Saturday, August 19, 2017

इस्तीफा (कहानी)

इस्तीफा
1.
सेन्ट मेरी स्कूल के प्रांगण में आज विषाद की एक अस्वाभाविक सी दरार दिखाई दे रही थी जिसके गहराई का दर्द बच्चों के साथ-साथ परिचारकों के चेहरे पर साफ-साफ महसूस किया जा सकता था। एक अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था  हर एक क्लासरूम में जो कहीं से भी स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता था। विद्यालय प्रशासन को ऐसा पिन ड्राप साइलेंस वाला माहौल तैयार करने में नाकों चने चबाने पड़ जाते, लेकिन आज बिना किसी आदेश अथवा प्रार्थना के पहली बार समुद्र में तूफान से पहले की शान्ति देखने को मिल रही थी। अचानक ही इस माहौल में खलल डाला विद्यालय के प्रबंधक मिस्टर फ्रांसिस की रुकती हुई कार ने,जिसके ब्रेक की आवाज पूरे वातावरण में एक चीख की भाँति गूँज उठी। हमेशा की तरह ही मिस्टर फ्रांसिस तेजी से अपने कार से उतरे और लंबे-लंबे डग भरते हुये फ्रंट कारीडोर में प्रवेश कर गये। सरसरी निगाह से हर एक क्लासरूम का निरीक्षण करते हुये  शीघ्र ही अपने आफिस में पहुँचकर वे कुर्सी पर बैठने से पहले आदतानुसार चपरासी को घण्टी दबाकर बुलाना नहीं भूले। बैठने से पहले ही चपरासी हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया।
-विद्यालय में इतना सन्नाटा क्यों हैं राधेश्याम।
मिस्टर फ्रांसिस ने अपना कोट उतारा और  राधेश्याम ने उसे लपककर हैंगर पर टाँगते हुये धीरे से जवाब दिया।
-विवेक सर आज जाने वाले हैं ना...।
-हाँ आज उनका विद्यालय में अंतिम दिन है, लेकिन इस सन्नाटे से उनके जाने का क्या संबंध।
मिस्टर फ्रांसिस ने  इस घटना को  कोई तवज्जो नहीं दिया लेकिन चेहरे पर अचानक ही आ गई उलझन की रेखा को वे जाने-अनजाने छुपा नही सके। राधेश्याम  ने एक बार उनके चेहरे की ओर देखा और मिस्टर फ्रांसिस ने अपना चेहरा एक फाइल में छुपा लिया। राधेश्याम बाहर निकलने के लिये धीरे से मुड़ा और जाने से पहले अचानक ही कुछ याद आ जाने की वजह से फिर से मिस्टर फ्रांसिस की ओर मुखातिब हुआ।
-काफी लाऊँ सर।
फाइल में मुँह गड़ाये हुये मिस्टर फ्रांसिस ने धीरे से अपना चेहरा उठाया और राधेश्याम की ओर देखते हुये तंद्रा से जागते हुये बोले।
-अँ...हाँ...।
राधेश्याम जाने के लिये मुड़ा पर अचानक ही मिस्टर फ्रांसिस ने फिर से कहा ।
-रहने दो राधेश्याम, आज काफी पीने का मन नही हैं।
राधेश्याम चला गया और मिस्टर फ्रांसिस उस कमरे में अकेले रह गये, ठीक उसी तरह से जब कुछ सालों पूर्व एक साथ कई अध्यापकों के जाने के बाद रह गये थे। पूरे विद्यालय में कोई ऐसा अध्यापक नहीं था जिसे जिम्मेदारी दी जा सके। पूरे विद्यालय में अस्त-व्यस्तता का माहौल बन गया था जिसका फायदा उठाने के लिये कई लोग ताक में बैठे थे। यहाँ तक कि विद्यालय के बाहर अफवाहों का बाजार भी गर्म हो गया  था। अचानक ही मिस्टर फ्रांसिस की नजर खिड़की के बाहर फूलों की काँट छाँट कर रहे माली पर गई जो बड़ी ही तन्मयता से अपना कार्य कर रहा था। उसकी बड़ी सी कैंची चल रही थी और पौधे की टहनियाँ, पत्ते धीरे-धीरे जमीन पर गिरते जा रहे थे। मिस्टर फ्रांसिस की नजरें गिरी हुई टहनियों पर जाकर टिक गईं जिनकी जरुरत अब उस पौधे को नहीं रह गई थी, या शायद माली को...या फिर मिस्टर फ्रांसिस को।
2.
मिस्टर फ्रांसिस अपने कार्यालय में गहन विचार की मुद्रा में बैठे विद्यालय की वर्तमान परिस्थिति पर विचार कर रहे थे। कुछ दिनों पूर्व विद्यालय के पांच अध्यापक बिना कोई कारण बताये इस्तीफा देकर जा चुके थे और विद्यालय में अध्यापकों की जबरदस्त कमी महसूस हो रही थी। कक्षाएं खाली जा रही थीं और अब तो अभिभावकों की शिकायतें भी आ रही थीं। वैसे तो सेन्ट मेरी कस्बे का एक बहुत ही अच्छा विद्यालय माना जाता था जिसकी गुणवत्ता की धाक पूरे जनपद में थी। मिस्टर फ्रांसिस ने अपनी मेहनत के दम पर सेन्ट मेरी विद्यालय को इस मुकाम तक पहुंचाया था जिसमें प्रवेश दिलाने के बाद अभिभावक निश्चिंत हो जाया करते थे। लेकिन आज उसी सेन्ट मेरी की हालत तूफान में फँसी नाव की भाँति हो गई थी। विचारों के इन्ही भँवर में डूब उतरा रहे मिस्टर फ्रांसिस को बाहर निकाला दरवाजे पर अचानक ही प्रकट हो गये एक छब्बीस-सत्ताइस साल के नवयुवक ने जो अंदर आने की इजाजत माँग रहा था। मिस्टर फ्रांसिस ने उसे अंदर बुलाया और उसका परिचय पूछा।
-सर मेरा नाम विवेक त्रिपाठी है।
युवक ने बैठते हुये कहा। मिस्टर फ्रांसिस ने ध्यान से उसे देखा। साँवले रंग के विवेक को एक बार देखने से कोई विशेष बात नजर नहीं आती थी। हाँ इतना तो जरूर था कि उसका कद 6 फुट से थोड़ा ही कम था और सेहत के मामले में भी वह सामान्य से कुछ ज्यादा ही नजर आता था।
-सर मुझे पता चला है कि आपके विद्यालय में अध्यापकों के लिए रिक्तियाँ हैं।
-जी हैं तो...पर आपको कैसे पता चला।
मिस्टर फ्रांसिस ने उत्सुकता मिश्रित आश्चर्य से पूछा।
-संजय जी ने बताया।
संजय श्रीवास्तव उस अध्यापक का नाम था जिसने विद्यालय में शिक्षकों को भड़काने का मुख्य काम किया था। मिस्टर फ्रांसिस के चेहरे पर शिकन की रेखाएं उभरीं। विवेक ने उनके चेहरे के बदलते हुये भाव को गौर से देखा और सफाई देते हुये कहा।
-मेरा संजय जी से कोई विशेष संबंध नही है, बस इतना ही कि मैं उन्हे जानता हूँ। मिस्टर फ्रांसिस सुनकर थोड़े से सामान्य हुये।
-आपकी क्वालिफिकेशन क्या है।
-हिस्ट्री से एम ए किया है। ग्रेजुएशन में हिस्ट्री के साथ अंग्रेजी भी थी।
कहकर विवेक ने अपने बैग से प्रमाणपत्रों की फाइल निकालकर मिस्टर फ्रांसिस को पकड़ा दी। मिस्टर फ्रांसिस ने फाइलों पर एक नजर डालकर तुरंत ही अगला सवाल दाग दिया।
-बी.एड. नहीं किया आपने।
-कभी जरूरत महसूस नही हुई। जिस क्षेत्र में जाना चाहता था उसमें बी.एड. की कोई अहमियत नहीं थी।
-किस क्षेत्र में जाना चाहते थे।
मिस्टर फ्रांसिस ने आँखें सिकोड़ते हुये पूछा।
-मेरा सपना हमेशा से  ही सिविल सर्विस में जाने का था। लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। दो साल दिल्ली में रहने के बाद आज आपके सामने प्रस्तुत हुआ हूँ।
विवेक के चेहरे पर अचानक ही उदासी के बादल मँडराने लगे और वह मिस्टर फ्रांसिस की आँखों में देखते हुये बोला।
-सर मुझे इस नौकरी की बहुत ज्यादा जरुरत है। एक्सपीरियेंस के मामले में भी मैं आपको निराश नहीं करूंगा, दो साल तक एक विद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया है और ट्यूशन का तो बहुत लंबा अनुभव है। 
एक बार तो मिस्टर फ्रांसिस ने विवेक की बातों का कोई जवाब नहीं दिया। शायद वह विवेक की जरुरत को उसकी आँखों की गहराई से मापने की कोशिश कर रहे थे। मिस्टर फ्रांसिस जैसे लोग कभी भी किसी के सामने अपनी आवश्यकता का पिटारा खोलकर उसे अपने ऊपर हावी होने का मौका नहीं देना चाहते हैं संभवतः इसीलिये मिस्टर फ्रांसिस ने विवेक की धड़कन को अपनी चुप्पी से बढाना उचित समझा। विवेक के चेहरे पर ना जाने कितने भाव आकर चले गये और मिस्टर फ्रांसिस ने उनको जाया नहीं जाने दिया।
-तो मेरी न्युक्ति के बारे में क्या विचार है सर।
-अँ..हाँ..हाँ...आपकी न्युक्ति...आप अपना नंबर छोड़ दीजिये। फोन करके बता दिया जायेगा।
अपने ही विचारों में खो जाने की मिस्टर फ्रांसिस की ये बहुत पुरानी आदत थी। यह आदत थी या फिर एक तरह का तरीका जिसमें सामने वाला अपने आपको महत्वहीन महसूस करता था, कह नहीं सकते थे। विवेक उठा और मिस्टर फ्रांसिस को धन्यवाद करके बाहर निकल गया। मिस्टर फ्रांसिस ने उसके बाहर जाते ही उसकी शिक्षण प्रमाणपत्रों वाली फाइल उठा ली, और ध्यानपूर्वक देखने लगे। विवेक हाईस्कूल से लेकर एम ए तक प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। इसके अतिरिक्त उसके पास ना जाने कितने प्रकार के अन्य गतिविधियों से संबंधित प्रमाण पत्र थे जो उसकी काबिलियत को दर्शाते थे। फाइल रखकर मिस्टर फ्रांसिस कुछ सोचने लगे।
3.
विवेक लाइब्रेरी में बैठा कोई फाइल देख रहा था कि अचानक एक छोटा सा लड़का दौड़ता हुआ आया। विवेक ने उसकी ओर देखा।
-सर, आशुतोष का सर फट गया है। शालिनी ने अपने स्केल से उसके सिर पर मार दिया है।
विवेक ने फाइल जल्दी से मेज पर रखा और खड़ा हो गया। विवेक को सेन्ट मेरी में आये हुये छह महीने से ज्यादा का वक्त बीत गया था लेकिन एक दिन भी ऐसा नहीं बीता था जब किसी विद्यार्थी को कोई समस्या नही हुई हो और उसके समाधान के लिये विवेक को याद ना किया गया हो। विवेक स्वभाव से बहुत ही दयालु था जो किसी की सहायता करने के लिये हमेशा उद्यत रहता था। वहीं दूसरे अध्यापक बच्चों की समस्याओं को छोटा जानकर उसे अपने स्तर का नहीं मानते थे और उनको विवेक के पास भेज दिया करते थे।  इसका प्रतिफल यह हुआ कि धीरे-धीरे विवेक बच्चों के बीच में एक अलग स्थान बनाता गया और दूसरे अध्यापकों के मन में उसके प्रति ईर्ष्या की भावना घर करती गई। विवेक दौड़ता हुआ कक्षा तीन में पहुँचा जहाँ पर दो तीन बच्चे आशुतोष को ले आने का प्रयास कर रहे थे। कक्षाध्यापक, जिनका नाम राजीव गुप्ता था पास में ही खड़े होकर ऐसा दिखाने का प्रयास कर रहे थे कि देखने वाले को यह बिल्कुल ना अहसास हो कि वह इन सबमें नहीं पड़ना चाहते हैं। लेकिन उनके द्वारा किये जाने वाले सारे प्रयासों का केन्द्रबिन्दु अपने कपड़ों को गंदा होने से बचाना था। विवेक आशुतोष के पास पहुँचा और उसे अपने हाथों में उठाकर नीचे लाइब्रेरी में ले आया। तबतक चपरासी और दाई भी वहाँ आ चुके थे।  विवेक ने उसके घाव को साफ किया और मलहम लगाकर तत्कालिक रूप में एक पट्टी बाँध दी। दाई आशुतोष के सिर के ऊपर हवा करने लगी। इतना सब कुछ हो जाने के बाद कुछ अध्यापक और आये जिन्होने आशुतोष के बारे में बात करनी शुरु कर दी।
-अरे सर जाने दीजिये बहुत शरारती लड़का है।
-दिन भर धामचौकड़ी मचाता रहता है।
-क्या कर रहे थे जी, कक्षा में दौड़ रहे थे क्या।
अचानक एक साथ हुये इतने सवालों का जवाब देना आशुतोष के लिये मुश्किल था, इसलिये उसने बस इतना कहा कि शालिनी ने उसे मार दिया था। अध्यापकों को उसकी बात पर यकीन ही नही हुआ। उधर विवेक ने मिस्टर फ्रांसिस को फोन लगाया। थोड़ी देर में उधर से आवाज आयी।
-गुड मार्निंग सर।
-सर यहाँ पर एक लड़के के सिर में चोट लग गई है। डाक्टर के पास ले जाना पड़ेगा।
-चोट...चोट कैसे लगी। अध्यापक क्या कर रहे थे।
-सर एक लड़की ने उसे स्टील के स्केल से मार दिया था।
-वहीं तो मैं कह रहा हूँ कि उस कक्षा में अध्यापक आखिर कर क्या रहे थे। मैंने कितनी बार कहा है कि पढ़ाते समय ध्यान पूरी क्लास पर होना चाहिये। अध्यापक वही है जो एक-एक बच्चे की हरकतों पर नजर रखता है। पर यहाँ तो अध्यापक ऐसे पढ़ाते हैं कि कक्षा में बच्चे मारपीट कर रहे हैं और उन्हे नजर ही नही आता।
मिस्टर फ्रांसिस थोड़े से शब्दों में अपनी बात ना कह पाने की समस्या से काफी लंबे समय से परेशान थे, लेकिन वह परेशानी अब विवेक के चेहरे से झलक रही थी।
-सर ये बातें बाद में हो जायेंगी, पहले इस बच्चे का कुछ किया जाये। डाक्टर को दिखाना बहुत जरूरी है। फिलहाल तो मैने पट्टी बाँध दी है लेकिन यह काफी नही है। एक छोटे से बच्चे के लिहाज से चोट ज्यादा है।
-मैं यहाँ से गाड़ी भेजता हूँ। आप साथ चले जाइयेगा।
-मेरी क्लास है सर...। चन्द्रमोहन सर फिलहाल खाली हैं। उन्हे भेज दिया जाय।
-वो नहीं हैंडिल कर पायेंगे आप ही चले जाइये। मैं गाड़ी भेजता हूँ।
उधर से फोन कट गया। विवेक ने एक बार  फोन को देखा और फिर उसे अपनी जेब में रख लिया। हर बार यही होता था। कहीं किसी बच्चे को कुछ होता था तो डाक्टर को दिखाने के लिये विवेक को ही जाना पड़ता था। भले ही उसकी क्लास छूट जाये या फिर उसका कोर्स  अधूरा रह जाये या फिर कापियाँ ना चेक हो पायें। इसके अलावा और भी ना जाने कितने काम थे जिन्हे बिना किसी के कहे विवेक अपना कर्तव्य जानकर कर दिया करता था। कोई कार्यक्रम कराना हो, कोई अन्य क्रिया कलाप कराना हो, कोई प्रतियोगिता करानी हो, या फिर कोई फंक्शन कराना हो, विवेक उसे अपनी जिम्मेदारी समझकर कर दिया करता था। इतने समय में विवेक ने स्वतंत्रता दिवस, शिक्षक दिवस बाल दिवस इत्यादि के अतिरिक्त कक्षा दस के विदाई समारोह का आयोजन करवाया था। इन सारे कार्यक्रमों के लिये उसने किसी भी अध्यापक की कोई मदद नही ली। सारा काम उसने विद्यार्थियों से मिलकर करवाया। यही वजह थी कि अध्यापकों के मन में उसके प्रति  ईर्ष्या की भावना और भी बढती गई।  इस संबंध में मिस्टर फ्रांसिस ने भी कई बार उसे टोक दिया था कि किसी भी कार्यक्रम के आयोजन में अन्य अध्यापकों की मदद भी ले ली जाये। इसके पीछे मिस्टर फ्रांसिस का यह तर्क था कि विद्यालय को किसी एक अध्यापक के ऊपर निर्भर नही होना चाहिये। उनकी बातों पर ध्यान देकर ही विवेक ने हमेशा कार्यक्रम के पूर्व अध्यापकों को उसके बारे में बताना प्रारंभ किया लेकिन सहायता लेने के संदर्भ में उसने कभी किसी को मुँह खोलकर नही कहा। इसके पीछे उसका तर्क था कि जिसे मदद करनी होगी वह स्वयं ही आगे आ जायेगा। इतने देर में जीप विद्यालय में आ गई और चपरासी की मदद से विवेक ने आशुतोष को उसमें चढ़ाया और खुद भी बैठ गया।
4.
शाम के साढ़े सात बज रहे थे। मिस्टर फ्रांसिस अपने कमरे में  बैठे कुछ काम कर रहे थे कि अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई और उन्होने आने वाले को अंदर आने के लिये कहा। दरवाजा खोलकर विवेक अंदर आया।
-गुड इवनिंग सर।
-गुड इवनिंग...बैठिये।
विवेक एक कुर्सी खींच कर बैठ गया और मिस्टर फ्रांसिस भी अपना ध्यान अपने काम से हटाकर विवेक की ओर देखने लगे। विवेक ने इधर-उधर देखते हुये  बात शुरू की।
-सर जैसा कि आप जानते हैं कि सेन्ट मेरी के अतिरिक्त फिलहाल तो मेरा कोई करियर नही है। इसीलिये मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कोशिश करता हूँ, विद्यालय की भलाई के लिये, विद्यार्थियों की भलाई के लिये।
-हूँ...।
मिस्टर फ्रांसिस ने बिना प्रभावित होते हुये कहा। विवेक ने बात जारी रखी।
-मेरे परिवार के बारे में तो आप जानते ही हैं, सारा दारोमदार मेरे ऊपर है।
विवेक अपनी हथेलियों को आपस में हल्के फुल्के ढंग से रगड़ने लगा। मनोविज्ञान के पंडित मिस्टर फ्रांसिस को समझते देर नहीं लगी कि विवेक कोई आशा लेकर यहाँ उपस्थित हुआ है। उन्होने अपने आपको तैयार कर लिया कि उसकी माँग का क्या जवाब देना है।
-आपने न्युक्ति के समय मुझसे यह कहा था कि जल्दी ही काम के अनुसार आपकी तनख्वाह बढ़ा दी जायेगी। मेरा काम तो आप देख ही चुके हैं। पूरे साल मैने अपने पारिश्रमिक के लिये कुछ नहीं कहा क्योंकि मुझे पता है कि आपने कहा है तो जरूर कुछ करेंगे। अभी मैं यह विनती करने के लिये उपस्थित हुआ हूँ कि पारिश्रमिक वृद्धि के संदर्भ में मेरे पिछले साल किये गये कार्यों को जरूर ध्यान में रखा जाय और थोड़ी कृपा करके इतनी वृद्धि अवश्य कर दी जाये कि मेरा काम सुचारु रूप से चल सके। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि अगला साल मेरे कार्यों के संदर्भ में और भी ज्यादा याद किया जायेगा।
-मुझे आपके कार्यों के बारे में पता है सर, पर शायद आपको नहीं पता कि यहाँ पर हर साल अध्यापकों के पारिश्रमिक में वृद्धि होती है और वह वृद्धि मामूली नही बल्कि अच्छी खासी होती है।
-ठीक है सर। मैं तो बस आपके ही सहारे ही हूँ। अच्छा तो मैं चलूँ।
-ठीक है...।
विवेक निकलने के लिये मुड़ा पर अचानक ही मिस्टर फ्रांसिस को कुछ याद आया और उन्होने विवेक को वापस बुलाया।
-विवेक जी...एक डिजाइन करवाना था।  हाँलाकि मैने कभी विद्यालय का प्रचार नहीं करवाया पर इस साल कई लोगो ने इसके लिये टोका। उनका कहना है कि प्रचार के लिये ना सही, स्कूल के बारे में बताने के लिये ही कस्बे में कुछ बोर्ड लगवा दें।
-सही है सर...सभी विद्यालय के बोर्ड लगते हैं, बस सेन्ट मेरी ही उनके बीच में गायब रहता है।
-इसीलिये मैने सोचा कि इस बार कुछ बोर्ड लगवा दिये जायें।
मिस्टर फ्रांसिस ने अपनी फाइल से एक कागज निकाला और विवेक को दे दिया।
-इसमें डिटेल्स हैं। देख लीजियेगा। डिजाइन बढ़िया होना चाहिये।
 विवेक की कंप्यूटर और डिजाइनिंग की जानकारी की वजह से मिस्टर फ्रांसिस अक्सर उसे इस प्रकार के कार्य दे दिया करते थे जिसे कराने में उन्हे मार्केट में जाना पड़ता और काम भी उस तरह से नही हो पाता जिस प्रकार से विवेक कर दिया करता था। इस तरह के ना जाने कितने कार्य विवेक ने विद्यालय और मिस्टर फ्रांसिस के लिये किये थे। अपनी लगन और कर्तव्यनिष्ठा के बदले में विवेक पारिश्रमिक में थोड़ी सी वृद्धि चाहता था तो उसे कहीं से भी गलत नहीं कहा जा सकता था।
5.
विवेक बाजार में खड़ा सब्जी खरीद रहा था जब उसके पास सेन्ट मेरी विद्यालय के ही एक अन्य अध्यापक शैलेष कुमार का फोन आया। नंबर देखने के बाद उसने फोन उठाया।
-हाँ शैलेष कैसे हो...।
-ठीक हूँ  सर जी। आप कैसे हैं। मेरी भी इन्क्रीमेन्ट हुई है।
-कितनी।
विवेक ने उत्सुकतापूर्वक पूछा, क्योंकि उसे पता था कि सारे अध्यापकों के वेतन में एक हजार रुपये की वृद्धि हुई है, सिवाय उसके। मिस्टर फ्रांसिस ने उसके अनुरोध को स्वीकार करते हुये उसके वेतन में डेढ़ हजार रुपये की वृद्धि की थी। हाँलाकि ये वृद्धि विवेक के आशानुरुप नही थी लेकिन उसने यह सोचकर संतोष कर लिया कि बाकी अध्यापकों की तुलना में उसकी वृद्धि ज्यादा ही थी। इसीलिये जब शैलेष ने खुश होकर अपने इंक्रीमेन्ट के बारे में बताया तो उसकी उत्सुकता बढ़ गई। शैलेष ने जब जवाब दिया तो विवेक के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई। एक बार तो उसे विश्वास ही नही हुआ कि मिस्टर फ्रांसिस ने वाकई उसके साथ ऐसा किया है। शैलेष के वेतन में भी डेढ़ हजार की इंक्रीमेन्ट की गई थी।  विवेक की आँखों के सामने पिछला साल किसी पहिये की भाँति अचानक ही घूम गया। उसे अपनी मेहनत, अपनी लगन और विद्यार्थियों के चहुँमुखी विकास के लिये किये जाने वाले प्रयास याद आने लगे, जो उसने बिना किसी के कहे ही किये थे। स्वतंत्रता दिवस पर झण्डा बाँधने के सवाल पर सारे अध्यापकों का मुँह छिपाना रहा हो या फिर वार्षिक पुरस्कारों के आयोजन की पूर्व संध्या पर रात के बारह बजे विद्यालय कैंपस में में साउण्ड और लाइट की व्यवस्था कराना रहा हो, एक-एक करके सभी विवेक के सामने आने लगे, जैसे कल ही की बात हो। उसे दुख इस बात का नहीं था कि शैलेष की तनख्वाह डेढ़ हजार बढी है, उसे दुख इस बात का था कि शैलेष की तनख्वाह उसके बराबर ही बढी है जबकि कार्य के मामले में शैलेष उसके सामने कहीं नही टिकता। विवेक ने निश्चय किया कि इस बारे में वह मिस्टर फ्रांसिस से बात जरुर करेगा कि आखिर किस वजह से शैलेष की तनख्वाह उसके जितनी बढ़ी है।
किसी तरह से सब्जी वगैरह खरीद कर विवेक वापस घर आया लेकिन रास्ते भर वह इस सोच से छुटकारा नहीं पा सका। घर पहँचते ही उसने तुरंत ही मिस्टर फ्रांसिस को फोन लगाया। काल कनेक्ट होते ही उधर से आवाज आयी।
-गुड इवनिंग सर।
-गुड इवनिंग सर। आपसे एक बात कहनी थी।
विवेक ने थोड़े दबे स्वर में कहा।
-हाँ-हाँ कहिये।
-सर मेरी बात को एक शिकायत के तौर पर मत लीजियेगा और इसे अन्यथा भी मत लीजियेगा। जैसा कि आप जानते हैं कि स्वभाव से ही मैं प्रतिक्रियावादी रहा हूँ। ऐसे किसी मसले पर, जिससे में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित होता हूँ, बिना प्रतिक्रिया दिये नहीं रह सकता।
-कोई बात नहीं, आप बेहिचक कहिये।
-सर मैने सुना है कि शैलेष सर का वेतन भी मेरे जितना ही बढ़ा है।
-ठीक सुना है आपने।
-उसी सिलसिले में बात करनी थी। सर मैने पिछले साल ना जाने कितने कार्य किये बेहिसाब समय भी दिया ताकि विद्यालय और विद्यार्थी दोनों का भला हो सके। फिर ऐसा क्यों हुआ कि शैलेष के द्वारा किये गये कार्यों को मेरी श्रेणी में रख दिया गया। जबकि असलियत तो यह है कि शैलेष ने मेरे चौथाई भी काम नहीं किया है।
-सर वेतन में वृद्धि तो सबकी एक हजार ही होनी थी लेकिन आपके कार्यों को देखते हुये आपके वेतन में कुछ ज्यादा वृद्धि करने की योजना पूर्व में ही थी। जहाँ तक शैलेष के वेतन वृद्धि की बात है तो वह भी मेरे द्वारा दिये गये सारे कार्यों को निष्ठापूर्वक कर लेते हैं। इसलिये मैने सोचा कि उनके वेतन में भी कुछ ज्यादा वृद्धि हो जाये।
-सर..शैलेष आपके द्वारा दिये जाने वाले कार्यें को ठीक तरीके से पूरा कर लेते हैं लेकिन मेरा क्या, मैं तो वह काम भी निष्ठापूर्वक करता हूँ जो आप नहीं कहते। सबसे पहले विद्यालय में आता हूँ और सबसे बाद में जाता हूँ। विद्यार्थियों में विकास की नई-नई संभावनायें तलाश करता रहता हूँ और उसके लिये प्रयास भी करता हूँ। क्या शैलेष मेरे जितना कार्य करते हैं।
-सर कार्य करना अच्छी बात है लेकिन यह कहना कि आप ही सबसे ज्यादा कार्य करते हैं, अच्छी बात नही हैं। शेलेष की वृद्धि इसलिये भी की गई है कि बाकी अध्यापकों को यह संदेश जा सके कि वह भी इस तरीके की इंक्रीमेन्ट के हकदार हो सकते हैं, बशर्ते उन्हे मेहनत करनी होगी।
-आपने दूसरे अध्यापकों को प्रेरणा देने की बात तो सोची लेकिन मेरी प्रेरणा का क्या होगा, शैलेष के वेतन में अपने बराबर की वृद्धि देखकर मेरे मन पर क्या बीत रही होगी।
-देखिये सर ऐसा नहीं है कि वृद्धि सिर्फ आपकी ही होती। अगर दूसरे अध्यापक अपनी कार्यशैली सुधार लें तो अगले साल उनकी भी इतनी ही वृद्धि हो जायेगी। कार्य कौन ज्यादा कर रहा हौ और कौन कम, वृद्धि इसके आधार पर नहीं होती। एक क्राइटेरिया बना दिया गया है जिसके हिसाब से काम करने वाले की इंक्रीमेन्ट तय है।
-उन लोगों का क्या जिनका कार्य उस क्राइटेरिया में सिमट ही नहीं पाता।
-सर आप समझ नहीं पा रहे हैं, आप सबसे ज्यादा कार्य करते हैं इसमें कोई शक नही, लेकिन सिर्फ आपकी तनख्वाह सबसे ज्यादा बढ़ा दी जाये...अध्यापकों में गलत संदेश जायेगा। मुझपर पक्षपात का आरोप भी लग सकता है।
-लेकिन काम ...
-सर काम तो सभी करते हैं। कोई ज्यादा तो कोई थोड़ा कम। अब इस हिसाब से तनख्वाह बँटनी शुरु हो जाये तो ना जाने कितनी श्रेणियाँ बन जायेंगी। विद्यालय है, कोई कारखाना नही। मैं सारे अध्यापकों को समान मानता हूँ और नहीं चाहता कि कहीँ से भी मेरे ऊपर पार्शियलिटी का आरोप लगे।
विवेक उसी विद्यालय में दक्षिण भारत के अध्यापकों के वेतन के बारे में सोचने लगा जो स्थानीय अध्यापकों के मुकाबले कहीं ज्यादा थी। अब विवेक को लगने लगा कि ज्यादा बात करने से कुछ नहीं होगा, सिर्फ अपनी जुबान ही खाली होगी। आगे उसने सिर्फ इतना ही कहा-
-ठीक है सर आप जो कह रहे हैं ठीक ही होगा। लेकिन मुझे हमेशा इस बात का अफसोस होगा कि मेरी मेहनत को नजरअंदाज कर दिया गया।
कहकर उसने फोन काट दिया और अपने भविष्य के बारे में सोचने लगा। सेन्ट मेरी में एक और दिन भी रहना उसके लिये असह्य हो रहा था। विवेक के लिये सबसे बुरी बात यह थी कि उसने वेतन बढ़ाने के लिये मिस्टर फ्रांसिस से गुजारिश की थी जो एक तरह से बेकार ही गई।  विद्यालय और विद्यार्थियों से विवेक को एक विशेष प्रकार का लगाव हो गया था जिसे एक झटके में त्यागना उसके लये मुश्किल था इसीलिये इस्तीफा देने के बारे में उसने पूरी रात सोचा।
मिस्टर फ्रांसिस की नजर अभी भी जमीन पर गिरी हुई टहनियों और फूल पत्तों पर थी जिसमें उन्हे विवेक की छवि नजर आ रही थी। कमरे के वातावरण में उन्हे घुटन सी महसूस होने लगी और वे बाहर निकल आये। सामने से विवेक आता दिखाई दिया। उसने पास आकर मिस्टर फ्रांसिस को विश किया और जाने की इजाजत माँगी।
-तो आखिर आप जा ही रहे हैं।
-किसी ने रोका भी तो नहीं सर इसलिये लगता है कि मेरी जरूरत नही हैं विद्यालय को, वरना मुझे इस तरह नहीं जाने दिया जाता।
-जाने का निर्णय आपका था विवेक जी, इसमें कोई क्या कर सकता है।
-कुछ नहीं सर...। वैसे भी विद्यालय का भविष्य अब उज्ज्वल है।
-सेन्ट मेरी विद्यालय का भविष्य हमेशा ही उज्ज्वल रहा है विवेक जी। इसकी नींव इतनी मजबूत है कि किसी के आने या जाने का कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन आप बताइये, क्या करने का इरादा है अब।
-किसी और के लिये काम ना करना, फिलहाल तो यही इरादा है। बाकी भगवान की मर्जी देखते हैं क्या होता है।
कहकर विवेक मिस्टर फ्रांसिस को नमस्कार करके गेट से बाहर निकल गया।


सुरेन्द्र पटेल, 02 सितंबर, 2012

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