Thursday, August 9, 2012

सनी लियोन और हमारा समाज


यह सही है कि समाज में हमेशा से ऐसी चीजें मौजूद रही हैं जिनके बारे में हमने दोतरफा राय बना रखी है, एक पर्दे के पीछे और दूसरी पर्दे के सामने । कुछ दशकों के पूर्व तक यह प्रश्न हमारे समाज के सामने इतने विकराल रूप में नही आया था कि उत्तर देते समय हमारी स्थिति साँप छंछूदर जैसी हो जाये। जिस पोर्नोग्राफी के बारे में बात करते समय, कुछ वर्षों पहले हमारी जबान लड़खड़ा जाती थी, चेहरे पर एक स्वाभाविक सी झिझक आ जाती थी, ऐसा क्या हो गया कि उस पर बात करना तो बीती बात है, उसमें पैसों के लिये काम करने वाली एक औरत को देखने के लिये सिनेमाघर के टिकट खिड़की पर मार-मारी की स्थिति पैदा हो जा रही है।

पहली बात तो हमें यह समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान समय में समाज के विकास का पहिया पैसों की ताकत की वजह से ही आगे बढ़ रहा है। पूरा विश्व धन के पीछे अंधा होकर इस कदर भाग रहा है कि उसे पैरों के नीचे आने वाले कंकड़ों पत्थरों की भी परवाह नही। शायद वह यह भूल गया है कि इन्ही की वजह से पैरों में लगने वाले छोटे-छोटे घाव कालांतर में नासूर बनकर उसे ही मार डालेंगे। पैसे कमाने की बेहिसाब चाहत की वजह से ही फिल्मकारों का एक समूह लागातार ऐसे विषयों को चुनता रहा है जिसके प्रति समाज में हमेशा से ही एक अँधेरा कोना व्याप्त रहा है। अँधेरा, उजाले से ज्यादा आकर्षित करता है, क्योंकि अँधेरे में वे सारे कार्य किये जा सकते हैं जिसे करने में उजाला बंदिशे उत्पन्न करता है।

सनी लियोन पोर्न फिल्मों में काम करने वाली एक औरत है। (मैं यहा मीडिया के तथाकथित पोर्नस्टार संज्ञा का प्रयोग नही कर रहा हूँ, क्योंकि अगर सनी लियोन स्टार है, तो भगवान ना करे कि उस जैसी स्टार बनने की प्रेरणा हमारे समाज में हिलोरे मारने लगे। उसे स्टार का दर्जा देकर मीडिया अपनी गर्दन शुतुरमुर्ग की भाँति रेत में डाल रहा है) उसकी बदनामी को कैश करने की साजिश बालीवुड के कुछ लोगों ने की। दुख की बात तो यह है कि वे अपने मकसद में कामयाब भी हुये और आगे भी उनका मकसद इस तरह के फायदे को भुनाना है। बिग बास के सीजन 5 में बतौर कलाकार सनी लियोन का प्रवेश भारतीय चलचित्र की दुनिया में हुआ और अचानक भारत जैसे देश में सनी लियोन के ऊपर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। प्रिंट और मोशन मीडिया में सनी लियोन के नाम का डंका बज गया। कुछ लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुये रुढ़िवादियों के समूह को पानी पी-पीकर कोसना शुरू कर दिया। और आखिरकार हुआ वही जो नहीं होना चाहिये था, एक निर्माता-निर्देशक पहुँच गये बिग बास के घर में सनी लियोन को अपनी कहानी सुनाने। अँधे को क्या चाहिये दो आँखे...लियोन ने हाँ कर दी। वहीं से शुरु हो गया पैसे कमाने का खेल, जिसे खेलने वाले अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, क्योंकि जिस्म-2 ने रिलीज के पहले ही वीकेंड में 21 करोड़ कमा लिये। उत्तर भारत के ग्रामीण इलाके में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि पैसा तो एक प्राश्चीट्यूट भी कमा लेती है। हमारे समाज ने कभी भी प्राश्चीट्यूट को नहीं स्वीकारा लेकिन इन प्राश्चीट्यूट्स से भी गंदे और बुरे वे लोग हैं जो बीच में रहकर ग्राहकों से इनका संपर्क कराते हैं जिसे आम भाषा में दलाल कहा जाता है। पे प्राश्चीट्यूट की उस कमाई में अवैध हिस्सा लेते हैं जिसे कमाने के लिये कोई भी प्राश्चीट्यूट सौ बार मर चुकी होती है। लेकिन सनी लियोन और हमारे फिल्म निर्देशक का मामला बिलकुल उलट है। लियोन यह कहती है कि उसने पोर्नोग्राफी का क्षेत्र अपने मर्जी से चुना और इसमें वह कोई  बुराई नही मानती। इस संदर्भ में हमारे निर्देशक की भूमिका और भी गंदी हो जाती है, उसने एक बदनाम औरत को लेकर, एक बदनाम विषय पर, एक बदनाम फिल्म बनाई। कहते हैं कि, नाम ना होगा तो क्या बदनाम भी ना होंगे। बदनामी भी एक तरह की प्रसिद्धि ही है, जिसे पाने का रास्ता बिल्कुल भी कठिन नही है।

शायद कम ही लोग जानते होगे कि जिस्म 2 की निर्माता, जो खुद एक औऱत हैं, उनके बारे में आज के पहले लघभग बारह  या चौदह साल पूर्व एक स्कैंडल हो चुका है। उनकी एक न्यूज तस्वीर मैगजीन में छप गई थी जिसे लेकर बहुत बड़ा बवाल मचा था। मामला पुलिस तक पहुँच गया था। उस मामले में आज की इस बोल्ड निर्माता के रोते-रोते बुरा हाल था। बाद में पता चला कि किसी और औरत के शरीर के उपर इनका फोटो चिपका दिया गया था।  जिस घटना ने उनका जीना हराम कर दिया था आज वह उसी प्रकार के दूसरी बदनाम औरत का सहारा लेकर पैसा कमा रही हैं।
असल में इसमें सनी लियोन का कोई दोष नही है। वह तो एक कठुतली है जिसे पैसों की उंगलियों की बदौलत कहीं भी, किसी भी प्रकार से नचाया जा सकता है। दोषी वे लोग हैं जिन्होने लियोन के जरिये पैसा कमाने का गंदा खेल खेला है।

अब एक सवाल उठता है कि महाराष्ट्र में राज ठाकरे, उत्तर भारत में संघ जैसे कट्टरवादी संगठन, तथाकथित मौलान लोग जो विरोध करने के लिये विशेष रूप से पहचाने जाते हैं उनकी बोलती इस मसले पर बंद क्यों है। क्या राज ठाकरे की राजनीति मात्र उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों को खदेड़ने पर ही टिकी है, क्या संघ का  गुस्सा सिर्फ वैलेंटाइन डे पर ही फूटता है, या फिर मौलाना लोग तभी कुछ बोलेंगे जब बात उनके मजहब से संबंधित होगी। किसी को नजर क्यों नही आ रहा कि कुछ लोग हमारी संस्कृति और समाज का बलात्कार करने पर तुले हुये हैं। क्या आतंकवाद की परिभाषा खून के छींटों से ही लिखी जाती है। करोड़ों युवा लड़के और लड़कियों के दिमाग में जो बम प्रतिदिन फूट रहें हैं उनका कुछ नही। 

अगर अनारा गुप्ता, वाटर और प्राश्चीट्यूट्स का विरोध हो सकता है तो, हम किसलिये जिस्म 2 देखने के लिये थियेटरों में जा सकते हैं। हमारे समाज का यही दोतरफा चेहरा है जिसने हमें हमेशा गर्त में ढ़केला है। 

दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

टेराकोटा- गोरखपुर का गौरव


टेराकोटा के ऊपर प्रस्तुत किया गया यह लेख मूल रूप में मेंरे डाक्यूमेन्ट्री फिल्म, टेराकोटा-गोरखपुर का गौरव, का वायस ओवर है, इसीलिये कहीं कहीं  लेख में आपको दृश्यात्मक वाक्य भी मिल जायेंगे। कृपया उसको ध्यान में ना रखकर लेख का आनंद लें। अभी मैं इस डाक्यूमेन्ट्री का संपादन कर रहा हूँ। आशा है कि अगले तीन चार दिनों में यह तैयार हो जायेगी।

यूँ तो उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से ढ़ाई सौ किलोमीटर उत्तर पूर्व में बसे हुये ऐतिहासिक नगर गोरखपुर को किसी परिचय की आवश्यकता नही। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान  1919 में घटी चौरी-चौरा की दर्दनाक घटना हो, या फिर नाथ संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करता विश्वप्रसिद्ध गोरखनाथ मंदिर, धार्मिक अध्ययन सामग्री के प्रकाशन में वैश्विक कीर्तिमान बना चुका गीताप्रेस हो अथवा पूर्वोत्तर रेलवे का कार्यालय गोरखपुर रेलवे स्टेशन...ये सभी गोरखपुर को एक अलग प्रकार की विशिष्टता प्रदान करते हैं लेकिन इन सबके अतिरिक्त गोरखपुर को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का कार्य किया है एक खास तरीके की कला ने...जो यहाँ के जमीन से जुड़ी है...यहाँ की खुशबू से जुड़ी है...और यहाँ की परंपरा से जुड़ी है।

जी हाँ हम बात कर रहे हैं..विश्वप्रसिद्ध टेराकोटा आर्ट की...जिसने गोरखपुर को एक अलग  ही मुकाम पर पहुँचाया है। लाल रंग से रंगी प्रतीत होती विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। सिर्फ चाक और कुछ अन्य प्रकार के छोटे-छोटे यंत्रों के प्रयोग से ही तैयार ये मूर्तियाँ ऐसा आकर्षण उत्पन्न करती हैं कि हर कोई इनकी तरफ खिंचा चला आता है और सोचने के लिये विवश हो जाता है कि कितनी मेहनत लगती होगी इनको तैयार करने में

गोरखपुर से महराजगंज जाने वाली सड़क पर दस किलोमीटर चलने के बाद एक सड़क जाती है टेराकोटा के कलाकारों के गाँव जिसका नाम है...औरंगाबाद। नाम सुनने के बाद चौंकियेगा मत...क्योंकि यह महाराष्ट्र का औरंगाबाद नही है...यह है गोरखपुर का औरंगाबाद जहाँ पर भोलानाथ प्रजापति जी के साथ-साथ बारह पुश्तैनी परिवार टेराकोटा की मूर्तियाँ बनाने में संलग्न है और इस कला को आजतक जीवित रखे हुये हैं। टेराकोटा मूर्तिकला की खूबसूरती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी इसके सम्मोहन से नहीं बच सके थे। उसके बाद श्रीमती इन्दिरा गाँधी, राजीव गान्धी, सोनिया गान्धी, पी. वी. नरसिम्हा राव, माननीय श्री शंकर दयाल शर्मा, माननीय के. आर. नारयणन, उत्तर प्रदेश के  पूर्व मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह, पूर्व राज्यपाल डा. मुरली मनोहर जोशी इत्यादि राजनयिकों ने इस कला को सँवारा और सम्वर्धित किया।

 श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने यह तालाब जिससे कलाकार मूर्तियों के लिये मट्टियाँ निकालते हैं, इन कलाकारों के नाम ही कर दिया। बाद में सरकार ने इनका कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिये इस टेराकोटा भवन का भी निर्माण करा दिया। 

टेराकोटा मूर्तिकला के जिस रूप को हम वर्तमान में देख रहे हैं, वह सदा से ऐसी नही थी। समय के साथ-साथ इस कला ने भी अपने आपको परिवर्तित किया है और वर्तमान में इस रूप में हमारे सामने उपस्थित है। पं. जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि पड़ने से पूर्व टेराकोटा कला का स्वरूप गाँव में काली माता के पूजा के लिये प्रयोग किये जाने वाले हाथी और घोड़ों को बनाने तक ही सीमित था।

दिखने में यह मूर्तियाँ जितनी खूबसूरत हैं उतनी ही श्रमसाध्य है इनके निर्माण की प्रक्रिया। कई दिनों के लागातार परिश्रम के पश्चात यह इस मुकाम पर आ पाती हैं कि बाजार में इनकी मुँहमाँगी कीमत मिल जाती है।

मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया में पहला काम होता है मिट्टी को भुरभुरा बनाना। इसके पश्चात पानी मिलाकर इसे बारह घण्टे के लिये छोड़ दिया जाता है ताकि यह ठीक से गीली हो सके। उसके बाद मिट्टी को अच्छे तरीके से मड़कर उसे दूसरे स्थान पर ले जाया जाता है जहाँ इसे पैरों से खूब अच्छी तरह से दबाया जाता है जिससे यह जमीन पर एक गोल चपटे आकार में परिवर्तित हो जाती है। अब इसे काटा जाता है और फिरसे पैरों से दबाकर पुनः पहले वाली प्रक्रिया दोहराई जाती है। तत्पश्चात लहछुर नामक यंत्र से मिट्टी को काट-काटकर अलग-अलग किया जाता है, ताकि इसमें से कंकड़-पत्थर इत्यादि निकल जाये। आगे की प्रक्रिया में इसे एक लकड़ी के तख्ते पर हाथों से गूँथा जाता है। यह प्रक्रिया भी मिट्टी से कंकड़-पत्थर निकालने के लिये ही की जाती है। अब मिट्टी मूर्ति निर्माण के अगली प्रक्रिया के लिये तैयार है।

किसी भी मूर्ति के निर्माण के लिये सबसे पहले उसका आधार तैयार करते हैं। यदि एक हाथी के मूर्ति का निर्माण किया जाना है तो सबसे पहले उसके पेट, पैर और सूँड़ का निर्माण किया जायेगा। आधार तैयार होने के पश्चात इसे एक दिन सूखने के लिये छोड़ा जाता है ताकि यह अगले प्रक्रिया, यानि कि जुड़ाई के लिये तैयार हो सके।
सूखने के पश्चात इसे जोड़ने की प्रक्रिया शुरू की जाती है और सर्वप्रथम हाथी के पैर जोड़े जाते हैं। जुड़ाई एवं नक्काशी का कार्य सहूलियत के हिसाब से साथ-साथ ही संपादित किया जाता है। ध्यातव्य है कि इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी प्रकार के साँचे का प्रयोग नहीं किया जाता है। सब कार्य संपादित होने के बाद इसे सूखने के लिये छोड़ दिया जाता है। सुखाने का कार्य छायादार स्थान पर किया जाता है। पानी सूखने के पश्चात इसे कुछ देर के लिये धूप में सुखाते हैं। सूखने के बाद रंगाई का कार्य प्रारंभ किया जाता है। रंगाई का कार्य प्रायः महिलाएं ही करती हैं।

ध्यातव्य है कि मूर्तियों को रंगने के लिये किसी अन्य रंग का नही बल्कि मिट्टी से ही निर्मित घोल का प्रयोग किया जाता है जो पकने के बाद लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। मिट्टी का लाल रंग में परिवर्तित होना इसमें उपस्थित आयरन आक्साइड की वजह से होता है। रंगाई के पश्चात यह पकाने के लिये तैयार हो जाती है।
पकाने के क्रम में सबसे पहले खाली भट्टी के तह में राख की तह बिछाई जाती है ताकि गर्मी जमीन में ना जा सके। उसके बाद उसमें गोबर के कण्डे मध्य भाग से बाहर की ओर बिछाये जाते हैं। अब मूर्तियाँ सजाने का कार्य होता है। बड़ी मूर्तियाँ नीचे व छोटी मूर्तियाँ क्रमशः ऊपर रखी जाती हैं। इसके बाद इनपर पुनः कण्डे बिछाये जाते हैं एवं उन्हे पुआल से ढ़का जाता है। पुआल को ढ़कने के पश्चात उसे पानी से भिगोकर मिट्टी का लेप किया जाता है।

अब भट्टी आग डालने के लिये तैयार हो गई है। भट्टी के मध्य भाग में छिद्र करके उसमें आग डाली जाती है और फिर उस छिद्र को बंद कर दिया जाता है।भट्टी में मूर्तियाँ बारह से चौदह घण्टे में पक जाती हैं। भट्टी ठंडी होने के बाद उसमें से मूर्तियाँ निकाल ली जाती हैं और उसके बाद ये वितरण के लिये तैयार हो जाती हैं।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

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