन शुरू किया गया उस समय तो पूरा विश्व ही विश्वयुद्ध की आग में जल रहा था...यह गाँधी की जल्दबाजी नही थी। इसके साथ ही साथ उस समय जिन्ना एक अजगर की तरह मुँह बाये खड़े हो चुके थे जिनका पेट बिना भारत को खाये या फिर पाकिस्तान लिये बिना नही भरने वाला था। गाँधी की समझ में यह नही आया कि इस समय देश की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण जिन्ना को विश्वास में लेना था और नेहरू पर से अँधविश्वास हटाना था। गाँधी कूटनीतिक थे, लेकिन पारिवारिक बिलकुल नही थे। काश कि उन्होने परिवारों के विघटन और तत्पश्चात उनमें पैदा होने वाली घृणा और ईर्ष्या को देखा होता तो वे देश के बँटवारे के लिये कभी तैयार नही होते। कहने का अर्थ यह है कि जिस तरह भारत ने 1919 से 1947 तक इंतजार किया उसी तरह कुछ साल और कर सकता था, जब देश वाकई आजादी के लायक हो जाता। सारा काम हड़बड़ी में हुआ, इस डर से कि कहीं जिन्ना के बाद कोई और ना खड़ा हो जाये जो सत्ता पर अधिकार जताने की कोशिश करे। देश को आजादी का मतलब समझने लायक बनाया ही नही गया और उसके हाथ में आजादी का लालटेन थमा दिया गया।

यहाँ एक बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि शिक्षा आजादी का मतलब समझने के लिये सबसे अहम चीज है जिससे भारत की जनता को मरहूम कर दिया गया। गाँधी ने आजादी के लिये स्कूल के छात्रों और कालेज के युवाओं का आह्वान किया जिन्होने सबकुछ छोड़कर आजादी की लड़ाई में भाग लिया, लेकिन गाँधी ने विदेश में पढ़ रहे उद्योगपतियों और सेठों के ल़ड़के और लड़कियों का आह्वान नही किया, वे आते भी नही, लेकिन बाद में उन्ही पढ़े लिखे लोगों ने सत्ता और धन पर कब्जा जमाना प्रारंभ किया जो आज तक है।

जो देश हजारों सालों से मानसिक, शारीरिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक गुलामी से जकड़ा पड़ा था उसे सिर्फ सत्ता का स्वरूप बदल देने से ही आजाद नही कराया जा सकता था, लेकिन फिर भी कोशिश की गयी और नतीजा हमारे सामने है। देश की वही स्थिति है जो आजादी से पहले थी, फर्क सिर्फ शासक वर्ग में है, वरना गरीबों की हालत तो कहीँ से बदली नही दिखती....।

भारत की नयति में गुलामी लिखी है। हजारों सालों पहले धार्मिक गुलामी, ब्राह्मणों की गुलामी जिन्होने निम्न वर्ग की आत्मा तक को गुलाम बना रखा था। उसके बाद अरबों, तुर्कों और पता नही किन आक्रमणकारियों की गुलामी, उसके बाद मुगलों की गुलामी और फिर अंग्रेजों की गुलामी। जिस भी आक्रमणकारी का मन किया मुँह उठाकर भारत पर आक्रमण करने चला आया और इसकी आत्मा का ब..........र करके चला गया, बहुत मन किया तो यहीं रुक कर वही ब..........र बार बार किया, मजे की बात यह कि अपने नमक हलाल इतिहासकारों द्वारा अपना गुणगान भी कराया। किसी देश के लिये इससे शर्म की बात क्या हो सकती है कि उसका इतिहास उसी की आत्मा को रौंदने वालों के लेखकों द्वारा लिखा गया है। पता नही हम किस महान भारत पर गर्व करते हैं, पहले के या फिर आज के...(जबसे भारत का इतिहास लिखा गया है, मौर्य काल के बाद, ज्यादा से ज्यादा सातवीं शताब्दी तक) पहले का भारत तो सिर्फ पढ़ा है और उस पर भी विश्वास नही किया जा सकता, लेकिन आज का भारत तो आँखो देख रहा हूँ, जिस पर गर्व नही किया जा सकता.....सिर्फ आँसू बहाया जा सकता है। अपरिचित नाम की फिल्म में नायक एक बूढ़े व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मौत पर आँसू बहाता है जिसे बचाया जा सकता था, अगर किसी गाड़ीवाले ने समय से उसे पहुँचा दिया होता। नायक कई गाड़ी वालों को रोकता है पर कोई नही रुकता। वह रोता है और उसकी माँ उसे कहती है कि हम कुछ नही कर सकते, नायक कहता है, हम कुछ नही कर सकते, कम से कम आँसू तो बहा सकते हैं....। तो भारत के निवासियों आँसू बहाओ....क्योंकि स्थिति इससे भी ज्यादा खराब होने वाली है।

इतिहास ने हमेशा आक्रमणकारियों और हत्यारों को नायक का दर्जा दिया है, वरना आज हमारे पाठ्यक्रम में बिन कासिम, गजनबी, बाबर इत्यादि का इतिहास नही होता और ना हम उसे पढ़ते।

अगर हम गुलाम नही होते क्या खालिस्तानी आतंकवाद शुरू हुआ होता, हम गुलाम नही होते तो क्या नक्सली समस्या होती, हम गुलाम नही होते तो क्या कश्मीर समस्या होती, हम गुलाम नही होते तो क्या विषम विकास की समस्या होती, अगर हम गुलाम नही होते तो क्या भ्रष्टाचार की समस्य होती...गिनाते गिनाते मैं थक जाउंगा और आप पढ़ते-पढ़ते। असली मुद्दा यह है कि हम वास्तव में तबतक आजाद नही होंगे जब तक कि हम अपनी आजादी का मतलब नही समझ लेते। लोकतंत्र तभी तक है जबतक हम गलत चीजों का विरोध नही करते...नही तो कालांतर में गलत चीजें ही सही लगने लगती हैं। इसीलिये 64वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाते हुये मैं खुश भी था और दुखी भी.....।

सुरेंद्र पटेल...

Wednesday, August 11, 2010

हैवानियत

यूं तो भारत में हर तरह की सम्स्यायें विद्यमान हैं, जो छोटी हैं, बड़ी हैं। पर आज जिस चीज के बारे में बात करना चाहता हूँ, उसका निर्णय पाठक ही करेंगे कि वह कैसी है, छोटी या बड़ी।

भारत के दूर दराज के इलाकों में आज भी सवारी और बोझा ढ़ोने के लिये दूसरे दर्ज को घोड़ों का प्रयोग किया जाता है। ये घोड़े और घोड़ियाँ आकार में छोटे और दिखने में कमजोर होते हैं। काम में लाते वक्त इनकी पीठ पर इनकी क्षमता से दोगुना-तिगुना बोझ लाद दिया जाता है, जिसे ना ले जाने की स्थिति में इनकी पीठ पर लागातार चाबुकों की मार पड़ती रहती है। इनको काम में लाने वाले मुख्यतः भूमिहीन और बेहद ही गरीब तबके के लोग होते हैं जो इनके चारा पानी की व्यवस्था न कर पाने की स्थिति में इनको चरने के लिये सड़क के किनारे या फिर मैदान में चरने के लिये छोड़ देते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि घोड़ा दिन भर कुछ न कुछ कमाता ही रहता है, फिर भी पेट भरने के लिये उसके लिये भोजन की व्यवस्था नही की जाती, जबकि इसके मालिक अक्सर शराब पीकर कहीं न कहीँ लुढ़के रहते हैं। उसपर भी इन घोड़ों को चरने या फिर घूमने के लिये कैसे छोड़ा जाता है, वह नीचे के चित्र से स्पष्ट है-



दिन भर इनकी क्षमता से अधिक काम लेने के बाद इनको पेट भरने के लिये छोड़ दिया जाता है, वो भी इनके आगे के दोनों पैरों को बाँधकर, ताकि घोड़ा ज्यादा दूर या फिर भाग न सके। पैर बँधे होने के कारण घोड़ा बड़ी ही तकलीफ से पहले पिछले पैर को आगे लाता है और फिर उनके सहारे दोनो बँधे पैर एक साथ उठाकर एक कदम आगे बढ़ाता है और यह प्रक्रिया लागातार चलती रहती है । घोड़ा एक-एक कदम चलने की इस कष्टकारक प्रक्रिया अक्सर घोड़े के पैरों मे घाव हो जाता है जो बिना किसी इलाज के बढ़ता ही जाता है और घोड़ा लागातार असहनीय दर्द से बिलबिलाता रहता है। यही नही उस पर लागातार मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं जो उसके दर्द को और बढ़ाती रहती हैं।

हमारी सरकार जो खुद भ्रष्टाचार में बुरी तरह लिप्त है, उससे यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह इनक लिये कुछ करेगी, क्योंकि उसे तो इंसानों की ही फिक्र नही है, पर इनकी भलाई के लिये क्या हम कुछ नही कर सकते......

Tuesday, August 10, 2010

उत्तर बनाम दक्षिण भाग एक-शिक्षा

भारत में कुल 300 मेडिकल कालेज हैं जिनमें 143 सरकारी क्षेत्रों में तथा 157 निजी क्षेत्रों में है। मैं मेडिकल कालेजों की संख्या के बारे में चर्चा नही बल्कि उनकी संख्या के विभिन्नता के बारें में चर्चा करना चाहता हूँ।

महाराष्ट्र में 41, कर्नाटक में 39, आन्ध्राप्रदेश में 33, तमिलनाडु में 32 तथा केरल में 22 मेडिकल कालेज हैं। कुल मिलाकर 167 मेडिकल कालेज दक्षिण के पाँच राज्यों में हैं जो भारत की एक तिहाई जनसंख्या का प्रतिनिधित्व भी नही करते। बाकी के 133 मेडिकल कालेज देश के बाकी राज्यों मे हैं जिनमें से 22 उत्तरप्रदेश तथा 21 गुजरात मे हैं। अगर इन दो राज्यों के कालेजों को निकाल दिया जाय तो बचते हैं 90 कालेज जो कि देश के बाकी राज्यों में हैं।

आज के परिवेश में जब पूरा भारत उत्तर भारत के कुछ राज्यों, जिनमें से उत्तर प्रेदश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश इत्यादि राज्यों को पिछड़ा और अशिक्षित मानता है, तब यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि उत्तर भारत के ये राज्य इस अवस्था में क्यों हैं या फिर इनका जिम्मेदार कौन है।

ऊपर मैंने मेडिकल कालजों का एक उदाहरण दिया जो आधे से अधिक दक्षिण के पाँच राज्यों में है। किसी भी व्यक्ति, समाज या देश के विकास और प्रगति में सबसे ज्यादा जरूरी चीज है शिक्षा, वह भी स्तरीय जो उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण के राज्यों में अधिक सरलता से उपलब्ध है। दक्षिण के राज्यों में जब बच्चा हाईस्कूल या फिर बारहवीँ में होता है तो वह अपना एक टार्गेट बना चुका होता है कि उसे क्या बनना है, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या फिर साइंटिस्ट। हालाँकि उत्तर भारत के राज्यों में भी कैरियर के प्रति सजगता में विकास हुआ है लेकिन फिर भी बहुत सारी कमियाँ है। दक्षिण के राज्यों में बीटेक की डिग्री लेकर निकलने वाला एक सामान्य इंजीनियर डिग्री के साथ संचार के सशक्त माध्यम अंग्रेजी को भी साथ लेकर निकलता है जो मल्टीनेशनल कंपनियो में काम करने के लिये बुनियादी जरूरत है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के राज्यों के स्टूडेंट्स में पहला और बुनियादी अंतर यही जो आगे चलकर नौकरी पाने के अवसरों में विचलन पैदा करता है।

दक्षिण भारत के राज्यों ने शिक्षा व्यवस्था पर बहुत ही ज्यादा ध्यान दिया है और परिणाम सामने है। वहीं उत्तर भारत के राज्यो, विशेषकर उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दुर्गति अगर किसी व्यवस्था की हुई है तो वह शिक्षा व्यवस्था है। सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों, हायर सेकेंडरी स्कूलों और कालेज्स की हालत यह है कि दक्षिण भारत के कालेजों का सबसे कमजोर छात्र यहाँ के सबसे अच्छे छात्र को चैलेंज कर सकता है।

पिछले दिनों एक सरकारी मिडिल स्कूल का एक छात्र मेरे पास फोटो खिंचवाने आया। मैने उसे रेट बताया कि पंद्रह रुपये में तीन पासपोर्ट फोटो बनेंगे। ल़ड़के ने कहा मेरे पास दस रुपये हैं। मेरा जवाब था नही। पास बैठे मेरे दोस्त सेराज ने जो कि एक एडवोकेट है वो कहा कि बना दो...लड़का है। मैन कहा कि इसे घर से पंद्रह रुपये मिले होंगे फोटो खिंचवाने के लिये। पर ये दो फोटो खिंचवा कर पाँच रुपये बचाना चाहता है। जो कि भ्रष्टाचार का पहला पायदान है। जो चीज हमारी नही उसे लेना चोरी है। खैर सेराज के बहुत कहने पर मैने दो फोटो बनाने को तैयार हो गया। साथ में किसी और की फोटो भी बनानी थी इसलिये मैने दोनो की फोटो साथ लगा दी और जब वे प्रिंट होकर निकले तो पता चला कि उस लड़के की तीन फोटो निकल गई थी। मैने कहा अब तो तीन के पैसे देने ही पड़ेंगे। कमाल की बात थी, कि वह बिना कुछ कहे पंद्रह रुपये देकर चला गया। इस बात का संदर्भ मैं शिक्षा व्यवस्था पर देना चाहता हूँ, वह यह था कि फोटो तैयार करते वक्त मैनें उसकी पढ़ाई के विषय में बात करना प्रारंभ कर दिया। वह छठीं या फिर सातवीँ क्लास में था, उसे यह नही पता था कि सातवीं कक्षा को अंग्रेजी मे क्या कहते हैं। उसे नौ का पहाड़ा तक नही याद था और वह हिंदी वर्णमाला के अक्षरों तक को नही जानता था। उसे यह नही पता था कि उसके विद्यालय का गेट किस दिशा मे हैं। शायद उससे यह पूछा जाता कि वह किस देश मे रहता है तो वह यह भी नही बता पाता। उसके अनुसार उसकी दिन में सिर्फ तीन कक्षायें चलती हैं जिनमें उसे हिंदी, गणित और संस्कृत पढ़ाये जाते हैं। सरकारी स्कूलों मे पढ़ने वाले कक्षा सात के विद्यार्थी के बारे में उपरोक्त तथ्य जानकर आश्चर्य के साथ-साथ दुख भी होता है कि जब प्राइमरी लेवल की शिक्षा व्यवस्था का ये हाल है तो क्या उम्मीद की जा सकती है कि उच्च शिक्षा की क्या हालत होगी।

दूसरा उदाहरण और भी विचारणीय है। मेरे जनपद का सबसे अच्छा हाईस्कूल जिसकी शिक्षा व्यवस्था विद्यालय के कथनानुसार प्रदेश में तीसरे स्थान पर है। उसके एक छात्र ने उत्तर प्रदेश बोर्ड के हाइस्कूल की परीक्षा में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। जिसका विज्ञापन अखबारों, विद्यालय के प्रचार माध्यमों से दो सालों तक जोरशोर से किया गया। वही छात्र दो साल बाद बी एस सी के इंट्रेंस इग्जाम में गोरखपुर विश्विद्यालय की प्रवेश परीक्षा तक नही पास कर पाया। वर्तमान मे जनपद की थर्ड क्लास कालेज में बी एस सी कर रहा है। यह एक निजी विद्यालय है जो दिन दोगुनी रात चौगुनी वृद्धि कर रहा है लेकिन सिर्फ पैसा कमाने में। विद्यालय के विषय में एक हास्यास्पद बात और है कि यह प्रदेश का तीसरा सबसे अच्छा विद्यालय है। जिसका कुल कैंपस ही एक एकड़ है। विद्यालय भवन में लघभग बीस से पच्चीस कमरे हैं और उसके अध्यापकों की स्थिति और भी चिंताजनक है। जब मैंने इसके तीसरे स्थान के बारे में सुना तो मुझे अचानक ही फैजाबाद के जिंगल बेल्स एकेडमी की याद आ गयी। जहाँ मैं राज्य स्तरी बाल विज्ञान कांग्रेस में हिस्सा लेने के लिये प्रथम बार महराजगंज की ओर से 1999 में गया था। जब मैं दसवी क्लास में था। 1999 में जिंगल्स बेल्स एकेडमी को देखने पर पहली बार अहसास हुआ कि कालेज ऐसे भी होते है। उस समय उत्तर प्रदेश का तीसरा कालेज महज आठ तक था। और किराये के मकान में चलता था। तीन से चार मंजिलों की जिंगल्स बेल्स एकेडमी की इमारतें अपनी भव्यता का गुणगान कर रही थी। क्लासेज इतने बड़े थे कि उत्तर प्रदेश के तीसरे कालेज के तीन कमरे उसमें समा जाये। यहाँ तक कि गोरखपुर विश्विद्यालय के क्लासेज भी आगे फीके थे। कालेज की अपनी ए क्लास की कैंटीन, टीचर्स अपर्टमेंट थे। 1999 में कालेज का कंप्यूटर रूम पचास के लघभग कंप्यूटरों से भरा था। कालेज के फर्श पर धूल का एक कण भी दिखाई नही देता था, और प्लेग्राउंड इतना बड़ा था कि उत्तर प्रदेश के तीसर कालेज जैसे आठ-दस कालेज इसमें बन जाते। सबसे बड़ी बात बता दें कि स्टूडेंट्स, जिनको देखने से ही लगता था कि ये किसी ए क्लास कालेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं। प्राइज डिस्ट्रीब्यूशन के दौरान वहाँ के आडिटोरियम जाने का मौका मिला और मैने जाना कि आडिटोरियम क्या होता है। जब कि गोरखपुर यूनिवर्सिटी आडिटोरियम को बने कुछ साल हुये। जिंगल्स बेल्स एकेडमी के सेमी ओपेन आडिटोरियम में ऐसा लग रहा था कि मैं किसी और दुनिया में था। मुझे वहाँ एकमात्र स्पेशल कांशोलेशन प्राइज मिला और मैं उस पल को याद करके आज भी रोमांचित हो जाता हूँ। खैर इस बात को बीते और जिंगल्स बेल्स एकेडमी को देखे ग्यारह साल हो गये और विश्वास है कि उस कालेज ने और भी ज्यादा तरक्की की होगी, लेकिन अगर उत्तर प्रदेश के तीसरे कालेज और ग्यारह साल पहले के जिंगल्स बेल्स एकेडमी की तुलना करें तो आज उत्तर प्रदेश का तीसरा कालेज ग्यारह साल पहले के जिंगल्स बेल्स एकेडमी के बराबर क्या नीचे बैठने के लायक भी नही है। न शिक्षा के बारे में, न व्यवस्था के मामले में और न ही विद्यार्थियों के मामले में। कमाल की बात यह है कि मैं स्वयं भी आज से तेरह साल पहले इसी उत्तर प्रदेश के तीसरे कालेज से आठवीं पास हूँ। तब जब ये स्कूल किराये के मकान में चलता था।

अपवाद हर जगह होते हैं और उत्तर प्रदेश में भी शिक्षा के साथ हर क्षेत्र में भी। जिंगल्स बेल्स एकेडमी जैसे और भी कालेज होंगे जो अपने स्तर से अच्छा कर रहे होंगे लेकिन अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता। ऊपर से जिंगल्स बेल्स एकेडमी जैसे स्कूल प्राइवेट सेक्टर में हैं जिनकी फीस आम आदमी अफोर्ड नही कर सकता। राज्य सरकार को चाहिये कि वो शिक्षा व्यवस्था में तत्काल सुधार करे ताकि आने वाले सालों में शिक्षा का स्तर उपर उठ सके और उत्तर प्रदेश के विद्यार्थी भी विज्ञान, तकनीकी, कला, साहित्य और अन्य क्षेत्रों में, उत्तर प्रदेश मे रहकर ही कार्य कर सकें ताकि उत्तर प्रदेश से पिछड़ेपन और अविकसित होने का दाग धीरे धीरे मिटाया जा सके। वरना नाम डुबाने के लिये उत्तर प्रदेश का तीसरा कालेज है ही........

सुरेंद्र पटेल

Saturday, August 7, 2010

आई पी एल और दंतेवाड़ा के जवानों की कंपंशेसन राशि.......




मेरे दोस्त अरविंद ने मुंबई से आज एक मैसेज भेजा कि आई पी एल में खेलने वाले हर एक खिलाड़ी को तीन करोड़ रुपये मिले और छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में मरने वाले जवानों को मात्र एक लाख।

आज इस पर चर्चा करते हैं।

पहली बात तो यह कि आई पी एल में खेलने के लिये हर एक खिलाड़ी की बोली लगती है और वह खिलाड़ी लगाई गई बोली में खरीदा जाता है जो उनके नाम और प्रतिभा के अनुरूप होती है। दूसरी बात आज जमाना पैसे का है और पैसा आता है बिजनेस से, बिजनेस चलता है ऐड से और ऐड करते हैं फिल्मस्टार और क्रिकेटर। इसलिये यह कहना कोई मायने नही रखता कि किसी खिलाड़ी को कितने रुपये मिले क्योंकि वो रुपये उसे खेलने के लिये नही, हजारों करो़ड़ों रुपये के ऐड सिस्टम का हिस्सा बनने के लिये दिया जाता है। सभी जानते है कि 20-20 क्रिकेट से कम से कम क्रिकेट का तो कोई भला नही होने वाला है। यह एक ऐसा फार्मेंट है जिसमें कोई भी टीम थोड़े से अभ्यास से अच्छा खेल दिखा सकती है। एक आकलन में पिछले आई पी एल में आधिकारिक प्रसारणकर्ता सोनी ने अकेले लघभग आठ सो करोड़ का मुनाफा कमाया था। अगर सोनी इतनी बड़ी रकम कमा सकता है तो आयोजनकर्ताओं और फ्रेंचाइजी टीमों की कमाई का कोई हिसाब ही नही है और इस कुबेर की कमाई से सौ दो सौ खिलाड़ियों को देना जैसे उन्हे चुग्गा खिलाना है। असल में आज भारत में कोई सबसे ज्यादा प्रोफेशनल संस्था है तो वो बी सी सी सी आई है। पैसा बनाना तो कोई इनसे सीखे। आई पी एल की कमाई का खेल इतना हाई प्रोफाइल, फायदेमंद और उलझा है कि ललित मोदी और शशि थरूर इसके भेंट चढ़ गये।

अब बात करते हैं नक्सलियों के द्वारा मारे गये जवानों की कंपंशेसन राशि के बारे में। नक्सलियों का हमला और हमारे जवानों की मौत सीधे-सीधे हमारे आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था का मामला है जो अभी सेना के हाथ में नही हमारे घटिया मंत्रियों के हाथों में है। जो कुंभकर्णी नींद में इस कदर डूबे हुये हैं कि न तो उन्हे हमारे देश के अति पिछड़े अविकसित इलाकों की चीख पुकार ही सुनाई दे रही है और न ही नक्सलियों के हमलें में मारे जाने वाले जवानों के परिवारो का क्रंदन ही। वे जब अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में राष्ट्रमंडल जैसे खेलों के आयोजन में देश की इज्जत की परवाह न करते हुये खर्चे के लिये दिये जाने वाले पैसों को दोनों हाथो से लूट सकते हैं तो उन्हे पचास, सौ जवानों की मौत से कोई फर्क नही पड़ने वाला है। बी एस एफ, सी आर पी एफ और एस एस बी जैसे सैनिक और अर्धसैनिक बलों में देश के पिछड़े इलाकों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश राजस्थान हरियाणा, आदि राज्यों से आये नवयुवक भर्ती होते हैं जिनके मरने से किसी को कोई फर्क नही पड़ने वाला। क्योंकि जितने मरते हैं उससे ज्यादा मरने के लिये भर्ती होने के लिये भर्ती होने के लिये आ जाते हैं। अगर यकीन न आता हो तो गोरखपुर और बरेली जैसे शहरों में आकर हजारों युवकों की उस भीड़ को देखिये जो ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट इत्यादि तो है लेकिन जिनमें योग्यता का अभाव है। उन्हे रोजगार पाने का ये सबसे आसान तरीका लगता है।

यह हमारी शिक्षा व्यवस्था है जो ऐसे ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट नही बनाती है जो योग्य हों। हमारा शासन तंत्र है जो जवानों की मौत पर सिर्फ घड़ियाली आँसू बहाते हैं। ये हमारे नेता हैं जो वक्त आने पर देश को भी बेच सकते हैं। प्राब्लम आई पी एल, जवानों की मौत या नक्सलियों का नही है, प्राब्लम हमारे भ्रष्ट नेताओं, सड़ चुके सिस्टम और बेइमान हो चुकी जनता में है। नेता जो अपना काम ईमानदारी से नही करते, सिस्टम जिसमें हजारो कमियाँ है, और जनता जो इतनी डरी हुई और बेईमान है कि विरोध का झंडा नही उठाती....


सुरेंद्र...

Sunday, August 1, 2010

53 प्रतिशत पाकिस्तानी मानते हैं कि भारत उनके लिये सबसे बड़ा खतरा है

शीर्षक पढ़कर हर भारतीय के मन में यह बात जरुर उठेगी कि सही है, चोर की दाढ़ी में तिनका। उपरोक्त तथ्य एक सर्वेक्षण में सामने आये हैं जिसे दो हजार पाकिस्तानी युवकों में किया गया। जाहिर सी बात है कि यदि यही सर्वेक्षण भारत में विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं में किया जाय तो सौ प्रतिशत भारतीय यह मानेंगे कि पाकिस्तान भारत की शांति के लिये सबसे बड़ा खतरा है।

सर्वेक्षण वाशिंगटन के एक रिसर्च सेंटर, ग्लोबल एट्टीट्यूड प्रोजेक्ट नाम की संस्था ने पाकिस्तान में करवाया। गौर करने वाली बात यह है कि उपरोक्त संस्थान ने यही सर्वेक्षण अमेरिका में करवाया होता तो क्या होता।

अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों यह जानते हैं कि कौन किसके लिये खतरा है। इस प्रकार के सर्वेक्षणों की प्रासंगिकता कितने दिनों तक है सभी जानते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि अपगानिस्तान और ईरान मसले पर इसी प्रकार के सर्वेक्षण अमेरिका और पूरे विश्व में किये जाने चाहिये।

यह सर्वेक्षण हामिद करजई के उस बयान के बाद आया है जिसमें उन्होने कहा है कि आतंकवादियों के खात्मे के लिये पाकिस्तान पर हमले क्यों नही किये जा रहे हैं।

भारत पाकिस्तान जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दे पर इस प्रकार की घटिया मानसिकता वाले सर्वेक्षणों के उपरांत निकाले गये वाहियात निष्कर्षों के आधार पर दोनों देशों के बीच में कटुता बढ़ाने के बजाय अमेरिका को वियतनाम के बाद अफगानिस्तान से नंगा होकर भागने के रास्ते तालाशने चाहिये।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...