यह सही है कि समाज में हमेशा से ऐसी चीजें मौजूद रही हैं जिनके बारे में
हमने दोतरफा राय बना रखी है, एक पर्दे के पीछे और दूसरी पर्दे के सामने । कुछ
दशकों के पूर्व तक यह प्रश्न हमारे समाज के सामने इतने विकराल रूप में नही आया था
कि उत्तर देते समय हमारी स्थिति साँप छंछूदर जैसी हो जाये। जिस पोर्नोग्राफी के
बारे में बात करते समय, कुछ वर्षों पहले हमारी जबान लड़खड़ा जाती थी, चेहरे पर एक
स्वाभाविक सी झिझक आ जाती थी, ऐसा क्या हो गया कि उस पर बात करना तो बीती बात है,
उसमें पैसों के लिये काम करने वाली एक औरत को देखने के लिये सिनेमाघर के टिकट
खिड़की पर मार-मारी की स्थिति पैदा हो जा रही है।
पहली बात तो हमें यह समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान समय में समाज के विकास का
पहिया पैसों की ताकत की वजह से ही आगे बढ़ रहा है। पूरा विश्व धन के पीछे अंधा
होकर इस कदर भाग रहा है कि उसे पैरों के नीचे आने वाले कंकड़ों पत्थरों की भी
परवाह नही। शायद वह यह भूल गया है कि इन्ही की वजह से पैरों में लगने वाले
छोटे-छोटे घाव कालांतर में नासूर बनकर उसे ही मार डालेंगे। पैसे कमाने की बेहिसाब
चाहत की वजह से ही फिल्मकारों का एक समूह लागातार ऐसे विषयों को चुनता रहा है
जिसके प्रति समाज में हमेशा से ही एक अँधेरा कोना व्याप्त रहा है। अँधेरा, उजाले
से ज्यादा आकर्षित करता है, क्योंकि अँधेरे में वे सारे कार्य किये जा सकते हैं
जिसे करने में उजाला बंदिशे उत्पन्न करता है।

सनी लियोन पोर्न फिल्मों में काम करने वाली एक औरत है। (मैं यहा मीडिया के
तथाकथित पोर्नस्टार संज्ञा का प्रयोग नही कर रहा हूँ, क्योंकि अगर सनी लियोन स्टार
है, तो भगवान ना करे कि उस जैसी स्टार बनने की प्रेरणा हमारे समाज में हिलोरे
मारने लगे। उसे स्टार का दर्जा देकर मीडिया अपनी गर्दन शुतुरमुर्ग की भाँति रेत
में डाल रहा है) उसकी बदनामी को कैश करने की साजिश बालीवुड के कुछ लोगों ने की।
दुख की बात तो यह है कि वे अपने मकसद में कामयाब भी हुये और आगे भी उनका मकसद इस
तरह के फायदे को भुनाना है। बिग बास के सीजन 5 में बतौर कलाकार सनी लियोन का
प्रवेश भारतीय चलचित्र की दुनिया में हुआ और अचानक भारत जैसे देश में सनी लियोन के
ऊपर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया। प्रिंट और मोशन मीडिया में सनी लियोन के नाम का
डंका बज गया। कुछ लोगों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुये
रुढ़िवादियों के समूह को पानी पी-पीकर कोसना शुरू कर दिया। और आखिरकार हुआ वही जो
नहीं होना चाहिये था, एक निर्माता-निर्देशक पहुँच गये बिग बास के घर में सनी लियोन
को अपनी कहानी सुनाने। अँधे को क्या चाहिये दो आँखे...लियोन ने हाँ कर दी। वहीं से
शुरु हो गया पैसे कमाने का खेल, जिसे खेलने वाले अपनी पीठ थपथपा सकते हैं, क्योंकि
जिस्म-2 ने रिलीज के पहले ही वीकेंड में 21 करोड़ कमा लिये। उत्तर भारत के ग्रामीण
इलाके में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि पैसा तो एक प्राश्चीट्यूट भी कमा लेती है।
हमारे समाज ने कभी भी प्राश्चीट्यूट को नहीं स्वीकारा लेकिन इन प्राश्चीट्यूट्स से
भी गंदे और बुरे वे लोग हैं जो बीच में रहकर ग्राहकों से इनका संपर्क कराते हैं
जिसे आम भाषा में दलाल कहा जाता है। पे प्राश्चीट्यूट की उस कमाई में अवैध हिस्सा लेते
हैं जिसे कमाने के लिये कोई भी प्राश्चीट्यूट सौ बार मर चुकी होती है। लेकिन सनी
लियोन और हमारे फिल्म निर्देशक का मामला बिलकुल उलट है। लियोन यह कहती है कि उसने
पोर्नोग्राफी का क्षेत्र अपने मर्जी से चुना और इसमें वह कोई बुराई नही मानती। इस संदर्भ में हमारे निर्देशक
की भूमिका और भी गंदी हो जाती है, उसने एक बदनाम औरत को लेकर, एक बदनाम विषय पर,
एक बदनाम फिल्म बनाई। कहते हैं कि, नाम ना होगा तो क्या बदनाम भी ना होंगे। बदनामी
भी एक तरह की प्रसिद्धि ही है, जिसे पाने का रास्ता बिल्कुल भी कठिन नही है।
शायद कम ही लोग जानते होगे कि जिस्म 2 की निर्माता, जो खुद एक औऱत हैं, उनके
बारे में आज के पहले लघभग बारह या चौदह
साल पूर्व एक स्कैंडल हो चुका है। उनकी एक न्यूज तस्वीर मैगजीन में छप गई थी जिसे
लेकर बहुत बड़ा बवाल मचा था। मामला पुलिस तक पहुँच गया था। उस मामले में आज की इस
बोल्ड निर्माता के रोते-रोते बुरा हाल था। बाद में पता चला कि किसी और औरत के शरीर
के उपर इनका फोटो चिपका दिया गया था। जिस
घटना ने उनका जीना हराम कर दिया था आज वह उसी प्रकार के दूसरी बदनाम औरत का सहारा
लेकर पैसा कमा रही हैं।
असल में इसमें सनी लियोन का कोई दोष नही है। वह तो एक कठुतली है जिसे पैसों
की उंगलियों की बदौलत कहीं भी, किसी भी प्रकार से नचाया जा सकता है। दोषी वे लोग
हैं जिन्होने लियोन के जरिये पैसा कमाने का गंदा खेल खेला है।
अब एक सवाल उठता है कि महाराष्ट्र में राज ठाकरे, उत्तर भारत में संघ जैसे
कट्टरवादी संगठन, तथाकथित मौलान लोग जो विरोध करने के लिये विशेष रूप से पहचाने
जाते हैं उनकी बोलती इस मसले पर बंद क्यों है। क्या राज ठाकरे की राजनीति मात्र
उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूरों को खदेड़ने पर ही टिकी है, क्या संघ का गुस्सा सिर्फ वैलेंटाइन डे पर ही फूटता है, या
फिर मौलाना लोग तभी कुछ बोलेंगे जब बात उनके मजहब से संबंधित होगी। किसी को नजर क्यों
नही आ रहा कि कुछ लोग हमारी संस्कृति और समाज का बलात्कार करने पर तुले हुये हैं।
क्या आतंकवाद की परिभाषा खून के छींटों से ही लिखी जाती है। करोड़ों युवा लड़के और
लड़कियों के दिमाग में जो बम प्रतिदिन फूट रहें हैं उनका कुछ नही।
अगर अनारा गुप्ता, वाटर और प्राश्चीट्यूट्स का विरोध हो सकता है तो, हम
किसलिये जिस्म 2 देखने के लिये थियेटरों में जा सकते हैं। हमारे समाज का यही
दोतरफा चेहरा है जिसने हमें हमेशा गर्त में ढ़केला है।
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।