Monday, June 19, 2017

विराट एण्ट कंपनी


अपेक्षायें प्रदर्शन को प्रभावित करती हैं।
अपेक्षाओं का दबाव
एक छोटी सी कहानी जो मैं अक्सर सुनाता हूँ, आपको भी सुनाना चाहता हूँ।
एक छोटे से गाँव में रूई धुनने वाला धुनिया रहता था। गाँव में छोटे-मोटे रजाई गद्दे बनाकर उसका और परिवार का गुजारा नही हो पा रहा था इसलिये वह शहर चला गया। शहर भी कोई ऐसा-वैसा नहीं, मुंबई। एक परिचित के साथ वह घूमने के लिये यूँ ही बन्दरगाह चला गया जहाँ एक गोदाम में उसने पहाड़ जैसे रूई के गट्ठर देखे। जहाँ तक नजर जाती थी बस उसे रूई ही रूई दिखाई देती थी। देखते ही देखते उसे चक्कर आया और वह बेहोश हो गया। गोदाम के अंदर हल्ला मच गया। थोड़ी देर में वहाँ भीड़ जुट गई और देखते ही देखते उसे हास्पिटल पहुँचा दिया गया। डाक्टर को कुछ समझ नहीं आ रहा था क्योंकि उसकी शरीर पूरी तरह से ठीक था और धड़कन सामान्य रूप से चल रही थी। सभी लोग उसके परिचित की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे। डाक्टर ने विस्तार से उससे पूरी बात सुनी और उसे धुनिये की बीमारी के बारे में पता चल गया। वह बाहर गया और थोड़ी देर में कमरे के बाहर शोर मच गया कि रूई के गोदाम में आग लग गई-रूई के गोदाम में आग लग गई....काफी देर तक यह शोर आस-पास गूँजता रहा और सबकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं जब उन्होने देखा कि धुनिया बड़बड़ाते हुये उठा- बहुत अच्छा हुआ कि रूई के गोदाम में आग लग गई वरना सारी रूई मुझे ही धुननी पड़ती...मैं तो मर जाता
ठीक यही स्थित भारतीय क्रिकेट टीम के सामने अक्सर उपस्थित होती रहती है। हर बार वह अपने ऊपर बेजा अपेक्षाओं का इतना अधिक दबाव ले लेती है कि रेशम के कीड़े की भाँति अपने द्वारा ही बनाये गये रेशम में उलझकर दम तोड़ देती है। और बात जब भारत-पाकिस्तान मैच की हो तो यह दबाव युद्ध स्तर का हो जाता है जहाँ शुरुआती पिछड़ाव पूरा युद्ध हरवा देता है।
जब भारत दूसरी इनिंग में बल्लेबाजी करने उतरा तो रोहित शर्मा से लगायत, शिखर धवन, विराट कोहली, युवराज सिंह और महेन्द्र सिंह धोनी शायद यही सोचकर उतरे कि सारा दारोमदार उन्ही के ऊपर है और अगर वह आउट हो गये तो भारत मैच हार जायेगा। और अगर भारत मैच हार जायेगा तो उनकी तो छोड़ो, देशवासियों का दिल टूट जायेगा। एक अरब लोगों को पाकिस्तान से हारने का दुख वर्षों तक सालता रहेगा। अब क्या कहें ऐसे देशवासियों और क्रिकेट प्रेमियों को जिनका दिल, मासूम बच्चियों और औरतों से बर्बर बलात्कार और हत्या से नहीं टूटता। उनका दिल तब नहीं टूटता जब पैसे के अभाव में अस्पताल में कोई गरीब दम तोड़ देता है और उसके परिवार वालों को शव कंधे पर लादकर ले जाना पड़ता है। उनका दिल तब भी नहीं टूटता है जब गुंडे ताकत और धनवान पैसे के दमपर लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं। लेकिन उनका दिल भारत के क्रिकेट मैच हार जाने पर जरूर टूट जाता है और पाकिस्तान से हारने पर तो उनको हार्ट अटैक आ जाता है।
बार-बार ऐसा क्यों हो जाता है क्रिकेट खिलाड़ियों से हम इतनी उम्मीद क्यों लगाकर रखते हैं। क्यों उसी शाम को कदांबी श्रीकान्त और हाकी टीम के जीतने की खबर भारत के हारने की खबर के नीचे दब जाती है। इसकी एकमात्र वजह है क्रिकेट की ब्राडिंग और खिलाड़ियों को सुपर हीरो की तरह पेश करना। भारत में दस साल पहले तक कोई ऐसा खेल नहीं था जिसपर भारतीय गर्व कर सकें। हाकी की प्रतिष्ठा कई दशकों पहले ही मिट्टी में मिल चुकी थी। इसके अलावा कोई और खेल था ही नहीं जिसमें भारतीय चुनौती गंभीरतापूर्वक ली जाती। क्रिकेट में भी ऐसा कुछ था नहीं...वो तो 1983 का वर्ड कप था जिसमें भाग्य के सहारे भारतीय टीम ने दो बार के चैंपियन वेस्टइंडीज को हरा दिया। किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी और कहा तो यहाँ तक गया कि यदि अगले 100 मैच भारतीय टीम वेस्टइंडीज के साथ खेलती तो उसके एक भी मैच जीतने की उम्मीद नहीं थी। भाग्य के सहारे जीत का सिलसिला 2011 में महेन्द्र सिंह धोनी की अगुवाई में टूटता हुआ दिखाई दिया और वर्तमान टीम हर मायने से पुरानी टीम से बेहतर है। वह चैंपियन्स ट्राफी जीतने की दावेदार थी लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई।
जब विश्वास रूपी नाव में भय रूपी छेद हो जाता है तो नाव के डूबने का समय तो नहीं लेकिन परिणाम तभी तय हो जाता है। कल समाचार चैनलों को शायद कोई खबर ही नहीं मिली सिवाय भारत पाकिस्तान क्रिकेट मैच के कवरेज के। महासंग्राम, सदी का मुकाबला, रणभूमि, जीता है जीतेंगे....और भी ना जाने क्या क्या शीर्षकों से समाचार दिखाये जा रहे थे। और जब भारत हार गया तब भी वह भिन्न-भिन्न शीर्षकों से समाचार दिखा रहे होंगे। एक बात तो साफ है...किसी की हार हो किसी की जीत हो, कोई मरे-कोई जिये, कहीं फसल अच्छी हो-कहीं सूखा पड़ जाये, कुछ भी हो, मीडिया की पाँचों उंगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में रहता है।

फिलहाल कोई कुछ भी कहे, भारतीय टीम चैंपियन्स ट्राफी जीत सकती थी, यदि वह हार गई है तो इसकी एकमात्र वजह है....दबाव। 10 विकेट मात्र दस गेंदों पर ही गिरते हैं...और एक गेंद को गेंदबाज के हाथ से निकलने और बल्ले पर पहुँचने में सेंकेन्ड भी नहीं लगता है...उसके बीच में यदि बैट और बाल के अतिरिक्त उसे कुछ भी दिखाई-सुनाई दिया तो आउट होना तय है। भारतीय टीम इसी दस सेकेण्ड में हारी...बाकी तो पूरे टूर्नामेन्ट में वह विजेता की तरह खेली।
दस्तक सुरेन्द्र पटेल
निदेशक माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल
लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स

Monday, June 5, 2017

चाभी और ताला

जीवन का अमूल्य सिद्धान्त

यदि कोई चाभी किसी ताले को नहीं खोल पाती तो इसका अर्थ यह नही कि वह चाभी गलत है, बल्कि इसका अर्थ यह है कि हमने उसे सही ताले में नहीं लगाया। हमारा प्रयास यहीं खत्म नहीं होना चाहिये, बल्कि निरंतर जारी रहना चाहिये, तब तक, जब तक कि वह सही ताले को खोल ना ले। याद रखें कि चाभी की सार्थकता तभी तक है, जब तक कि वह अपने अभीष्ट ताले को खोल ना ले। यदि वह ऐसा नहीं कर पाती  तो वह मात्र एक लोहे का टुकड़ा है जिसका कोई प्रयोजन नहीं।
जरा सोचिये अगर वह चाभी अपने सही ताले में को खोल सके तो क्या पता, उसके पीछे क्या हो? रुपया, पैसा, दौलत, ज्ञान, यश और सम्मान और ना जाने क्या-क्या। चूँकि ताला किसी कीमती वस्तु की हिफाजत के लिये ही लगाया जाता है इसलिये ये निश्चित है कि कुछ ना कुछ कीमती तो मिलेगा ही। अफसोस कि ज्यादातर चाभियाँ बिना अपने अभीष्ट ताले को खोले ही निष्प्रयोजनीय होकर नष्ट हो जाती हैं। यह उस चाभी की बर्बादी है।

यह सिद्धान्त मानव जीवन पर शत-प्रतिशत लागू होता है। जीवन में हम कोई लक्ष्य तय करते हैं और कभी-कभी उसे प्राप्त नहीं कर पाते और निराश होकर बैठ जाते हैं। यह आपके पुरुषार्थ की बर्बादी है। क्या हुआ अगर आपका प्रयास सफल नहीं हुआ। असफलता के कई कारण हो सकते हैं लेकिन थक-हारकर बैठ जाने का कोई कारण नहीं। इसलिये अगर अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त करने में असफलता मिली हो तो हो सकता है कि आप उस लक्ष्य के लिये नहीं बने हों, और आपका लक्ष्य कहीं और इन्तजार कर रहा हो। 

Friday, June 2, 2017

चन्द्रास्वामी


समय एक जैसा नहीं रहता। गुजरते हुये जमाने के साथ इंसान की ताकत और प्रभाव खत्म होता जाता है और एक समय ऐसा आता है जब वह मौत के कगार पर खड़ा अपने जीवन का अंत देखता है और बेबस, लाचार होकर सब कुछ यहीं छोड़कर चला जाता है। अच्छा भी और बुरा भी।
1996 का वो दौर जब पी.वी.नरसिम्हा राव प्रधान मंत्री , चन्द्रास्वामी उनके सलाहकार और मैं कक्षा 8 वी का छात्र हुआ करता था। पढ़ने लिखने का शौक तब था इसलिये पत्रिकायें उस समय भी मँगाकर पढ़ता था। उस समय आजकल के जैसे सनसनी फैलाने वाले न्यूज चैनल्स नहीं हुआ करते थे। खबरों के लिये दूरदर्शन का समाचार, पढ़ने के लिये अखबार और पाक्षिक समाचार पत्रिकायें जैसे माया और इंडिया टुडे हुआ करते थे। उस समय इंडिया टुडे खबरों के लिये विश्वस्त पत्रिका हुआ करती थीऔर उसमें प्रधामंत्री नरसिम्हा राव के बारे में काफी कुछ लिखा जाता था।
ऐसा माना जाता था कि चन्द्रास्वामी नरसिम्हा राव के सलाहकार थे। चन्द्रास्वामी उन्हे कौन सी सलाह देते थे, धार्मिक, राजनैतिक या फिर कूटनीतिक, इसके बारे में वही दोनों बेहतर तरीके से बता सकते हैं लेकिन दुख की बात है कि अब दोनों ही इस दुनिया में नहीं रहे। नरसिम्हा राव के प्रधाममंत्री पद से हटते ही चन्द्रास्वामी पर अनेकों मामले दर्ज हो गये और उन्हे जेल भी जाना पड़ा। यह वह वक्त था जब उनके सितारे गर्दिश में जाने लगे थे और 23 मई 2017 को उनकी मौत के बाद भारतीय राजनीति का एक ऐसा अध्याय बन्द हुआ जिसे आज के समाचार चैनल या फिर राजनीतिक पार्टियाँ खोलने में हिचकिचा रहे हैं।
चन्द्रास्वामी का जन्म राजस्थान के बहरोर में एक छोटे से व्यापारी धर्मचंद जैन के घर पर हुआ था। उनके पिता सूद पर पैसे उठाते थे। उनके जन्म के बाद उनका परिवार हैदराबाद बस गया जहाँ 16 साल की उम्र में उनकी दिलचस्पी तंत्र-मंत्र में होने लगी और उन्होने घर छोड़ दिया। इसके बाद वह जैन धर्मगुरू महोपाध्याय अमरमुनि के संपर्क में आये। 23 साल की उम्र में काशी आये और फिर कुछ समय बिहार में भी रहे।
कुछ लोगों का मानना है कि चन्द्रास्वामी को तंत्र-मंत्र और ज्योतिष की कोई जानकारी नहीं थी और वह दूसरे से प्राप्त सूचना के आधार पर कुण्डली विवेचन करते थे। वे नागार्जुन सागर प्रोजेक्ट में स्क्रैप डीलर का काम करने लगे जहाँ धोखाधड़ी का मामला उजागर होने के बाद उसे छोड़ने के लिये बाध्य हुये।

नरसिम्हा राव से नजदीकी-
वह 1971-73 का दौर था जब चन्द्रास्वामी और नरसिम्हा राव की नजदीकियाँ जगजाहिर हुई। उसके पहले राजनीतिक गलियारों में उनकी पहुँच का रास्ता सिद्धेश्वर प्रसाद से शुरू हुआ जब वो 1962 में लोकसभा सांसद बनकर दिल्ली आये। उनके सर्वेन्ट क्वार्टर में दो लोग रहा करते थे एक चतुर्भुज गौतम और दूसरे चन्द्रास्वामी। बाद में चतुर्भुज गौतम चन्द्रशेखर के निजी सचिव बने। धीरे-धीरे चन्द्रास्वामी कांग्रेसी नेताओं के घरों के चक्कर लगाने और उनकी कुण्डलियाँ बनाने लगें। इस तरह से राजनीति और अंधविश्वास के जोड़-तोड़ के गणित के माहिर बन गये। अपने पीले वस्त्र, रुद्राक्ष की माला, बड़ी दाढ़ी मूछ, लंबे बाल के सम्मिलित प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होने राजनीतिक गलियारें में अपनी अच्छी पकड़ बना ली।
वक्त के साथ सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशी राजनेताओं, शासनाध्यक्षों और हथियार के सौदागरों से चन्द्रास्वामी की बहुत अच्छी जमने लगी। एक वक्त ऐसा था जब उनके संबन्ध ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर, और सउदी अरब के सबसे बड़े हथियारों के व्यापारी अदनान खशोगी तक से थे। बालीवुड का राजनीति, पैसे और पावर से पुराना नाता रहा है इसलिये वहाँ के कुछ चमते सितारे चन्द्रास्वामी के भक्त थे जिनमें राजेश खन्ना और आशा पारेख जैसे नाम शामिल थे।
अदनान खशोगी से सबन्धों की बुनियाद पर ही भारत में हथियारों का सबसे बड़ा घपला बोफोर्स हकीकत में बदल सका, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।

चन्द्रास्वामी ने राम मंदिर निर्माण में भी मध्यस्थता कराई थी और मुलायम सिंह यादव से भी उनके संबन्ध थे। 1982 में मिस इंडिया रही पामेला बोर्डस ने डेली मेल को दिये गये इण्टरव्यू में बताया था कि वह अदनान खशोगी और चन्द्रास्वामी ने अपना हित साधने के लिये उनका इस्तेमाल भी किया था। चन्द्रास्वामी ने पावर, मनी, हथियार और सत्ता का ऐसा काकटेल बनाया जिसमें वो कई साल तक किंग मेकर बने रहे। लेकिन वक्त एक जैसा नहीं रहता 1996 के बाद उनपर ताबड़तोड़ कई मुकदमे दर्ज हुये और उन्हे तिहाड़ जेल जाना पड़ गया। सत्ता से दूर रहने के बाद भी उनके चाहने वाले चारों ओर मौजूद रहे और उन्हे किसी खास किस्म की परेशानी नहीं हुई। अपने मौत के पहले तक वह दिल्ली में अपने आलीशान फार्म हाउस कम आश्रम में रहे और 66 साल की उम्र में उनकी मौत के बाद ही लोग जान सके कि  वह अस्पताल में भर्ती थे और मृत्यु के पहले उनके सारे अंगो ने कार्य करना बंद कर दिया था। 

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...