Sunday, December 22, 2013

धूम 3

बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले हम।
धूम 3 को देखकर थियेटर से निकलने के बाद पहला विचार जो दिमाग में आया वह यही था। देशभर के 4500 सिनेमाघरों में रिलीज करके, ऊँची कीमत पर टिकट बेचे जाने का जो गेम यशराज फिल्म्स ने खेला उससे दर्शक फिल्म देखने सिनेमाघर जरूर गया लेकिन बाहर आते समय सिर धुनने के अतिरिक्त कोई चारा उसके पास नहीं था।
फिल्म में ना कोई कहानी है ना कोई सस्पेन्स जो थोड़ा बहुत है उसे निर्देशक ने अगले ही दृश्य में खुद ही बता दिया है। जिस 
प्रकार औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचती उसी प्रकार फिल्म के निर्देशक के पेट में फिल्म का कोई सस्पेंस या मिस्ट्री नहीं पचती ऊपर से तुक्का यह कि पूरी फिल्म में मिस्ट्री की बात की गई है।
फिल्म के तकनीकी पक्ष को छोड़ दें तो फिल्म में ऐसा कुछ भी नही जिसे याद रखा जाये। चरित्रों की बात करें तो आदित्य चोपड़ा ने पहले से ही तय कर रखा था कि आमिर के अलावा किसी को स्कोप ही नहीं देना है। पूरी फिल्म में आमिर ही आमिर हैं रही सही कसर उनके डबल रोल ने पूरी कर दी। एक आमिर किसी फिल्म को पचा जाते हैं यहाँ तो दो दो आमिर हैं तो किसी के लिये कुछ बचने की संभावना थी ही नही। लेकिन आदित्य को यह सोचना चाहिये था कि कोई फिल्म केवल एक या दो किरदार की बदौलत नहीं बढ़िया बनती। फिल्म को बढ़िया बनाने के लिये और भी चरित्रों की जरुरत पड़ती है। धूम में ऐसे किरदार हैं भी लेकिन उनपर आमिर के डर से ज्यादा मेहनत नहीं की गई। सबसे ज्यादा नाइंसाफी अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा के साथ की गई है। कैटरीना कैफ से भी कोई हमदर्दी नही दिखाई गई। विदेशी किरदारों का काम शायद शोरूम में रखे आइटम की तरह पोस्टर में छापने के लिये ही किया गया है। कम से कम विक्टरिया के किरदार को बढ़ाया जा सकता था।
म्यूजिक के नाम पर सिर्फ धूम का बैकग्राउण्ड स्कोर ही सुनाई देता है और याद रहता है। हाँ फिल्म के टाइटिल में आमिर द्वारा किया गया टैप डांस दर्शनीय है। स्टंट के नाम पर पूरी फिल्म में सिर्फ स्पेशल इफैक्ट है जो अक्सर बोरिंग लगते हैं। सबसे बड़ी कमी फिल्म का बैकग्राउण्ड अमेरिका में होना है। धूम जैसी चोरी का पता हालीवुड का लोकल पुलिसवाला ही आसानी से लगा सकता है उसके लिये भारत से जय और अली को बुलाने की जरुरत नहीं पड़ती।

और क्या लिखूँ बस इतना ही कि इस लेख को पढ़कर अगर एक भी पाठक थोड़ा सा पेशेन्स दिखाकर फिल्म के डीवीडी रिलीज होने तक इंतजार कर सके तो इसका लिखना सार्थक हो जायेगा।

दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Wednesday, June 5, 2013

जिया खान

जिन्दगी में किसी मुकाम पर पहुँचना उतना कठिन नहीं है जितना कि उस पर लंबे समय तक टिके रहना। असल में यह एक पड़ाव नहीं बल्कि एक सफर है जिसपर ज्यादा दूर चलने की इच्छा आपकी काबिलियत पर निर्भर करती है। भारत में तीन चीजें सबको दिखाई देती हैं, क्रिकेट, राजनीति और बालीवुड। सबसे ज्यादा शोहरत किसी क्षेत्र में हैं तो वह है...फिल्म। लाइमलाइट की चकाचौंध में खुद को हमेशा आगे रखने की कोशिश कई बार फिल्मी सितारों के मन में आत्मघाती प्रवृत्ति का निर्माण कर देती है। सितारे अक्सर इस कोशिश में लगे रहते हैं कि दुनिया प्रतिदिन उनके बारे में जाने और पढ़े और यह तभी होता है जब कोई सितारा लगातार फिल्मों में काम करता रहे।
अभिनेता इस मामले में ज्यादा खुशकिस्मत होते हैं क्योंकि उन्की फिल्मी पारी लंबी खिंच ही जाती है। लेकिन बात जब अभिनेत्रियों की आती है तो चीजें इतनी आसान नही रहती।

जिया खान की आत्महत्या इस बहस को और आगे तक ले जायेगी कि वो कौन सी वजह थी जिसने 25 साल की उम्र में उन्हे आत्महत्या करने पर मजबूर किया। 



दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Saturday, May 11, 2013

अश्विनी कुमार की विदाई-सवाल बाकी हैं.... !


बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले हम।
आखिरकार अश्विनी कुमार (पूर्व कानून मंत्री) और पवन बंसल (पूर्व रेल मंत्री) को जाना ही पड़ा। राजनीति के बिसात पर और ज्यादा फजीहत झेलने की अपेक्षा, सोनिया गाँधी ने अश्विनी कुमार के सेवियर मनमोहन सिंह की बात न मानने का फैसला किया। परिवर्तन संसार का नियम है और राजनीति इसके नियमों से अलग नही। लेकिन इन दो केन्द्रीय मंत्रियों के जाने से अंतहीन सवालों का दौर शुरू हो जाता है जिसके बारे में भारतीय जनता को अवश्य सोचना चाहिये।
हमारे देश में संविधान और कानून को सबसे ऊँचा दर्जा प्राप्त है जिसकी अवमानना करने का गंभीर अपराध अश्विनी कुमार ने किया है। लेकिन जो सवाल सबसे बड़ा है उसके बारे में मंथन जरूर होना चाहिये और संभव हो सके तो जाँच भी। क्या अश्विनी कुमार ने स्वयं ही सी बी आई रिपोर्ट देखी थी, या फिर किसी और के कहने पर। जाहिर सी बात है कि कोलगेट मामले में अश्विनी कुमार नहीं फँसे थे, और न ही इसके पहले उनका ऐसा कोई रिकार्ड भी था। तो फिर अश्विनी कुमार ने सी बी आई की रिपोर्ट देखने की गलती क्यों की। वे इतने नासमझ भी नहीं हो सकते हैं कि उन्होने ये मान लिया हो कि इस घटना का किसी को पता नहीं चलेगा। सी बी आई से कोलगेट मामले की जाँच करने के लिये खुद माननीय उच्चतम न्यायालय ने किया था और यह सख्त ताकीद की थी कि उन्हे रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में दी जाये ताकि कैग के द्वारा लगाये गये आरोंपों की जाँच हो सके। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार है जब किसी सरकार ने उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना करके इस कदर नैतिकता की सीढ़ियों से गिरकर ओछा व्यवहार किया हो।
अश्विनी कुमार ने अपनी बलि देकर सरकार को बचाया है, उस सरकार को जिसके दो बार के कार्यकाल में भारत विकास के रास्ते में दशकों पीछे चला गया है। राष्ट्रमंडल घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला और कोलगेट घोटाला जैसी बडी घटनाओं को छोड़ दें तो ना जाने कितने और घोटाले फाइलों में बंद पड़े मिलेंगे। ये वे घोटालें हैं जो इसी सरकार के रहते सामने आये हैं। अब सबका ध्यान अश्विनी कुमार और पवन बंसल पर है, पुरानी घटनायें हाशिये पर चली गई हैं। यू पी ए सरकार इस मामले में सिद्धहस्त है। आने वाले समय में उसे इसका जवाब देना पड़ेगा।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Friday, May 10, 2013

मनमोहन का नया अवतार...Manmohan the saviour...!


अटल वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान कुछ दिनों के लिये प्याज के दाम 70 से 80 किग्रा हो गये थे। उस साल के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने एक गाने के सहारा लिया था। गाने का तर्ज, तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे, का था और बोल कुछ इस प्रकार के थे-
का हो अटल चाचा, पियाजुआ अनार हो गईल....
कहना ना होगा कि इस गाने ने पूर्वांचल में  ऐसी धूम मचाई कि भाजपा का पत्ता यूपी से कट गया और आजतक भाजपा अपनी जड़े तलाश कर रही है। दूसरी ओर यूपीए सरकार का दसवाँ साल पूरा होने के लघभग करीब है और दो बार के इस कार्यकाल के दौरान कांग्रेस पर न जाने कितने प्रकार के आरोप लगे, मँहगाई बढ़ी, आतंकवादी हमले हुये, लेकिन न मनमोहन बदले और नही सोनिया गाँधी। अन्ना का तूफान भी यूपीए सरकार को हिला नहीं सका। कैग की रिपोर्ट, सुप्रीम कोर्ट का डंडा तक इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाये। सीबीआई भी इनके एजेंट की तरह काम करती है।
लेकिन इन सबके बीच जो सबसे बड़ी हैरानी वाली बात है, वो है मनमोहन सिंह का बर्ताव। जिन मनमोहन सिंह को पूरा देश शालीन, शांत और सोनिया गाँधी की हाँ में हाँ मिलाने वाला कहता था वही मनमोहन आज एक ऐसे आदमी की ढाल बनकर खड़े हैं जिसे  सुप्रीम कोर्ट ने भी जलील कर दिया है। जिस आदमी पर सी बी आई की रिपोर्ट में बदलाव कराने का आरोप है। सोनिया गाँधी की नाराजगी के बावजूद अश्विनी कुमार अगर बचे हुये हैं तो सिर्फ मनमोहन सिंह की वजह से।
ये ताकत कहाँ से आई इस पर मंथन करना चाहिये। लेकिन मंथन करने से भी क्या हासिल होगा, सिर्फ मेहनत ही जाया होगी। असल मे सारा खेल आपसी मिलीभगत से हुआ है जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व से लेकर पूरा सरकारी तंत्र शामिल है। मनमोहन सिंह की जिद और कवच रूपी अवतार को उनकी प्रवृत्ति समझने की भूल करना बेमानी होगा। असल में दूसरे के कंधे का सहारा लेकर बंदूक चलाना राजतिज्ञों की पुरानी आदत रही है। अश्विनी कुमार जायेंगे तो, मनमोहन पर उंगली उठेगी, और अगर मनमोहन पर उंगली उठी तो सोनिया उसकी जद में आ ही जायेंगी। तो सारा खेल खाने और बचने-बचाने का है।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Thursday, May 9, 2013

कांग्रेस की जीत कर्नाटक में


बिल्ली के भाग से छींका टूटा, बिल्ली ने समझा कि उसकी मेहनत रंग लाई, पर उसे पता नहीं था कि वह कितना भी उछल कूद मचा ले, छींके की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकती थी।
कर्नाटक के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हुई बयानबाजी भी कुछ इसी तरह की है। जिस भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री येदुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोंपों की वजह से अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा हो, इसके साथ ही साथ उन्हे भाजपा से निष्काषित कर दिया गया हो या फिर वे खुद ही निकल गये हों, भाजपा के प्रदर्शन पर इसका प्रभाव नजर आना ही था।  भाजपा से निकलने के बाद जिस तरीके से येदुरप्पा की आँखों में आँसू  झलके थे, कर्नाटक में भाजपा के भविष्य का निर्धारण उसी दिन हो गया था।

हमारी राजनीतिक व्यवस्था की यह सबसे बड़ी कमी है कि हम व्यक्ति के प्रभाव क्षेत्र से कभी निकल ही नहीं पाये। किसी भी राजनीतिक पार्टी पर नजर डालकर देखें, वह पूरी तरह से एक आदमी के ही इर्द गिर्द  घूमती है। क्या पार्टी का प्रदर्शन सिर्फ उसके अध्यक्ष या फिर प्रचारक की वजह से तय होता है, शायद नहीं लेकिन पार्टी का भविष्य और दिशा निर्देश पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रित होता है। कर्नाटक में भाजपा के बुरे प्रदर्शन की यह सबसे बड़ी वजह हो सकती है कि येदुरप्पा के निकलने के बाद भाजपा को उनका कोई विकल्प नही मिला।
हमारे महराजगंज विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी होते थे सुदामा प्रसाद, जो ना जाने कितने सालों से कांग्रेस के टिकट पर विधायक का चुनाव लड़ रहे थे, पर जीत तो दूर, जीत की खुशबू तक नसीब नहीं होती थी उन्हे। इस बार गलती से सपा के उम्मीदवार पर उंगली उठी, पार्टी ने उन्हे टिकट नहीं दिया। इधर कांग्रेस भी अपनी लागातार होती फजीहत से तंग आकर नया दाँव खेलने का मन बनाया और सुदामा प्रसाद को टिकट न देकर उनके कट्टर प्रतिद्वंदी, युवा नेता आलोक प्रसाद को टिकट दिया। चुनाव के नतीजे और सुदामा प्रसाद के भविष्य का निपटारा उशी दिन हो गया, सुदामा प्रसाद की न जाने कितने दशकों के बाद किस्मत खुली और वे विधायक बन गये। सोचने वाली बात थी कि, क्या सुदामा प्रसाद अपनी वजह से चुनाव जीते थे, नही, बिल्ली के भाग से छींका टूटा था, और मलाई उसके हिस्से में आ गई। शायद यही वजह है कि हर बिल्ली का दिन कभी न कभी आता जरूर है।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Wednesday, May 8, 2013

पुरानी शराब है आई पी एल


एक कहावत है कि शराब जितनी पुरानी होती है उसकी खुमारी उतनी ही ज्यादा मदहोश करने वाली होती है। उसका नशा धीरे-धीरे चढ़ता है और देर से उतरता है। यही हाल आई पी एल का भी है। जैसे जैसे आई पी एल पुराना होता जा रहा है उसका नशा लोगों के सिर पर और ज्यादा चढ़ रहा है।

बी सी सी आई द्वारा 2008 में शुरु किया गया इण्डियन प्रीमियर लीग सफलता और कीर्तिमानों की इन ऊँचाइयों को छुयेगा किसी ने सोचा नहीं था। 2013 में लागातार छठवीं बार आयोजित हो रहा आई पी एल निश्चित ही 2008 से ज्यादा सफलतापूर्वक आयोजित किया जा रहा है और बल्ले और गेंद की जंग का दर्शक खूब मजा ले रहे हैं। क्रिकेट की इस नई परिभाषा से पारंपरिक खेल का रोना रोने वाले क्रिकेटर और आलोचक भौंचक है। लेकिन जिस प्रकार फिल्मे, आलोचक या फिर निर्देशक निर्माता नहीं बल्कि दर्शक चलाते या डुबातें है, उसी प्रकार क्रिकेट का भविष्य आजकल दर्शक ही तय कर रहे हैं। पारंपरिक खेल से लोगों का नाता टूट रहा है और लोग रोमांच की पराकाष्ठा की ओर भाग रहे हैं।


डर्टी पिक्चर में विद्या बालन द्वारा बोला गया डायलाग कि, फिल्मे सिर्फ तीन चीजों से चलती है- इण्टरटेनमेन्ट, इण्टरटेनमेन्ट और इण्टरटेनमेन्ट। उसी प्रकार क्रिकेट भी आजकल सिर्फ तीन चीजों की वजह से देखा जाता है- इण्टरटेनमेन्ट, इण्टरटेनमेन्ट और इण्टरटेनमेन्ट। आई पी एल में इण्टरटेनमेन्ट है, रोमांच का तड़का है, चीयर लीडर्स की रिझाने वाली अदायें हैं। दर्शकों को इससे ज्यादा और क्या चाहिये। भागदौड़ भरी जिन्दगी में कुछ घण्टे वे अपनी परेशानियों को भूलकर ग्लेडियेटर्स की तरह लड़ रहे क्रिकेटरों को देखकर अपना मन बहला लेते हैं तो क्या बुरा है। 





दिल से निकलेगी ना मरकर  भी, वतन की उल्फत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी।।

Sunday, April 21, 2013

बारिश 2013


कई दिनों के इन्तजार के बाद आखिरकार बादलों को रहम आ ही गया और 2013 सीजन की पहली बारिश 20 अप्रैल की रात को हो गई। अभी इस समय जबकि शाम के तीन बज रहे हैं पिछले चार पाँच घण्टों से बारिश लागातार हो रही है। मौसम बहुत सुहावना हो गया है। लेकिन इसी बीच मेरे लिये काम बढ़ भी गया है। घर के बगल में लगाई हुई भिण्डियाँ जो बहुत तेजी के साथ बढ़ रही थीं, लेकिन अभी छोटी ही थीं, बारिश की वजह से गिर चुकी हैं।
कुछ दिनों पहले से ही पुरुवा हवाओं ने सूरज की तपन को बहुत कुछ नियंत्रित कर रखा था और रात में बिजली की चमक भी दिखाई दे जा रही थी। मानसून के पहले की इस तरह की बारिश को आम्र वर्षा कहते हैं।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Friday, February 1, 2013

कमल हासन की धमकी



काफी समय पहले जब मै हाईस्कूल का छात्र था तब मैनें अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में रूल्स आफ द रोड नाम के अध्याय के अन्तर्गत एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी जिसका सारांश था कि स्वतंत्रता का  मतलब निरंकुश होना नही बल्कि दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करना है। कहानी को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत करना प्रासंगिक है। एक आदमी सड़क पर अपनी छड़ी घुमाते हुये चल रहा था। पीछे चलने वाले आदमी ने उसे टोका तो उसने जवाब दिया- मैं अपनी मर्जी से कोई भी काम करने के लिये स्वतंत्र हूँ। तब पीछे चलने वाले आदमी ने कहा- तुम्हारी स्वतंत्रता वहीं पर खत्म हो जाती है जहाँ पर मेरी नाक शुरू होती है। जिस बात को हाईस्कूल में इस कहानी के माध्यम से मेरे जैसे बहुत लोगों मे समझ लिया होगा कमल हासन जैसे लोग आज तक नहीं समझ पाये, लेकिन इससे यह साबित नही होता कि कि कमल हासन समझदार नही हैं। असल में वे समझदार भी हैं और एक दूरदर्शी फिल्म निर्माता भी जो जोखिम लेना चाहता है। कमल हासन के खाते में कुछ ऐसी फिल्मे हैं जो उन्हे विश्वस्तर के अभिनेता के रूप में स्थापित करती हैं। नायकन, हिन्दुस्तानी, सदमा, हे राम, दशावतार इत्यादि ऐसी फिल्में हें जिनसे किसी भी भारतीय अभिनेता को जलन हो सकती है। तो क्या वजह है कि कमल हसन जैसा संवेदनशील निर्माता अपनी नई फिल्म विश्वरूप पर तमिलनाडु सरकार द्वारा रोक लगाये जाने की वजह से इतना परेशान हो गया कि उसे देश छोड़ देने की धमकी देनी पड़ गई। हालाँकि इसे धमकी के रूप मे लेना सही नही है, क्योंकि देश छोड़ने का निर्णय कि सी व्यक्ति का नितांत निजी मामला है। लेकिन कमल हासन का यह व्यक्तव्य इस मामले में महत्वपूर्ण हो जाता है कि उन्होने सेकुलरिज्म के नाम पर भारत को छोड़कर किसी ऐसे देश में जाने की बात कही जो धर्म निरपेक्ष हो और जहाँ मीडिया पर धर्म का प्रभाव ना हो।
पर्दे के पीछे-
कमल हासन ने अपनी नई महत्वाकांक्षी फिल्म विश्वरूप को बनाने में अपनी सारी संपत्ति गिरवी रख दी है। फिल्म के एक्शन दृश्यों को फिल्माने में अच्छा खासा बजट लागाया गया है और इसे हालीवुड फिल्मों के टक्कर का बनाने की पूरी कोशिश हुई है। कुछ सप्ताह पहले इसे थियेटर से पहले सेटेलाइट पर पे आन चैनल्स के जरिये दिखाने की व्यवस्था भी की गई थी। इससे कमल हासन को कितना फायदा हुआ, पता नहीं, क्योंकि मीडिया में इस बारे में कोई खबर नही थी। समस्या की शुरुआत तब हुई जब कुछ मुस्लिम संगठनों ने फिल्म में आपत्तिजनक सामग्री की दुहाई देकर तमिलनाडु सरकार द्वारा फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगवा दी। कमल कोर्ट गये और फिल्म के प्रदर्शन की तिथि टल गई। जब भी किसी फिल्म के प्रदर्शन की तारीख टलती है तो निर्माता की साँसे अटकनी शुरु हो जाती है क्योंकि एक समय के बाद जनता के मन से उसकी तस्वीर मिटने लगती है। अब फिल्म में ऐसा क्या है जिसकी वजह से तमिलनाडु सरकार ने उसके प्रदर्शन पर रोक लगा दी, यह तो वो ही जाने लेकिन इसकी वजह से कमल का नाराज होना स्वाभाविक तो है, लेकिन सही नही।
कमल हसन के तर्क-
कमल ने एम. एफ. हुसैन का नाम लिया और कहा कि इसी धार्मिक कट्टरता की वजह से एक विश्वविख्यात भारतीय पेन्टर को भारत से निर्वासित होकर किसी दूसरे देश में जाकर तनहाई में अंतिम साँसे लेनी पड़ी। इस संदर्भ में दो बातें महत्वपूर्ण है कि हुसैन ने जिस देश में शरण लिया वह धर्म निरपेक्ष तो कतई नहीं था और दूसरी कि हुसैन के निर्वासन के पीछे क्या कारण थे। हुसैन चर्चा में तब आये जब उन्होने हिन्दू देवियों की नग्न तस्वीरें बनाई और उसका व्यापक विरोध हुआ। हुसैन को मरते वक्त भी इस सवाल का जवाब देना मुश्किल रहा होगा कि यह किस प्रकार की कला और ऐस्थेटिक सेंस है जो किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाती हो, उसे अपमानित करती हो। कला का एकमात्र उद्देश्य प्रेम और भाईचारा होना चाहिये, ना कि वैमनस्य बढ़ाने का एक साधन। कमल को भी यह समझना चाहिये था कि किसी के जलते हुये घर पर अपनी रोटी सेंकना बुद्धिमानी नहीं कही जायेगी और इंसानियत तो बिल्कुल भी नहीं।
वैश्विक समस्या-
ऐसा नही है कि यह किसी स्थान, राज्य या राष्ट्र विशेष की समस्या हो और तत्कालीन परिस्थितियों की देन हो। डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट द्वारा मोहम्मद साहब का कार्टून बना देने के बाद जो तूफान मचा था उसे एक चर्च के पादरी द्वारा पवित्र कुरान के पन्नों को जला देने घटनाओं ने और ज्यादा बढ़ाया है। चाहे फ्रांस में स्त्रियों द्ववारा बुर्का पहनने पर लगी रोक हो, या अमेरिका के गुरुद्वारे में किसी अमेरिकी द्वारा गोलियाँ बरसाने की घटना रही हो, आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हमले की घटना रही हो या फिर अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराना रहा हो, इन सबको एक नजरिये से देखने की आवश्यकता है। समाधान के लिये समस्या के कारणों को दूर करना जरूरी है।
स्वतंत्रता का सम्मान जरूरी-
यह सही है कि भारतीय संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है और भारत को एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र माना है लेकिन जब यही स्वतंत्रता दूसरों को उकसाने का कार्य करने लगती है तो इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भारत जैसे देश में, जहाँ भाषा, संस्कृति और धर्म के आधार पर जगह-जगह पर विभिन्नता देखने को मिलती है और जिसका इतिहास धार्मिक वैमनस्यता की घटनाओं से भरा पड़ा है, वहाँ पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल तलवार की धार पर चलने जैसा है। लाख कोशिशों के बाद भी धर्म नाम की भावना को इंसानी दिमाग से नहीं निकाला जा सकता, इसलिये महत्वपूर्ण है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस्तेमाल      और व्यवहार में मध्यम मार्ग और आपसी सहिष्णुता का समावेश किया जाय।

दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...