बिल्ली के भाग से
छींका टूटा, बिल्ली ने समझा कि उसकी मेहनत रंग लाई, पर उसे पता नहीं था कि वह
कितना भी उछल कूद मचा ले, छींके की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकती थी।
कर्नाटक के विधानसभा
चुनाव नतीजों के बाद हुई बयानबाजी भी कुछ इसी तरह की है। जिस भाजपा सरकार के
मुख्यमंत्री येदुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोंपों की वजह से अपनी कुर्सी से हाथ
धोना पड़ा हो, इसके साथ ही साथ उन्हे भाजपा से निष्काषित कर दिया गया हो या फिर वे
खुद ही निकल गये हों, भाजपा के प्रदर्शन पर इसका प्रभाव नजर आना ही था। भाजपा से निकलने के बाद जिस तरीके से येदुरप्पा
की आँखों में आँसू झलके थे, कर्नाटक में भाजपा
के भविष्य का निर्धारण उसी दिन हो गया था।

हमारी राजनीतिक व्यवस्था की यह सबसे बड़ी कमी है कि हम व्यक्ति के प्रभाव क्षेत्र से कभी निकल ही नहीं पाये। किसी भी राजनीतिक पार्टी पर नजर डालकर देखें, वह पूरी तरह से एक आदमी के ही इर्द गिर्द घूमती है। क्या पार्टी का प्रदर्शन सिर्फ उसके अध्यक्ष या फिर प्रचारक की वजह से तय होता है, शायद नहीं लेकिन पार्टी का भविष्य और दिशा निर्देश पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रित होता है। कर्नाटक में भाजपा के बुरे प्रदर्शन की यह सबसे बड़ी वजह हो सकती है कि येदुरप्पा के निकलने के बाद भाजपा को उनका कोई विकल्प नही मिला।
हमारे महराजगंज
विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी होते थे सुदामा प्रसाद, जो ना जाने
कितने सालों से कांग्रेस के टिकट पर विधायक का चुनाव लड़ रहे थे, पर जीत तो दूर,
जीत की खुशबू तक नसीब नहीं होती थी उन्हे। इस बार गलती से सपा के उम्मीदवार पर
उंगली उठी, पार्टी ने उन्हे टिकट नहीं दिया। इधर कांग्रेस भी अपनी लागातार होती
फजीहत से तंग आकर नया दाँव खेलने का मन बनाया और सुदामा प्रसाद को टिकट न देकर
उनके कट्टर प्रतिद्वंदी, युवा नेता आलोक प्रसाद को टिकट दिया। चुनाव के नतीजे और
सुदामा प्रसाद के भविष्य का निपटारा उशी दिन हो गया, सुदामा प्रसाद की न जाने
कितने दशकों के बाद किस्मत खुली और वे विधायक बन गये। सोचने वाली बात थी कि, क्या
सुदामा प्रसाद अपनी वजह से चुनाव जीते थे, नही, बिल्ली के भाग से छींका टूटा था,
और मलाई उसके हिस्से में आ गई। शायद यही वजह है कि हर बिल्ली का दिन कभी न कभी आता
जरूर है।
दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।
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