Friday, July 2, 2021

नारी का नारकीय जीवन: कारण

सभ्यता के आदिकाल से ही नारी को दोयम दर्जे का नागरिक मााना जाता रहा है। नाना प्रकार के विकास के बावजूद आज इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भी उसकी स्थित बहुत ज्यादा नहीं सुधरी है। उसके अधिकार बढ़े हैं, किन्तु उसके प्रति सोच में बदलाव ज्यादा नहीं हुआ है। इतिहास की पुस्तकों में मिलता है कि सभ्यता के शुरुआती दौर में समाज मातृ सत्तात्मक था। स्त्रियों को प्रधान का दर्जा प्राप्त था। इसकी जड़ें खोदने के पश्चात ज्ञात होता है कि उसके पीछे भी नारी के प्रति पुरुष की ताकतप्रधान सोच ही थी। 
बात यदि भारत की करें तो यहाँ स्थिति और भी ज्यादा खराब है। आये दिन यहाँ के हर शहर में बलात्कार, हत्या, शोषण इत्यादि की खबरें देखने, सुनने, पढ़ने को मिल जाती हैं। इसका कारण क्या है? कानून बनने के बाद भी स्त्रियों के प्रति समाज के व्यवहार में परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा है। निर्भया काण्ड के बाद बलात्कार के मामलों में फाँसी तक की सजा का भी प्रावधान कर दिया गया। लेकिन इस तरह की घटनाओं के बाद भी कोई सकारात्मक बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। जो मामले मीडिया या फिर कानून के संज्ञान में आते हैं, बनिस्पत उसके, सामने न आने वाले मामलों  की संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसे मामलों में घरेलू शोषण और हिंसा की शिकार बच्चियों, महिलाओं की हालत बहुत खराब है। ऐसी शिकार महिलायें तो अपना मुँह भी नहीं खोल सकतीं। उन्हे अपनी स्थिति को अपनी नियति मानकर उसे स्वीकार कर लेना पड़ता है। यही स्थिति उनकी सर्वकालिक दुर्दशा की सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। 



जून के अंतिम हफ्ते मे हमारे जिले (महराजगंज) में कोठीभार थानान्तर्गत एक गाँव में किसी लड़की के साथ दुष्कर्म हुआ। अगले दिन पंचायत ने लड़की के साथ दुष्कर्म के मामले को 50000 और आरोपित को 5 चप्पल मारने की सजा के साथ रफा-दफा करने की कोशिश की। परिवार वाले नहीं माने और वह कोठीभार थाना पहुँच गये। पुलिस ने तहरीर बदल दी और दुष्कर्म को छेड़छाड़ में बदल दिया। मामले ने तूल पकड़ और महराजगंज पुलिस अधीक्षक को यह बयान देना पड़ा कि लड़की के साथ छेड़छाड़ किया गया है। मेडिकल जाँच के बाद स्थित साफ होगी। सवाल यह है कि जिस मामले में एस पी को शामिल होना पड़ा। क्या उस मामले की डाक्टरी जाँच पूरी ईमानदारी  से हो पायेगी। यह मामला एक उदाहरण है। पूरे देश में हर मिनट इस प्रकार की घटनायें हो रही हैं। 
हमारा मुद्दा यह है कि, कड़े कानूनों के बावजूद इस तरह की घटनायें क्यों हो रही हैं। 
ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ऐसा इसलिये है क्योंकि स्त्रियों को सभ्यता के आदिकाल से ही भोग की वस्तु माना जाता है। इतिहास से पता चलता है कि पुरुषो ने अनगिनत स्त्रियों के साथ विवाह किया। युद्धादि आपद काल में उन्हे लूट की वस्तु माना। उनका बकायदा बँटवारा किया। ऐसा नहीं है कि यह किसी देश-समाज विशेष की विशेषता रही हो। स्त्रियों पर अत्याचार ने देशकाल की सीमाओं को पार किया है। मध्यकाल में यूरोप में किसी भी स्वतंत्र विचारधारा वाली स्त्री को बड़ी आसानी से चुड़ैल घोषित कर दिया जाता था। ऐसी औरतों को बड़ी ही बेरहमी से मार दिया जाता था। स्त्री को भोग की वस्तु मानने वाली विचारधारा इक्कीसवीं सदी में भी नहीं बदली है। भारतीय समाज में बकायदा शास्त्रों के प्रमाण उपलब्ध हैं जिनमे स्त्रियों को शूद्रो के कोटि का माना जाता रहा है। पहले तो उन्हे शिक्षा ग्रहण करने की आजादी भी नहीं थी। 
स्वतंत्रता पश्चात कानून का शासन लागू होने के बाद स्त्रियों की समाजिक, आर्थिक उन्नति अवश्य हुई है, किन्तु उनके प्रति कलुषित असांस्कृतिक सोच नहीं बदली है। आज भी हमारे समाज का एक बड़ा तबका यह सोचता है कि स्त्री उसकी जागीर है। इसकी बानगी हर मोर्चे पर दिख जाती है। प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के पश्चात प्रशासनिक सेवा के लिये चुनी गयी स्त्री के नीचे काम करने पर पुरूष को शर्म आती है। उसे विभागीय प्रोन्नति पाने के लिये नाकों चने चबाने पड़ते हैं। ज्यादातर सहकर्मी सदैव उसे वासना की दृष्टि से ही देखते हैं। सरकारी विभाग में उच्च पदों पर होने के बावजूद घर में उसे पति और सास-ससुर के नियंत्रण में रहना पड़ता है। आमतौर पर ऐसी स्त्रियों का कामकाज भी उनके पतियों द्वारा नियंत्रित करते देखा गया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजनीति है। जहाँ नाम के लिये चुनकर तो महिलाये जाती हैं लेकिन सारा कार्यभार पति ही उठाता है। 
कहने का तात्पर्य यही है कि समाज में स्त्रियों को पुरूषों से कमजोर माना जाता रहा है। उनके शीरीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक क्षमता को कम करके आँका गया है। उसकी कोमलता को उसकी कमी माना गया है। और यह वही सोच है जो दो कौड़ी के पुरूष को, किसी महिला डाक्टर, इंजीनियर, वकील, लेफ्टीनेंट, जज इत्यादि के ऊपर अत्याचार करने का बढ़ावा देता है। 

Sunday, June 20, 2021

मिल्खा सिंह ने जीतने के लिये प्रेरित किया


1960 में रोम ओलंपिक में 400 मीटर रेस में गोल्ड मेडल जीतने वाले अमेरिका के ओटिस डेविस ने उस दिन का याद ताजा करते हुये कहा कि 
"मिल्खा सिंह वाकई बहुत तेज थे। उनकी तेजी ने ही वो प्रेरणा दी, जिससे मैं रिकार्ड तोड़ सका।"
 
मिल्खा एक महान धावक, बहुत तेज धावक थे। वह फाइनल में थे, और मैं आपको बता रहा हूं, मैं उनके विषय में बहुत चिंतित था।

यह सिर्फ इसलिए नहीं था क्योंकि वह दौड़ में आने वाले पसंदीदा में से एक थे। मैंने उसे एक बार हीट से पहले देखा था जब वह सिर्फ अभ्यास कर रहे थे, और उन्होने दौड़ 47 सेकेण्ड में पूरी की। इसे देखने वाले खेल लेखकों में से एक ने कहा, "लड़का, वह तेज़ है! वह 47 सेकेण्ड में चल रहा है!" मैं वह सब सुन रहा था। लेकिन मैंने खुद से कहा: उसे मुझे हराने के लिए उससे भी तेज दौड़ना होगा!

रोम में हमारी मुलाकात से पहले मैंने कभी उनसे बातचीत नहीं की थी। हमारे दौड़ने से पहले ही वह मेरे पास आया और अपना परिचय दिया। तभी मुझे उसके बारे में थोड़ा बहुत पता चला। वह न केवल अपने पैरों से तेज था, वह बहुत बोलता भी था। मुझे याद है उसने मुझसे कहा था, "तुम जीतने जा रहे हो, लेकिन अगर तुम नहीं जीतोगे, तो मैं जीतने जा रहा हूँ!" वह मुझे मानसिक रूप से निराश करने की कोशिश कर रहा था, मुझे लगता है।

भले ही मैं ओलंपिक से पहले उनसे नहीं मिला था, फिर भी मुझे उनके कारनामों के बारे में पता था। मैं इस तथ्य के बारे में और भी अधिक जागरूक था कि वह निश्चित रूप से पसंदीदा में से एक था। वह पहले कुछ अन्य चैंपियन धावकों के खिलाफ दौड़ चुका था, और उसने अच्छा प्रदर्शन किया था।

हम सेमीफाइनल में एक साथ भागे (जहां मिल्खा डेविस के बाद दूसरे स्थान पर रहे)। यह मेरे खिलाफ उसकी ताकत थी। जाहिर है, वह दौड़ के लिए तैयार था।

और वह दौड़! मुझे याद है वह मेरे बाहर भाग रहा था। और मैंने देखा कि वह तेजी से जा रहा है, तुम्हें पता है, असली तेजी से। वह और (दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम) स्पेंस, जो तीसरे स्थान पर रहे, वास्तव में इसे वक्र के चारों ओर घुमा रहे थे। तभी मैंने अपनी चाल चली। उनके जाने के ठीक बाद मैंने अपना कदम बढ़ाया। लेकिन यह वे थे जिन्होंने गति निर्धारित की थी।

हर कोई हमारे (डेविस और कॉफमैन) के बारे में बोलता है, लेकिन हम उनकी तुलना में दौड़ रहे थे, जबकि वे उड़ रहे थे।

दौड़ के बाद, वह मेरे पास गया और मुझे बधाई दी, हालाँकि मुझे शब्द याद नहीं हैं। बेशक, मुझे पता था कि वह निराश था। मेरे मन में उस आदमी के लिए बहुत सम्मान था। वह हर मायने में एक महान खिलाड़ी थे। और वह बहुत लोकप्रिय भी थे।

मुझे उस ओलंपिक के बाद दोबारा उनसे बात करने का मौका नहीं मिला। मैं जर्मनी के दौरे पर गया और फिर अमेरिका लौट आया।

वह बहुत तेज दौड़ थी। इसने एक विश्व रिकॉर्ड तोड़ा। इसने एक बाधा तोड़ दी। यह ओलंपिक इतिहास की सर्वश्रेष्ठ (400 मीटर) दौड़ थी। मुझे सच में विश्वास है कि यह था। क्योंकि उसके पास इतने तेज धावक थे। क्योंकि इसमें दुनिया के कुछ बेहतरीन थे। मिल्खा की तरह।

जैसा कि रुत्विक मेहता को बताया गया

Saturday, June 19, 2021

जून (ज्येष्ठ) महीने में वर्षा रानी की ज्यादती



जीवन के 36 बसंत देख लिये हैं (यह आफिशियल डेटा है) लेकिन जेठ मास में वर्षा सुन्दरी का ताड़का रूप का दर्शन पहले नहीं देखा था। सही कहा है कवियों ने, ऐसा हमारे पुराणों में भी वर्णन है कि "स्त्री चाहे बना दे, चाहे तो बर्बाद कर दे।" यही हाल वर्षा का भी है, चाहे तो खेतों में सोना पैदा कर दे, चाहे तो उन्हे मटियामेट कर दे। मई महीने में मैने अपनी पत्नी से कई बार कहा कि "यार मई महीने में इस बार बारिश नहीं हुई।" नहीं मालूम था कि मई महीने का सारा उधार, जून महीने में सूद-ब्याज के साथ वसूल हो जायेगा। 
जून महीने के पहले हफ्ते में ताउते और दूसरे हफ्ते में यास नाम के दो तूफानो ने क्रमशः अरब सागर और बंगाल की की खाड़ी में खर और दूषण की तरह ऐसी तबाही मचायी कि चारों ओर पानी ही पानी हो गया। उत्तर भारत में तो किसान धान का बेहन डालने का इंतजार करते ही रह गये। जिन्होने डाल दिया वो पानी उलीचते-उलीचते परेशान हो गये। हमारे गाँव में लोग तो बाल्टी और इंजन के साथ पानी उलीचने में लगे थे। अभी ताउते का पानी खतम नहीं हुआ था कि, यास ने फिर से डुबा दिया। अबकी बार लोगो ने सोचा, जो होगा देखा जायेगा। 
तो कहने का मतलब यह है कि, केरल में सबसे पहले मानसून की दस्तक होती है, ऐसा मैने पढ़ा है, चूँकि भूगोल का विद्यार्थी रहा हूँ, तो ज्यादा अच्छी तरह से पढ़ा है। मानसून को उत्तर भारत में आते-आते लघभग दो हफ्ते का समय लग जाता है और वह जून के अंतिम हफ्ते या फिर जुलाई के पहले हफ्ते में उत्तर भारत में पहुँच जाता है। पर इस साल तो बिना बुलाये मेहमान की तरह वह जून के पहले हफ्ते से ही धमक पड़ा और जाने का नाम ही नहीं ले रहा है। पिछले दो दिनों से तो हवायें तूफान की तरह चल रही हैं। गाँव शहर के अंदर रहने वालों को नहीं पता लेकिन हम लोग तो ठहरे निर्वासित लोग जो, गाँव और शहर दोनों में नहीं गिने जाते। खेतों को बीच में विद्यालय प्रांगण में निवास है, इसलिये हमें मौसम में होने वाली हर एक हल्की से हल्की जुंबिश का अहसास हो जाता है। 
ध्यान से देखा जाये तो, जिसे मौसम विज्ञानी पिछले कई दशकों से देख भी रहें हैं लेकिन दुनिया की सरकारें आँखें बन्द की हुई हैं, कि यह मामला सिर्फ समुद्री तूफान का मैदानी इलाकों में पड़ने वाला प्रभाव मात्र नही है। यह मुद्दा निर्वनीकरण, अंधाधुँध शहरीकरण, प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग का भी है। तूफान पहले भी समुद्रों में आते रहे हैं, लेकिन मैदानी इलाकों में  इस तरह का प्रभाव देखने को नहीं मिलता था। हवाओं के साथ एकाध दिन हल्की फुल्की बारिश हो जाती थी, बस इतना ही, लेकिन इस साल तो अति हो गयी है। बारिश है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। 
तो लब्बोलुआब यह है कि आगे इस तरह की घटनाओ को टालने के लिये मौसम विज्ञानियों की बातों क न सिर्फ सुनना होगा, बल्कि अमल भी करना होगा।

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...