Friday, April 6, 2012

वर्षासुन्दरी के प्रथम आगमन की महिमा


कल सीजन की पहली बारिश हुई, और वाकई कमाल की हुई। आँधी, तूफान, ओले, बिजली और ना जाने किस-किस के साथ हुई। किसी को खुशी दे गई तो किसी को गम। किसी की छत उड़ी तो किसी की कटरैन। घर के सामने खड़े बाँस के झुरमुटो की हालत तो ऐसी हो गई थी मानो वे वर्षासुन्दरी की खूबसूरती और उसके क्रोध मिश्रित तिरछी नजर से हड़बड़ाकर सजदे की हालत में आ गये हों। आम के पेड़ पर लगे बौर उसकी चपलता के आगे शरमाकर खुद ही डालियों से लदफदाकर गिर गये जैसे, आम ने भी उससे हार मान ली हो और बगल में लगे गुलाब की हालत तो उस माली की भाँति हो गई थी जिसने राजकुमारी के आगमन से पहले ही उसके रास्ते में फुलवारी के सारे फूल ही बिछा दिये हों। जिस प्रकार राजा के आगमन के समय प्रजा में उल्लास का रोमाँच हिलोरे मारने लगता है और छोटे बड़े में कोई भेद नही रह जाता उसी प्रकार रास्ते में पड़ी धूल भी उल्लसित होकर वर्षासुन्दरी के साथ चलने वाली सहचरी, हवा के प्रयास से ऊपर उठकर अपनी प्रसन्नता का प्रदर्शन कर रही थी।
उसके पथ का प्रदर्शन कर रही तड़ित मालिकाओं के प्रकाश से सारा वातावरण उसी प्रकार आलोकमय हो जाता था जैसे अंधेरी रात में सूरज की किरणों ने समस्त संसार में उजाला फैला दिया हो। कोयल की मीठी आवाज
उसके पायलों की मीठी झनकार के आगे बेसुरी प्रतीत हो रही थी और वातावरण में बसंत के आगमन के बाद व्याप्त हरियाली उसकी आँखों के काजल के सामने बेरंग लग रहे थे। सारे पशु-पक्षी वर्षासुन्दरी के आगमन से प्रफुल्लित थे और इंसान, अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति की वजह से खुश भी था और दुखी भी।

दिल से निकलगी, ना मरकर भी, वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी....।

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