Saturday, May 11, 2013

अश्विनी कुमार की विदाई-सवाल बाकी हैं.... !


बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से निकले हम।
आखिरकार अश्विनी कुमार (पूर्व कानून मंत्री) और पवन बंसल (पूर्व रेल मंत्री) को जाना ही पड़ा। राजनीति के बिसात पर और ज्यादा फजीहत झेलने की अपेक्षा, सोनिया गाँधी ने अश्विनी कुमार के सेवियर मनमोहन सिंह की बात न मानने का फैसला किया। परिवर्तन संसार का नियम है और राजनीति इसके नियमों से अलग नही। लेकिन इन दो केन्द्रीय मंत्रियों के जाने से अंतहीन सवालों का दौर शुरू हो जाता है जिसके बारे में भारतीय जनता को अवश्य सोचना चाहिये।
हमारे देश में संविधान और कानून को सबसे ऊँचा दर्जा प्राप्त है जिसकी अवमानना करने का गंभीर अपराध अश्विनी कुमार ने किया है। लेकिन जो सवाल सबसे बड़ा है उसके बारे में मंथन जरूर होना चाहिये और संभव हो सके तो जाँच भी। क्या अश्विनी कुमार ने स्वयं ही सी बी आई रिपोर्ट देखी थी, या फिर किसी और के कहने पर। जाहिर सी बात है कि कोलगेट मामले में अश्विनी कुमार नहीं फँसे थे, और न ही इसके पहले उनका ऐसा कोई रिकार्ड भी था। तो फिर अश्विनी कुमार ने सी बी आई की रिपोर्ट देखने की गलती क्यों की। वे इतने नासमझ भी नहीं हो सकते हैं कि उन्होने ये मान लिया हो कि इस घटना का किसी को पता नहीं चलेगा। सी बी आई से कोलगेट मामले की जाँच करने के लिये खुद माननीय उच्चतम न्यायालय ने किया था और यह सख्त ताकीद की थी कि उन्हे रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में दी जाये ताकि कैग के द्वारा लगाये गये आरोंपों की जाँच हो सके। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार है जब किसी सरकार ने उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना करके इस कदर नैतिकता की सीढ़ियों से गिरकर ओछा व्यवहार किया हो।
अश्विनी कुमार ने अपनी बलि देकर सरकार को बचाया है, उस सरकार को जिसके दो बार के कार्यकाल में भारत विकास के रास्ते में दशकों पीछे चला गया है। राष्ट्रमंडल घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला और कोलगेट घोटाला जैसी बडी घटनाओं को छोड़ दें तो ना जाने कितने और घोटाले फाइलों में बंद पड़े मिलेंगे। ये वे घोटालें हैं जो इसी सरकार के रहते सामने आये हैं। अब सबका ध्यान अश्विनी कुमार और पवन बंसल पर है, पुरानी घटनायें हाशिये पर चली गई हैं। यू पी ए सरकार इस मामले में सिद्धहस्त है। आने वाले समय में उसे इसका जवाब देना पड़ेगा।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Friday, May 10, 2013

मनमोहन का नया अवतार...Manmohan the saviour...!


अटल वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान कुछ दिनों के लिये प्याज के दाम 70 से 80 किग्रा हो गये थे। उस साल के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने एक गाने के सहारा लिया था। गाने का तर्ज, तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे, का था और बोल कुछ इस प्रकार के थे-
का हो अटल चाचा, पियाजुआ अनार हो गईल....
कहना ना होगा कि इस गाने ने पूर्वांचल में  ऐसी धूम मचाई कि भाजपा का पत्ता यूपी से कट गया और आजतक भाजपा अपनी जड़े तलाश कर रही है। दूसरी ओर यूपीए सरकार का दसवाँ साल पूरा होने के लघभग करीब है और दो बार के इस कार्यकाल के दौरान कांग्रेस पर न जाने कितने प्रकार के आरोप लगे, मँहगाई बढ़ी, आतंकवादी हमले हुये, लेकिन न मनमोहन बदले और नही सोनिया गाँधी। अन्ना का तूफान भी यूपीए सरकार को हिला नहीं सका। कैग की रिपोर्ट, सुप्रीम कोर्ट का डंडा तक इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाये। सीबीआई भी इनके एजेंट की तरह काम करती है।
लेकिन इन सबके बीच जो सबसे बड़ी हैरानी वाली बात है, वो है मनमोहन सिंह का बर्ताव। जिन मनमोहन सिंह को पूरा देश शालीन, शांत और सोनिया गाँधी की हाँ में हाँ मिलाने वाला कहता था वही मनमोहन आज एक ऐसे आदमी की ढाल बनकर खड़े हैं जिसे  सुप्रीम कोर्ट ने भी जलील कर दिया है। जिस आदमी पर सी बी आई की रिपोर्ट में बदलाव कराने का आरोप है। सोनिया गाँधी की नाराजगी के बावजूद अश्विनी कुमार अगर बचे हुये हैं तो सिर्फ मनमोहन सिंह की वजह से।
ये ताकत कहाँ से आई इस पर मंथन करना चाहिये। लेकिन मंथन करने से भी क्या हासिल होगा, सिर्फ मेहनत ही जाया होगी। असल मे सारा खेल आपसी मिलीभगत से हुआ है जिसमें कांग्रेस के नेतृत्व से लेकर पूरा सरकारी तंत्र शामिल है। मनमोहन सिंह की जिद और कवच रूपी अवतार को उनकी प्रवृत्ति समझने की भूल करना बेमानी होगा। असल में दूसरे के कंधे का सहारा लेकर बंदूक चलाना राजतिज्ञों की पुरानी आदत रही है। अश्विनी कुमार जायेंगे तो, मनमोहन पर उंगली उठेगी, और अगर मनमोहन पर उंगली उठी तो सोनिया उसकी जद में आ ही जायेंगी। तो सारा खेल खाने और बचने-बचाने का है।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Thursday, May 9, 2013

कांग्रेस की जीत कर्नाटक में


बिल्ली के भाग से छींका टूटा, बिल्ली ने समझा कि उसकी मेहनत रंग लाई, पर उसे पता नहीं था कि वह कितना भी उछल कूद मचा ले, छींके की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकती थी।
कर्नाटक के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हुई बयानबाजी भी कुछ इसी तरह की है। जिस भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री येदुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोंपों की वजह से अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा हो, इसके साथ ही साथ उन्हे भाजपा से निष्काषित कर दिया गया हो या फिर वे खुद ही निकल गये हों, भाजपा के प्रदर्शन पर इसका प्रभाव नजर आना ही था।  भाजपा से निकलने के बाद जिस तरीके से येदुरप्पा की आँखों में आँसू  झलके थे, कर्नाटक में भाजपा के भविष्य का निर्धारण उसी दिन हो गया था।

हमारी राजनीतिक व्यवस्था की यह सबसे बड़ी कमी है कि हम व्यक्ति के प्रभाव क्षेत्र से कभी निकल ही नहीं पाये। किसी भी राजनीतिक पार्टी पर नजर डालकर देखें, वह पूरी तरह से एक आदमी के ही इर्द गिर्द  घूमती है। क्या पार्टी का प्रदर्शन सिर्फ उसके अध्यक्ष या फिर प्रचारक की वजह से तय होता है, शायद नहीं लेकिन पार्टी का भविष्य और दिशा निर्देश पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रित होता है। कर्नाटक में भाजपा के बुरे प्रदर्शन की यह सबसे बड़ी वजह हो सकती है कि येदुरप्पा के निकलने के बाद भाजपा को उनका कोई विकल्प नही मिला।
हमारे महराजगंज विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी होते थे सुदामा प्रसाद, जो ना जाने कितने सालों से कांग्रेस के टिकट पर विधायक का चुनाव लड़ रहे थे, पर जीत तो दूर, जीत की खुशबू तक नसीब नहीं होती थी उन्हे। इस बार गलती से सपा के उम्मीदवार पर उंगली उठी, पार्टी ने उन्हे टिकट नहीं दिया। इधर कांग्रेस भी अपनी लागातार होती फजीहत से तंग आकर नया दाँव खेलने का मन बनाया और सुदामा प्रसाद को टिकट न देकर उनके कट्टर प्रतिद्वंदी, युवा नेता आलोक प्रसाद को टिकट दिया। चुनाव के नतीजे और सुदामा प्रसाद के भविष्य का निपटारा उशी दिन हो गया, सुदामा प्रसाद की न जाने कितने दशकों के बाद किस्मत खुली और वे विधायक बन गये। सोचने वाली बात थी कि, क्या सुदामा प्रसाद अपनी वजह से चुनाव जीते थे, नही, बिल्ली के भाग से छींका टूटा था, और मलाई उसके हिस्से में आ गई। शायद यही वजह है कि हर बिल्ली का दिन कभी न कभी आता जरूर है।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

Wednesday, May 8, 2013

पुरानी शराब है आई पी एल


एक कहावत है कि शराब जितनी पुरानी होती है उसकी खुमारी उतनी ही ज्यादा मदहोश करने वाली होती है। उसका नशा धीरे-धीरे चढ़ता है और देर से उतरता है। यही हाल आई पी एल का भी है। जैसे जैसे आई पी एल पुराना होता जा रहा है उसका नशा लोगों के सिर पर और ज्यादा चढ़ रहा है।

बी सी सी आई द्वारा 2008 में शुरु किया गया इण्डियन प्रीमियर लीग सफलता और कीर्तिमानों की इन ऊँचाइयों को छुयेगा किसी ने सोचा नहीं था। 2013 में लागातार छठवीं बार आयोजित हो रहा आई पी एल निश्चित ही 2008 से ज्यादा सफलतापूर्वक आयोजित किया जा रहा है और बल्ले और गेंद की जंग का दर्शक खूब मजा ले रहे हैं। क्रिकेट की इस नई परिभाषा से पारंपरिक खेल का रोना रोने वाले क्रिकेटर और आलोचक भौंचक है। लेकिन जिस प्रकार फिल्मे, आलोचक या फिर निर्देशक निर्माता नहीं बल्कि दर्शक चलाते या डुबातें है, उसी प्रकार क्रिकेट का भविष्य आजकल दर्शक ही तय कर रहे हैं। पारंपरिक खेल से लोगों का नाता टूट रहा है और लोग रोमांच की पराकाष्ठा की ओर भाग रहे हैं।


डर्टी पिक्चर में विद्या बालन द्वारा बोला गया डायलाग कि, फिल्मे सिर्फ तीन चीजों से चलती है- इण्टरटेनमेन्ट, इण्टरटेनमेन्ट और इण्टरटेनमेन्ट। उसी प्रकार क्रिकेट भी आजकल सिर्फ तीन चीजों की वजह से देखा जाता है- इण्टरटेनमेन्ट, इण्टरटेनमेन्ट और इण्टरटेनमेन्ट। आई पी एल में इण्टरटेनमेन्ट है, रोमांच का तड़का है, चीयर लीडर्स की रिझाने वाली अदायें हैं। दर्शकों को इससे ज्यादा और क्या चाहिये। भागदौड़ भरी जिन्दगी में कुछ घण्टे वे अपनी परेशानियों को भूलकर ग्लेडियेटर्स की तरह लड़ रहे क्रिकेटरों को देखकर अपना मन बहला लेते हैं तो क्या बुरा है। 





दिल से निकलेगी ना मरकर  भी, वतन की उल्फत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी।।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...