Saturday, December 30, 2017

कोहरा

हम सभी देवरिया जाते हुये

कल शाम को अमित, गोलू और विजय के साथ मुझे अचानक देविरया जाना पड़ा। महराजगंज से देवरिया की सबसे कम दूरी भी लघभग 80 किमी होगी। हमने जल्दी पहुँचने के लिये महराजगंज टू देवरिया वाया परतावल-कप्तानगंज-हाटा का रास्ता चुना। हम लोग दोपहर 1.30 बजे के बाद निकले। निकलने से पहले मैं श्रवण पटेल जी के कार्यालय पर थोड़ी देर रूका था। वहाँ ठंडक, कोहरा और एक्सीडेंट के बारे में बात होने लगी। दिसंबर के आखिरी हफ्ते में कोहरे का प्रकोप वैसे भी कुछ ज्यादा है। सब लोगों ने अपने हिसाब से कमेंट किये। मुझे अंदाजा था कि कोहरा वाकई में बड़ी समस्या हो सकता है। वैसे भी जाड़े के आगमन के साथ  व्हाट्स अप पर तमाम ऐसी वीडियोज देखने को मिली थीं जिसमें कोहरे की वजह से हाइवेज पर एक्सीडेंट्स दिल दहला देने वाली श्रृंखला मौजूद थी। फिलहाल मैं वहाँ से निकला और 1.15 बजे अमित के घर के सामने पहुँचा। वह अभी अपने क्लीनिक से नहीं आया था सो मैं वहीं गाड़ी में इंतजार करने लगा। थोड़ी देर बाद वह आया और हम 1.30 बजे वहाँ से निकले। रास्ते में शिकारपुर हमें गोलू और विजय को भी लेना था।

इतने खराब मौसम में दोपहर बाद निकलने की वजह-
दोपहर बाद निकलने के वक्त ही यह पता था कि वापसी में 6-7 तो बज ही जायेंगे यानि कि वापसी का पूरा सफर घने कोहरे के बीच में तय करना था। यह अपने आप में काफी चैलेंजिग था क्योंकि कोहरे की चादर इस वक्त इतनी घनी हो रही थी कि पैदल चलने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था। उससे पहले विजय ने कुछ दिन पहले शोहरतगढ़ से रात में वापसी की अपनी कहानी भी सुनाई थी जिसमें उसे गाड़ी चलाने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। अमित ने पहले ही हथियार डाल दिये थे कि वह कोहरे में गाड़ी नहीं चला पायेगा। शायद उसे पहले के अनुभव डरा रहे थे, या वह कुछ ज्यादा सतर्क था, यह वही बता सकता था। खैर इन सारी बातों के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात क्या थी जिसने हम चारों को देवरिया जाने के लिये विवश कर दिया था।
वह वजह थी कि पछले कई दिनों से गोलू सेकेण्ड हैंड बोलेरो खरीदने की जिद कर रहा था। बोलेरो खरीदने की उसकी चाहत सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह थी जो रूक-रूककर महीने दो महीने में जाग उठती थी। लेकिन कुछ दिनों से उसकी यह चाहत लावा, राख और धूल के साथ भूकंप भी ला रही थी जिसकी वजह से मुझे उसकी चाहत पूरा करने के मैदान में अपने दोस्त के साथ उतरना पड़ा। कई गाड़ियाँ देखने और गोरखपुर में दो दिन पहले एक अच्छी गाड़ी हाथ से निकल जाने की टीस गोलू के मन में माइग्रेन की तरह बार बार परेशान कर रही थी। इस चक्कर में उसने एक दिन खाना भी नहीं खाया मानो अपनी प्रेयसी से ना मिलने का दर्द किसी प्रेमी द्वारा अपनी भूख पर उतारा जा रहा हो।
इसी चक्कर में मैने कल सुबह से लगातार तीन घण्टे ओलेक्स पर बिताकर सैकड़ो बोलेरो गाड़ियाँ देखी और उसकी पसंद की एक बोलेरो जो देवरिया में थी उसे खरीदने की योजना बनाई गई। आनन फानन में रूपयों की व्यवस्था की गई और मैने अमित को कहा कि वह भी देवरिया चले। ऐसा करने के पीछे की वजह थी कि उसकी देवरिया में रिश्तेदारी थी और वक्त आने पर वह काम आ सकता था।

यात्रा की शुरूआत-
गाड़ी मैं ड्राइव कर रहा था क्योंकि मैं विजय जो हम सबमें सबसे अच्छा ड्राइवर था (जो पेशे से एक ड्राइवर ही है) उसे अपनी ड्राइविंग दिखाना चाहता था। मैं सबसे नया चलाने वाला था और सबसे कम अनुभव रखता था। खैर बिना किसी दिक्कत में मैंने गाड़ी हाटा तक चलाई और उसके बाद विजय ने स्टेयरिंग सँभाल ली। 3.30 बजे के आसपास हम देवरिया पहुँचे। जिस आदमी के पास गाड़ी थी उसका घर शहर के बाहर था। जाकर पता चला कि वो सेकेण्ड हैंड गाड़ियों का बिजनेस करता था और उसके बगल में उसके भाई  का भी आफिस था। जिस गाड़ी को हम देखने गये थे वह दिखने में ही बेकार लग रही थी। खैर दूसरे डीलर के पास जाने पर भी कोई खास फायदा नहीं हुआ। उसके पास कई बोलेरो गाड़िया थीं लेकिन कोई डील हो नहीं पायी। निकलने की तैयारी करते-करते 6 बज गये। और फाइनली कुछ खा पीकर निकलने के वक्त 6.30 बज रहे थे।

असली चैलेंज-
कोहरा अपना रंग दिखा रहा था लेकिन शहर में लाइट और चारों तरफ गाड़ियों की आवाजाही में उसकी भयानकता का अंदाजा नहीं हो रहा था। वापसी में विजय ही गाड़ी चला रहा था जिसे सबसे ज्यादा अनुभव था। जैसे ही हम शहर से बाहर आये उसकी सारी काबिलियत दाँव पर लग गई क्योंकि कोहर इतना घना था कि आगे दो मीटर भी नहीं दिखाई दे रहा था। गाड़ी की स्पीड 20 के आसपास थी और विजय उल्लू की तरह विंड स्क्रीन पर नजरें गड़ाये ड्राइविंग कर रहा था। पीछे बैठे मुझे और अमित को तो कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था।
घने कोहरे में ड्राविंग-रियल चैलेंज (एक खतरा)
इससे पहले मैंने कोहरे में गाड़ी चलाने का अनुभव आज के लघभग 15 साल पहले लिया था जब मैं और मेरा दोस्त सेराज खुटहाँ से जनवरी की रात साढ़े नौ बजे वापस आ रहे थे और कोहरा बादल की तरह सड़क पर लहरा रहा था। उस वक्त मैंने सेराज के कहने पर बाइक की हेडलाइट आफ करके उसे बहुत धीरे चलाया था और इस तरह हमने लघभग 10 किमी की दूर तय की थी। लेकिन कल का कोहर उससे भी घना था। एक तो सड़क अनजान थी, दूसरे वह बहुत पतली थी, तीसरे बन्द गाड़ी में सड़क का अंदाजा बिलकुल भी नहीं लग रहा था।
हाटा की तरफ से देवरिया की तरफ आने वाली कई गाड़ियाँ मिलीं लेकिन देवरिया से हाटा की तरफ जाने वाली कोई गाड़ी दिखने का नाम नहीं ले रही थी। ऐसा लग रहा था कि उस समय सिर्फ हम ही लोग हाटा की ओर जा रहे थे। उस समय डर जैसी कोई बात दिमाग में नही थी लेकिन कहीं कोई अनहोनी ना घट जाये इसका अंदेशा दिमाग में न बरसने वालों बादलों की तरह रह-रहकर घुमड़ रहा था। काफी देर बाद अकेले चलते हुये एक इंडिगो गाड़ीं दिखाई दी जो इतनी धीरे चल रही थी कि वह अगर उसी रफ्तार से चलती तो हाटा पहुँचने में उसे चार घण्टे लग जाते। खैर विजय ने गाड़ी उसके आगे की और वह हमारी गाड़ी के पीछे आने की कोशिश करने लगा। विजय अपने पूरे अनुभव से गाड़ी चला रहा था इसलिये वह थोड़ी तेज चलाते हुये इंडिगो को काफी पीछे छोड़कर आगे निकल गया। खैर हाटा पहुँचने के कुछ किमी दूर एक निसान गाड़ी तेजी से आयी और हम उसके पीचे लग गये। शायद वह लोकल ड्राइवर था जो सड़क से परिचित था। उसके पीछे-पीछे हम हाटा तक आये और वहाँ पर अमित, गोलू और विजय ने अँडा खाया। उस समय लघभग आठ बज रहे थे। यानि कि हमें हाटा तक पहुँचने में 1.30 घण्टे से ज्यादा का समय लग गया था। ओस का घनत्व और भी ज्यादा बढ रहा था और अभी तीन चौथाई रास्ता बाकी था।

असली कठिनाई अभी बाकी थी-
जब गाड़ी हाटा से बाहर निकली तो कोहरा चादर की तरह गाडी के सामने लहरा रहा था जैसे हमसे कहने की कोशिश कर रहा हो कि जहाँ हो वहीं रूक जाओ,वरना कोई दुर्घटना हो सकती है। कई बार विजय सड़क का अनुमान लगाये बिन दूसरी तरफ बिलकुल किनारे चला जा रहा था। आगे बैठा गोलू उसे कभी-कभार बता रहा था कि वह सड़क के कितना किनारे है क्योंकि लाल रंग के साइड लाइट जलने से सड़क के किनारे का थोड़ा आभास हो रहा था। लेकिन गोलू ने अपनी तरफ का शीशा चढ़ा रखा था और इस वजह से उसे सड़क ठीक से नहीं दिखाई दे रही थी। विजय की परेशान थोड़ी कम करने के लिये मैंने कुछ सोचा और मैंने पिछले दरवाजे की शीशा नीचे कर दिया और सिर बाहर निकाल कर सड़क का किनारा देखने लगा। ऐसा करने से मुझे किनारा तो दिखने लगा लेकिन तेज हवा और कोहरे की वजह से चेहरे पर बहुत ज्यादा ठंडक लग रही थी। मैने इससे बचने के लिये अपने मुँह पर रुमाल बाँधा, और जैकेट के सिर वाले हिस्से को सिर पर टाइट लगाकर बाँध लिया। मैं इसके बाद सिर निकालकर विजय को सड़क के किनारे के बारे में बताने लगा। यहाँ तक कि सड़क की सूचनाओं वाले साइन बोर्ड भी जिसपर घुमाव के बारे में जानकारी के साथ और साइन बने हुये होते हैं। इस तरह मैं विजय के लिये को पायलट की भूमिका निभाने लगा और विजय थोड़ी राहत के साथ गाड़ी चलाने लगा।
मुसीबतों का अन्त यही नहीं हुआ पता नहीं किस वजह से विजय को गाड़ी चलाने मे दिक्कत होने लगी और उसके सिर में तेज दर्द होने लगा। आगे बैठा गोलू बार-बार उसे चेतावनी दे रहा था कि अगर उसे कोई परेशानी है तो बताये, वह खुद गाडी चला देगा। लेकिन मुझे पता था रात में गाड़ी चलाना उसके बश की बात नहीं थी क्योंकि वह पहले ही बता चुका था कि रात में उसे ठीक से दिखाई नहीं देता है। अमित पहले ही हाथ खडे कर चुका था। यह सही था कि विजय को गाड़ी चलाने में परेशानी हो रही थी और अंत में उसने हथियार डाल भी दिये। कप्तानगंज अभी आधी दूरी पर था और हमारा ड्राइवर आगे गाड़ी चलाने में समर्थ नहीं। गाड़ी वहीं रोक दी गई और विजय ड्राइविंग सीट से हट गया।

क्रमशः...........................

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