Tuesday, June 11, 2019

जानवर बनाम इंसान

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-दस्तक सुरेन्द्र पटेल
एक व्हाट्स अप ग्रुप में कल पढ़ने को मिला कि...किताबों में पढ़ते थे कि इंसान पहले जानवर था, आज लगता है कि इंसान आज भी जानवर है। ये उद्गार निश्चित तौर पर समाज में बढ़ते अपराध, इंसानियत के गिरते स्तर और आधी दुनिया को दोयम दर्जे का नागरिक मानने इत्यादि की वजह से अस्तित्व में आये होंगे। यह कहना बिल्कुल सही है, और वाकई हर दूसरे, तीसरे दिन होने वाली दर्दनाक वारदातें इनकी गवाह हैं।

जानवर कौन हैं-
निश्चित तौर पर धरती पर पाये जाने वाले वे जीवधारी जो-
1-साँस लेते हैं।
2-वृद्धि करते हैं।
3-भोजन करते हैं, तथा उस भोजन के उपापचय से प्राप्त उर्जा से उनमें विकास होता है, और वे दैनिक गतिविधियाँ करने में सक्षम होते हैं।
4-प्रजनन करते हैं।
5-गति करते हैं।
6-अपनी सुरक्षा के प्रति सचेत रहते हैं।
उपरोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त वैज्ञानिक शब्दावली में और भी कुछ जोड़ा जा सकता है, चिंतन का विषय यह नहीं है। चिंतन का विषय तो यह है कि मनुष्य कहाँ तक जानवरों के इस विशेषता क्रम में फिट बैठता है।
ध्यान से देखने पर यह पता चलता है कि उपरोक्त सभी गुण मानवों में भी पाये जाते हैें।

मनुष्य कितना जानवर है-
विज्ञान कहता है कि इंसान का विकास जानवरों अर्थात बन्दर से हुआ है। डार्विन के जीवों के विकास का सिद्धान्त स्पष्ट रूप से बताता है कि इंसान के पूर्वज जानवर थे। सवाल यह है कि वर्तमान मनुष्य में अपने पूर्वजों का कितना अंश है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर पता चलता है कि आज के इंसान में जानवरों का अंश जितना पहले था, उतना आज भी है। तो क्या निष्कर्ष निकाला जाय कि इंसान आज भी जानवर है। विचार करने पर हमें पता चलता है कि इंसान का मस्तिष्क ही वह पैमाना है जिसने इंसान और जानवर को अलग किया है। अपने विकास के क्रम में मनुष्य आज जिस जगह खड़ा है वह शान से कहता है कि उसने सृष्टि में सबसे चोटी पर अपना मुकाम बनाया है जहाँ से सभी जीवधारी निकृष्ट नजर आते हैं।

वे गुण जो इंसान को जानवर बनाते हैं-
जानवरों के संदर्भ में वर्णित उपरोक्त विशेषताओं के अतिरिक्त बहुत सारी विशेषतायें हैं जो इंसान को जानवरों के क्रम में खड़ा करती हैं-
1-कानून का भय न होना।
2-गरीब, कमजोर, नाबालिग, दिव्यांग, महिलाओं को हेय दृष्टि से देखना।
3-धनबल, शारीरिक बल, राजनीतिक बल इत्यादि का अहंकार, और उसका इस्तेमाल स्वतुष्टिकरण के लिये करना।
4-पराई संपत्ति, स्त्री, ऐश्वर्य और वैभव को देखकर घृणा की आग में जलना।
5-न्याय के लिये आँख के बदले आँख के सिद्धान्त को मानना।
6-इन्द्रियो को सुख का साधन मानना।
निश्चित तौर पर मनुष्य द्वारा किये गये हर अपराध के पीछे जानवरों के उपरोक्त अवगुण ही जिम्मेदार होंगे। ऐसा मेरा मानना है।

जानवर अपनी प्रकृति कैसे छोड़ेगा-
सृष्टि का एक कण भी अपनी प्रकृति नहीं त्याग सकता है। जिस तत्व से जिसकी रचना हुई है, वह प्रकृति उसके अंदर अवश्यंभावी है। इस तरह से तो इंसान में जानवरों वाले गुण हमेशा से विद्यमान रहे हैं तो क्या वह भी अपनी प्रकृति नहीं त्याग सकता। ठोस रूप से देखा जाय तो हाँ, यदि मनुष्य अपने मूल रूप में ही व्यवहार करता रहे तो वह जानवर वाली प्रकृति त्याग ही नहीं सकता। ऐसे तो पूरी सृष्टि जानवरों से ही भर जायेगी और समाज हिंसक हो जायेगा, चारों ओर त्राहि-त्राहि मच जायेगी। लेकिन ऐसा नहीं है। क्यों?

मनुष्य को यौगिक बनना पड़ेगा-
मनुष्य को पाशविक व्यवहार से ऊपर उठकर मानवोचित व्यवहार करने के लिये अपने अंदर कुछ और गुणो का समावेश करना पड़ेगा। वैज्ञानिक भाषा में कहा जाय तो उसे तत्व से यौगिक बनना पड़ेगा। जानवर तो वह स्वभाव से है ही, इंसान बनने के लिये इंसानी गुणों का समावेश अपने चरित्र में करना पड़ेगा। वह कौन से गुण है जो इंसान को इंसान बनाते हैं, अगले ब्लाग में।
क्रमशः





Friday, June 7, 2019

माया महा ठगनी हम जानी

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दस्तक सुरेन्द्र पटेल

माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले
बोले मधुरे बानी।।



कबीर दास जी लिखते हैं कि माया, यह जो द्रष्ट स्वरूप है, सब एक भुलावा है, छलावा है, मृगमरीचिका है। इसके पीछे भागने वाला न घर का रहता है न घाट का। घर का इसलिये नहीं रहता क्योंकि घरवाले लात मारकर भगा देते हैं। या फिर भांग खाकर बौराये भंगेड़ी की तरह मनुष्य ही घरवालों को लात मारकर भगा देता है। दोनो ही सूरतों में उसके आगे पीछे कोई नहीं रह जाता है। कहावतों में इसे कहा जाता है कि आगे नाथ न पीछे पगाह। 

ठगनी तो यह इस कदर है कि मनुष्य का सारा वैभव, ऐश्वर्य, यश, मान, संपत्ति लेने के बाद भी यह बडे़ ही भोलेपन के साथ कहती है कि भई हमने तो तुम्हारा साथ निभाने की बड़ी ही कोशिश की, तु्म्हारी तरफ से ही कमियाँ रह गई, सो अब हमारा तुम्हारा निबाह होने से रहा। भई अपना रास्ता हमने देख लिया, तुम भी सोध लो, तो भला हो।
इसके डोरे डालने की कहानी भी बड़ी विचित्र है। तरह तरह के प्रलोभन देकर मनुष्य को अपने वश में कर लेती है, मसलन, कभी रूपये पैसे से, कभी शानो शौकत से, कभी रूप से, और कभी-कभी तो राजनीति से भी। कहा जाता है कि राजनेता भारत देश में सबसे पहुँची हुई चीज हैं, उनके आगे देवता भी पानी माँगते हैं। जब इस विरले किस्म के लोग माया के चक्कर मेें फंसकर अपनी लुटिया डुबा लेते हैं तो बात बड़ी ही गंभीर हो जाती है। 


जानने के बाद भी-

लेखक अपने सभी शुभचिंतको, मित्रों और जान पहचान वाले लोगों से एक मार्के वाली बात हमेशा कहता है कि- साँप पालो, बिच्छू पालो कभी कभी तो शेर भी पाल लो, पर भइया भूल के भी कभी खुशफहमी मत पालो। 
खुशफहमी पालने वाला मनुष्य इसी प्रकार माया के चक्कर में फंसता है और अपना राम नाम सत्य करा लेता है। सवाल यह है कि जानने के बाद भी कि माया कभी किसी की नहीं हुई, यहाँ तक कि उसकी भी नहीं जिसने कभी उसका चीर हरण होने से बचाया था तो साधारण से एक बालक की क्योंकर होगी। वह बालक जिसे जन्म से ही माया के बारे में ठसक-ठसक कर बताया गया हो। 


बाप बड़ा ना भाई-जग में हुई हसाँई-

माया के पीछे भागते-भागते कब सबकुछ पीछे छूट गया बेचारे मनुष्य को पता ही नहीं चला। 
किया किनारे चाचा को, पापा दूर हटाय।
कुर्सी खातिर ना जाने कितनों को लतियाय।।
अब हालत यह है कि जहाँ से चले थे लाला, वहीं आकर हो गये खडे, पाँच साल में क्या खोया, पता नहीं, क्या पाया, भूल गया। 
माया का प्रभाव तो बढ़ता ही रहता है। आज यहाँ, कल वहाँ, परसों जहाँ-तहाँ।

Monday, June 3, 2019

राहुल गाँधी और 21वीं सदी का ब्रिटिश काल

दैनिक जागरण में 2 जून को छपी खबर

-दस्तक सुरेन्द्र पटेल
जहाँ आग जलती है, धूँआ वहीं से उठता दिखाई देता है।
राहुल गाँधी का दूसरा नाम पप्पू ऐसे ही नहीं पड़ गया। वो पप्पू जो सा.... कभी डांस नहीं कर सकता। वो पप्पू जो कभी पास नहीं हो सकता। वो पप्पू जो कहता कुछ और है, और मतलब उसका कुछ और निकल जाता है। राहुल गाँधी के वक्तव्य और व्यक्तित्व की यही पहचान है। बात चाहे संसद में आँख मारने की हो, प्रधानमंत्री मोदी को गले लगाना हो, आलू से सोना बनाना हो, राहुल गाँधी कुछ भी कह दें, भारत को हँसने का एक मौका तो मिल ही जाता है।
ताजातरीन उदाहरण उनके एक और वक्तव्य के बारे में हैं जिसमें उन्होने 1 जून को कहा कि भारत में मौजूदा हालात ब्रिटिशकाल जैसे हैं।

राहुल गाँधी की तुलना कांग्रेस बनाम ब्रिटिशकाल-
हाल ही में भारत में सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव हुये और परिणाम कांग्रेस और सहयोगी दलों के खिलाफ गया। क्यों गया बजाय इस पर मंथन करने के कांग्रेस और राहुल गाँधी तरह तरह सवाल उठाते रहे। कभी ई वी एम, तो कभी चुनाव आयोग, कभी जनता को  दोष मढ़ने के बाद राहुल गाँधा ने अब कहा है कि कांग्रेस के समय ब्रिटिश काल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई है। वह ब्रिटिश काल जब उसके सदस्य लेजेस्टिव काउंसिल में बहुत कम हुआ करते थे, और उन्हे सरकार की नीतियों का विरोध करने के लिये काउंसिल में लड़ना पड़ता था।  इसके अलावा उन्होने यह भी कहा कि संसद में उनके 52 सदस्य भाजपा 300 से ज्यादा सदस्यों के लिये काफी हैं। एक एक इंच के लिये कांग्रेस के सदस्य अपनी जान लड़ा देंगे।

क्या वाकई भारत में ब्रिटिश काल जैसी परिस्थितियाँ हैं-
राहुल गाँधी के बयान पर यदि गौर किया जाय तो निम्नलिखित सवाल जेहन में आते हैं-
1-15 अगस्त 1947 में आजादी के बाद भारत में  72 सालों में लगातार सत्रहवीं बार लोकसभा के चुनाव संपन्न हुये हैं जिसमें भारत की जनता को उसके द्वारा चुनी हुई सरकार की प्राप्ति हुई है। ब्रिटिश काल में ऐसा नहीं था। सांवैधानिक सुधारों के बाद भारतीय प्रतिनिधित्व मिलने के बाद भी चुने हुये सदस्यों को यह अधिकार नहीं था कि वे वायसराय के बनाये हुये कानूनों में कोई फेरबदल कर दें। सीधे तौर पर कह सकते हैं कि भारतीय प्रतिनिधित्व हाथी के दाँत की तरह था।
2-अगर राहुल गाँधी के बयान को कुछ देर के लिये मान भी लिया जाय तो ब्रिटिश काल में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुन कर काउंसिल में भेजती थी जो उनका प्रतिनिधित्व करते थे। वर्तमान में वैसी परिस्थितियाँ अगर सामने हैं तो जनता ने कांग्रेस को सिरे से खारिज क्यों कर दिया। यदि कांग्रेज ने भारतीय जनता की नुमाँइदगी की मोनोपाली 1885 से ही ले रखी है ( जो सिर्फ उसे लगता है) तो जवाहर लाल नेहरू के बाद कांग्रेस को हर चुनाव में हाँथ पाँव क्यों मारने पड़ते है। यह कहानी राजीव गाँधी तक तो किसी तरह चली लेकिन आज कांग्रेस की क्या हालत है, पूरी दुनिया जानती है। कांग्रेस यह समझने के लिये क्यों तैयार नहीं।
3-यदि ब्रिटिश काल जैसी परिस्थितियाँ वाकई सामने होती तो जनता सरकार के खिलाफ बगावत क्यों नहीं कर रही है। सरकार कैसी भी हो, पाँच साल में उसे अपना हिसाब देना ही पड़ता है, लेकिन इस बार तो सारे रिकार्ड टूट गये। जब जवाहर लाल नेहरू के बाद पहली बार किसी पार्टी ने अपने दम पर दूबारा सत्ता में वापसी की है।
4-यदि ब्रिटिश काल जैसी परिस्थितियाँ सामने है, तो तथाकथित महागंठबंधन में कांग्रेस को साथ क्यों नहीं लिया गया। सभी को एक साथ  मिलकर ब्रिटिशकाल से लोहा लेने के लिये तैयार हो जाना चाहिये था।
राहुल गाँधी को चुनाव प्रचार के दौरान अपने एक बयान की वजह से सुप्रीम कोर्ट में लिखित रूप से माफी भी माँगनी पड़ी थी। अगर वो ऐसा नहीं करते तो शायद उन्हे जेल की हवा भी खानी पड़ सकती थी।

खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे-
हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। जिस प्रकार शुतुरमुर्ग शिकारी को देखकर अपनी गर्दन रेत में डाल लेता है। यह समझते हुये कि शिकारी उसे नहीं देख रहा है। कांग्रेस और राहुल गाँधी का बर्ताव ठीक उसी प्रकार है। ई वी एम-ई वी एम चिल्लाने पर चुनाव आयोग सख्त हुआ तो अपनी झुंझलाहट उतारने के लिये राहुल गाँधी नया पैंतरा आजमा रहे हैं। ठीक यही हालत 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुई थी जब कांग्रेस अपनी हार की वजहों को ढू़ढने के बजाय सारा दोष दूसरों पर मढ़ने पर आमादा थी। इस बार भी नतीजा वही है, और राहुल गाँधी का रवैया भी।

संसद में लड़ने के बजाय जनता के बीच जायें-
राहुल गाँधी अगले चुनाव में अगर कांग्रसे का अस्तित्व खत्म होने से बचाना चाहते हैं, तो उन्हे संसद में हल्ला गुल्ला मचाने के बजाय जनता के बीच में जाना चाहिये। बुनियादी काम करने चाहिये। लोगों को यह संदेश देना चाहिये कि वह महज मनोरंजन की वस्तु नहीं बल्कि भारत की चिंताओं को समझने वाले राजनेता है। सरकार की गलत नीतियों का विरोध संसद में नहीं बल्कि आम जनता के बीच में करना चाहिये।

छुट्टियाँ कैसिल करके काम पर लग जायें-
जहाँ तक संभावना है, राहुल गाँधी छुट्टियाँ मनाने के लिये विदेश जरूर जायेंगे। लेकिन उन्हे ऐसा नहीं करना चाहिये। छुट्टियाँ तो और भी मन जायेंगी, लेकिन ये पाँच साल अगर फिर भाजपा को कोसने में लगा दिया तो कांग्रेस का क्या होगा, कल्पना से परे होगा।
सबसे दुखद भारत के लिये होगा, क्योंकि लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सबसे बड़ी है। काश राहुल गाँधी ऐसा कर सकते।


Saturday, June 1, 2019

मोदी 2.0



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दस्तक सुरेन्द्र पटेल/
सत्रहवीं लोकसभा के परिणाम के पश्चात हर अखबार, टी.वी. चैनल, फेसबुक, ट्विटर इत्यादि जनसंचार माध्यमों पर एक चीज जो सामान्यतः देखी जा रही है वह मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल। मजे की बात है कि हमेशा से लकीर का फकीर रहा भारतीय मीडिया इसे मोदी 2.0 बता रहा है। मीडिया जो बता रहा है भारतीय जनता वही देख रही है, सुन रही है और समझ रही है।

मोदी 2.0 क्यों?
जहाँ तक मुझे याद है कि 2.0 दक्षिण भारत के निर्देशक शंकर द्वारा निर्देशित की गई फिल्म रोबोट का सीक्वल थी। जिस फिल्म ने भारतीय सिनेमाई इतिहास में साँइंस फिक्शन फिल्मो, जिनका निर्माण न के बराबर होता है, को कई कदम आगे ले जाकर खड़ा कर दिया। शंकर की इस फिल्म का टाइटिल भी आई. टी. फील्ड से जुड़ा हुआ है जहाँ साफ्टवेयर के अपडेटड वर्जन को प्वाइंट समथिंग के अनुसार बताया जाता है। उदाहरण के लिये कोई कंपनी जब किसी साफ्टवेयर का निर्माण करती है तो उसे बीटा वर्जिन कहती है। मार्केट के इनपुट मिलने के बाद उसका कंज्यूमर वर्जन बनाया जाता है और समय दर समय उसके अपडेटेड वर्जन सामने आते है। जिसको वह 2.0, 2.0.1, 2.1.1, 2.1.2 इत्यादि नाम दिया करती है। 
इस हिसाब से देखा जाय तो शंकर की सीक्वल फिल्म का नाम 2.0 किसी हद तक तो सही था। क्योंकि उसका हीरो एक रोबोट है, और सीक्वल फील्म में वह और भी ज्यादा अपडेटेड होकर सामने आता है, इसको 2.0 कहा जा सकता है। 
सवाल यह है कि मोदी 2.0 कहाँ तक उचित है।
1-क्या मोदी को एक रोबोट की तरह पेश किया जा रहा है।
2-क्या दूसरे कार्यकाल में मोदी के शारीरिक, मानसिक स्वरूप में कुछ अपडेट हुये हैं।
3-क्या मोदी के सामने भारत को विनाश से बचाने का एक ही मौका जिसमें उनके चूकने के बाद भारत की बर्बादी तय है।
4-क्या मोदी किसी साइंटिस्ट द्वारा निर्मित किये गये एक उत्पाद हैं।
5-क्या मोदी ही एकमात्र विकल्प हैं जो भारत की हर समस्याओं का समाधान है।
6-क्या भारत सिर्फ एक व्यक्ति के नाम का मोहताज हो गया है।

क्या इसे मीडिया पर सिनेमा काे प्रभाव के तौर पर देखा जाना चाहिये-
इसके पहले भी देखा जा चुका है कि अलग-अलग विषयों, अवसरों और घटनाओं पर मीडिया सिनेमा का इस्तेमाल प्रतीकों के रूप में किया करता है। परिणाम आने से पहले जब एक्जिट पोल के नतीजे दिखाये जा रहे थे तो उस समय पूरा मीडिया बाहुबली और सिंघममय हो गया था। सारे चैनलों पर बाहुबली और सिंघम के म्यूजिक ट्रैक, एनिमेशन की बाढ़ आ गई थी। चुनाव के पहले भी मीडिया प्रतीकों के रूप में अलग-अलग सिनेमाई चरित्रों को पेश कर चुका है। जहाँ तक सवाल इन्हे इस्तेमाल करने का है, इसका प्रयोग सिर्फ उत्सुकता बढ़ाने के लिये किया जाता है। और अगर ऐसा है तो यह बिल्कुल गलत है क्योंकि खबर में उत्सुकता का तत्व मौजूद नहीं है और आप उसमें उत्सुकता का तड़का एनिमेशन, म्यूजिक, प्रतीको का बेवजह प्रयोग करके बढ़ाते हैं तो निश्चित तौर पर आप भटक रहे हैं। दुख की बात है कि हर चैनल, मीडिया हाउस भटकाव की राह पर है। एक-एक खबर और फुटेज कई-कई बार चलाना इसकी बानगी भर है।

अंत में-
मोदी 2.0 संज्ञा देने के पीछे मीडिया की सोच, समझ और मंतव्य क्या है, यह तो वही लोग बता सकते हैं। लेकिन सिनेमा का उद्देश्य मनोरंजन मात्र करना है और राजनीति, सुरक्षा, समाज, जनता मनोरंजन की विषय वस्तु नहीं है। मीडिया को चाहिये की वह बने बनाये भोेजन को खाने के लिये ना लपके, बल्कि खुद अपना भोजन बनाये। सिनेमाई प्रतीकों का इस्तेमाल कहीं न कहीं वास्तविक चरित्र को उन चरित्रों के आगे छोटा बना देता है। मोदी 2.0 सामने आने पर कहीं न कहीं शंकर की 2.0 की याद हो ही जाती है, जो निश्चित तौर पर मोदी के सामने कुछ भी नहीं है। 

मतदान स्थल और एक हेडमास्टर कहानी   जैसा कि आम धारणा है, वस्तुतः जो धारणा बनवायी गयी है।   चुनाव में प्रतिभागिता सुनिश्चित कराने एवं लो...