बचपन में मैने एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें एक राजा के राज्य में दो ठग आते हैं और उससे कहते हैं कि वे उसे ऐसी पोशाक सिल कर देंगें जो सिर्फ बुद्धिमानों को दिखेगी। राजा खुश होता है और सोचता है कि इसी बहाने राज्य में बुद्धिमानों की गिनती भी हो जायेगी। वह ठगों को पोशाक सिलने के लिये ढ़ेर सारा धन देता है। ठग राजमहल में ही अपना करघा लगाते हैं और सबसे पहले कपड़ा बनाना शुरू करते हैं। राजा से लेकर मंत्री तक, सभी आते हैं पर उन्हे करघे पर सूत का एक धागा भी नही दिखता है, पर मूर्ख समझे जाने के डर से वे कुछ नही कहते हैं। आखिरकार कपड़ा तैयार हो जाता है और राजा उसे पहनकर निकलता है जो कि असल में रहता ही नही है। राजा पूरी तरह से नंगा होता है पर कोई कुछ नही कहता है। राजा कपड़ा पहन कर अपने राज्य में निकलता है और सभी देखते हैं कि राजा तो नंगा है। पर कोई नही कहता। अंत में एक छोटा बच्चा अपनी माँ से कहता है कि माँ, राजा तो नंगे हैं। उसकी माँ उसे चुर करा देती है।
दामुल से लेकर अपहरण तक का लंबा सफर तय कर चुके प्रकाश झा, काश कि इस बार जमीन की भूख, कहानी के नायक की भाँति अधिक लालच में नही पड़ते तो निश्चय ही राजनीति अपहरण की अगली कड़ी साबित होती, ठीक उसी तरह जैसे अपहरण गंगाजल की अगली कड़ी साबित हुई थी। प्रकाश झा का लालच, कहानी के रूप में महाभारत से शुरू हुआ और स्टारकास्ट के रूप में सारा पर आकर खत्म हुआ। ना जाने क्या सोचकर उन्होने राजनीति जैसे अतिसंवेदनशील विषय पर, अर्जुन रामपाल, रणवीर कपूर, कैटरीना कैफ और सारा जैसे अतिअसंवेदनशील चेहरों को लिया। रणवीर तो कुछ समझ में आते हैं लेकिन बाकियों के तो प्रकाश झा ही मालिक हैं। स्टार कास्ट और टार्गेट आडियेंस के चक्कर में उन्होने, इसको ले लूँ, उसको ले लूँ, उसको क्यों छोड़ू, चलो उसको भी ले लेता हूं....करते करते राजनीति का खाजनीति बना दिया।
वर्तमान में जहाँ राजनीति की टूटी-फूटी कुर्सी, क्षेत्रीय दलों के रूप में प्रतिदिन ठोंके जा रहे असंख्य कीलों की बदौलत टिकी है, प्रकाश झा की राजनीति एक परिवार के दो दलों पर टिकी है जिसमें घात-संघात का ऐसा दौर चलता है कि यकीन ही नही होता कि यह जिस प्रकाश झा को चेहरों के भावों, संवादों और प्रतीकात्मक रूप में हिंसा दिखाने में महारत हासिल है, उसे बार-बार गोली और बम ब्लास्ट का सहारा लेना पड़ रहा है। ऊपर से तुक्का यह कि कहानी महाभारत की एडाप्शन है।
पूरी फिल्म में अच्छे संवादों का जैसे सूखा ही पड़ गया है। नाना पाटेकर की संवाद अदायगी देखने गये दर्शकों को थियेटर से निकलते वक्त साँप सूँघ गया होगा। इससे अच्छा ये होता कि नाना को गूंगा बना दिया होता, कम से कम खलिश तो नही रह जाती। जिस चरित्र के सबसे ज्यादा संवाद थे, उसका रोल ऐसे अभिनेता ने प्ले किया जिसका चेहरा गंगा के उपजाऊ मैदान की भाँति हमेशा प्लेन ही रहता है। प्रकाश झा की जिस अभिनेता के साथ सबसे ज्यादा अंडरस्टैंडिंग है, जिसके साथ उन्होने गंभीर और व्यावसायिक सिनेमा का अंतर पाटा, उसका रोल इतना कम रखा कि पता ही नही चलता कि वह कब आता है और कब चला जाता है। उसकी मौत तो ऐसे दिखाई गयी है जैसे प्रकाश झा को समर ने सुपारी दी है कि उनको मोतिहारी का टिकट दे दिया जायेगा बस उसकी मौत ऐसे जगह पर दिखानी है जहाँ कोई और कैरेक्टर की एंट्री न हो पाये। कैटरीना के बारे में तो कहना ही क्या। भाषणबाजी में तो उन्होने सोनिया गाँधी को भी पीछे छोड़ दिया है और बेचारी सारा तो अमेरिका से भारत प्रेगनेंट होकर मरने के लिये ही आती है।
पूरी फिल्म में कुछ कलात्मक था तो वो था वीरेंद्र प्रताप का चरित्र, और उसको प्ले कर रहे मनोज वाजपेयी, बाकी सब तो विज्ञान था। अब ज्यादा क्या कहूँ, बस इतना ही कि राजनीति वाज ए बाउंसर एंड प्रकाश झा हैज मिस्ड द लाइन...। उप्स सबसे बड़ी बात तो बताना ही भूल गया। राजनीति में नसीरुद्दीन शाह का, उनके पूरे कैरियर में सबसे गंदा प्रयोग किया गया है। सच है बुढ़ापे में लोग सठिया जाते हैं...
सुरेंद्र
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