Sunday, August 21, 2011

आज के शैक्षिक परिवेश में नैतिक शिक्षा की जरूरत

 पिछले एक दशक से भारत की आम जनता के रहन सहन में आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता के साथ एक बेलगाम गति आयी है जिसके रौ में अमीर तो अमीर, गरीब भी तेजी के साथ बहे जा रहे हैं। मुद्दा चाहे ज्यादा पैसा कमाने का हो या फिर समाज में पुरानी परंपराओं के विरोध में खड़े होने या व्यवहार करने का हो, सभी नवोन्मेषी होना चाहते हैं। इक्कीसवीं सदी में मीडिया के झोपड़ी में पहुँचने का सिलसिला टेलीकाम क्रांति के साथ उस पायदान पर जा पहुँचा जहाँ पर भारत की साठ करोड़ जनता के पास मोबाइल है। तेजी से बदलते इस परिवेश में आज का भारतीय बिना सोचे समझे अफीम रुपी विकास के पिनक में मस्त समस्त वर्जनाओं के तोड़ते हुये नई सदी का ग्लोबल नागरिक बनने के लिये तैयार है जिसके आँख में कमाई की चमक और चलने को बाकी लंबा रास्ता है। लेकिन इन सब परिवर्तनों के बीच में क्या हमने कभी सोचा है कि
-आज कल के बच्चों पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है।
-उनके व्यवहार में किस तरह के सूक्ष्म लेकिन लागातार परिवर्तन आ रहे हैं।
-अपने साथी बच्चों के साथ उनका व्यवहार किस तरीके से बदल रहा है।
-तेजी के साथ बदल रहीं घटनाओं और विकास के पहिये के साथ उनका सामंजस्य कैसा है।
-वे क्यों आजकल अलग-थलग पड़े रहते हैं
इन सबके बारें में अगर हम विचार करें तो हम पायेंगे कि बहुत सारे बदलाव ऐसे भी हो रहे हैं जिनके बारे में हम अनजान है।

क्लासरूम में बच्चों का व्यवहार बड़ी तेजी के साथ बदल रहा है। घर में टीवी और बाहर मोबाइल के साथ समय बिताने वाले बच्चों के बालमन पर बिना किसी रोक-टोक के दिखाये जाने वाले आपत्तिजनक कार्यक्रमों एवं कुकुरमुत्तों की तरह हर गली-नुक्कड़ पर खुल गये मोबाइल गुमतियों में धड़ा-धड़ किये जा रहे डाउनलोड्स मटेरियल्स का कितना गहरा असर पड़ रहा है यह हमे आने वाला वक्त अचानक आने वाले तूफान की तरह बतायेगा। बच्चे इन सब चीजों को प्रयोग करते हुये मानसिक विकास की उस अधकचरी अवस्था पर पहुँच गये हैं जहाँ से उन्हे यह पता है कि हमारा सीनियर भी इस हमाम में नहाने वाला एक नंगा ही है। समाजिक व्यवहार मे बरती जाने वाली संयम की पतली रेखा ही वह दीवार है जो लोगों को एकदूसरे का अतिक्रमण करने से रोकती है और वर्तमान में सर्वसुलभ तकनीक के द्वारा उपलब्ध खतरनाक कंटेन्ट बाढ़ के पानी की तरह उसे रौंदकर ना जाने कहाँ पहुँच गये हैं। यही कारण है कि वे किसी को सम्मान देने में अपने ज्ञान और विकास में अवरोध मान लेते हैं।
क्लासरूम में अनुशासन का वातावरण बनाने के लिये अध्यापकों को लोहे के चने चबाने पड़ रहे हैं और सजा देना ही एकमात्र उपाय नजर आ रहा है। कुछेक विद्यार्थियों के सेल्फएनलाइटमेंट को छोड़ दे तो बाकी अध्यापकों को सम्मान देना अपनी इज्जत के विरुद्ध मानते हैं। सुबह अभिवादन ना करके वे अपने आपको ऊँचा समझते हैं और संभवतः दोस्तों में स्वयं की बड़ाई भी करते हों।

ऐसे परिवेश में बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से बचाने का कोई रास्ता नजर नही आता सिवाय ऐसे आत्मविश्वासी शिक्षकों के जो खुद नैतिकता के ठोस धरातल पर खड़े रहकर विद्यार्थियों के स्वाभाविक गुणों को विकसित कर उन्हे भविष्य का जिमेदार नागरिक बना सकें।


दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

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