म्योरपुर, सोनभद्र,
उन ग्रामीणों की जिंदगी में दर्द निवारक गोलियों के सिवा कुछ नही हैं। दर्द से बेहाल लोग पेनकिलर के सहारे ही जीते हैं। जिले के चार ब्लाकों में फ्लोराइड के कहर से दो हजार से ज्यादा लोग विकलांग हो चुके हैं। पेनकिलर दवाओं, डेक्लो प्लस, बूफ्रेन डेकोपिन निमुस्लाइड के नाम बच्चों बूढों की जुबान पर हैं। फ्लोराइड की वजह से फ्लोरोसिस के शिकार ग्रामीणों की हड़्डियों में ताकत नही बची है। सरकार के आधे अधूरे प्रयासों से लोगों की जिंदगी नरक बन गयी है। दर्द निवारक गोलियाँ सौगात में दूसरी जानलेवा बिमारियाँ दे रही हैं।
यह दर्दनाक किस्सा, जिले के म्योरपुर ब्लाक के कुसुम्हा, रास पहरी, जरहा, चेटवा, मनवसा, जोरूखाड़, चोपन ब्लाक के नेरूइया दामर, रोहनिया दामर, पड़रच, नई बस्ती, पड़वा, कोतवारी गाँवों का है। बभनी और दुदही ब्लाक ब्लाक में भी कुछ गाँव फ्लोराइड का दंश झेल रहे हैं। कुसुम्हा, रोहनिया दामर, जैसे कुछ गाँव में एक परिवार के सभी सदस्य विकलांगता का दंश झेल रहे हैं। अकेले कुसुम्हा गाँव तीन से चार सौ लोग फ्लोरोसिस पीड़ित हैं। यहीं के रामभजन ने कहा कि उसकी हड्डियाँ कमजोर होने से शरीर में भयंकर दर्द उठता है। उसने कहा कि अगर हम गोली नहीं खायेंगे तो जिंदा नही बचेंगे। हालात यह है कि पीड़ित एक दिन में दो से तीन दर्द निवारक गोलियाँ खा रहे हैं। एक दवा विक्रेता ने बताया कि पिछले दो से तीन सालों में दर्द निवारक दवाओं की बिक्री आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है। सी एम ओ डा जी के कुरील का कहना है कि इस रोग में दर्द निवारक गोलियाँ कारगर तो हैं लेकिन अधिक प्रयोग से बुरा प्रभाव पड़ता है। आठ वर्ष पूर्व चार ब्लाकों के दो दर्जन गाँवों में फ्लोरिसिस के प्रकोप का पता चलने के बाद स्वास्थ्य विभाग ने पीड़ितों के लिये अच्छे इलाज के लिये कार्ड बनाये गये।
क्यों बढ़ी है फ्लोराइड की मात्रा-
केमिकल इंजीनियर और विश्व बैंक के सलागकार दुनू राय का कहना है कि एल्यूमिनियम कंपनी बाक्साइट से अधिक बाक्साइट निकालने के लिये फ्लोराइड का इस्तेमाल करती हैं। बाद में चिमनियों के सहारे उड़ने वाला फ्लोराइड चालीस किलोमीटर के क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ता है।
अमर उजाला- 18 जनवरी, 2010
Thursday, January 21, 2010
Tuesday, January 19, 2010
Thand, Kiske Liye?
कहा जा रहा है कि इस साल ठंड बहुत पड़ रही है, इसने पिछले दस साल के रिकार्ड को तोड़ दिया है। कोहरे और धुंध की वजह से ट्रेनों और प्लेनों की यात्रा में विलंब हो रहा है। खैर पहली बात तो रिकार्ड बनते ही हैं टूटने के लिये और पिछले कुछ सालों की मौसम की फाइलें उठाकर देखें तो पता चलेगा कि रिकार्ड तो अभी और टूटने बाकी हैं। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम रूठी हुई भाभी बन गया है।
हम बात कर रहे थे ठंडी की...वाकई ठंडी बढ़ी तो है लेकिन किसके लिये, सही है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम कुछ ज्यादा ही अनियमित हो गया है, लेकिन सिर्फ आम आदमी के लिये, नही तो विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल पर सहमत क्यों नही होते। अमेरिका जो सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है वह क्योटो प्रोटोकाल के संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिये राजी ही नही है। क्यों...क्या उसे इस धरती पर नही रहना है, या फिर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा उसके लिये नही है, है, लेकिन वह इस तथ्य को विकासशील देशों के ऊपर थोपना चाहता है कि हम विश्व के बेताज बादशाह हैं, हम जो करेंगे वह आदर्श होगा और जो सोचेंगे वह नीति। यह बिलकुल उसी तरह है जैसे कि दिल्ली या गुड़गाँव में कड़ाके की ठंडी में सड़क के किनारे खड़े कुछ फुटपाथ पर पलने वाले बच्चे थर-थर काँप रहे हैं और वहीं दूसरी ओर सड़के के किनारे खड़े कुछ अमेरिकन सोच वाले लोग अपनी गर्लफ्रेंड के साथ मजे में आइसक्रीम खा रहे हैं और ठंडा पी रहे हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि पैसे से मौसम को भी अपने अपने अनुकूल बना लिया गया है। वो ठंडी में भी मजे करते हैं और गर्मी में भी। पर बेचारा गरीब क्या करे वह तो हर तरफ से मारा-मारा फिरता है। वह खाने की भी व्यवस्था मुश्किल से कर पाता है तो वह सर्दी से बचने की व्यवस्था कहां से करेगा। वह तो भला हो प्रकृति का कि उसने इंसानों में प्रकृति के साथ अनुकूलन की एक नायाब व्यवस्था कर रखी है नही तो पैसे वाले प्रकृति को भी पैसे से खरीदकर गरीबों पर अत्याचार करने के लिये विवश कर देते। जो लोग सड़के के किनारे आइसक्रीम खा रहे हैं जरा उनके जैकेट स्वेटर जूते वगैरह निकाल दिये जायें और कुछ देर बाद फिर आइसक्रीम खाने के लिये दी जाये तो क्या होगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
हम बात कर रहे थे ठंडी की...वाकई ठंडी बढ़ी तो है लेकिन किसके लिये, सही है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम कुछ ज्यादा ही अनियमित हो गया है, लेकिन सिर्फ आम आदमी के लिये, नही तो विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल पर सहमत क्यों नही होते। अमेरिका जो सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करता है वह क्योटो प्रोटोकाल के संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिये राजी ही नही है। क्यों...क्या उसे इस धरती पर नही रहना है, या फिर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा उसके लिये नही है, है, लेकिन वह इस तथ्य को विकासशील देशों के ऊपर थोपना चाहता है कि हम विश्व के बेताज बादशाह हैं, हम जो करेंगे वह आदर्श होगा और जो सोचेंगे वह नीति। यह बिलकुल उसी तरह है जैसे कि दिल्ली या गुड़गाँव में कड़ाके की ठंडी में सड़क के किनारे खड़े कुछ फुटपाथ पर पलने वाले बच्चे थर-थर काँप रहे हैं और वहीं दूसरी ओर सड़के के किनारे खड़े कुछ अमेरिकन सोच वाले लोग अपनी गर्लफ्रेंड के साथ मजे में आइसक्रीम खा रहे हैं और ठंडा पी रहे हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि पैसे से मौसम को भी अपने अपने अनुकूल बना लिया गया है। वो ठंडी में भी मजे करते हैं और गर्मी में भी। पर बेचारा गरीब क्या करे वह तो हर तरफ से मारा-मारा फिरता है। वह खाने की भी व्यवस्था मुश्किल से कर पाता है तो वह सर्दी से बचने की व्यवस्था कहां से करेगा। वह तो भला हो प्रकृति का कि उसने इंसानों में प्रकृति के साथ अनुकूलन की एक नायाब व्यवस्था कर रखी है नही तो पैसे वाले प्रकृति को भी पैसे से खरीदकर गरीबों पर अत्याचार करने के लिये विवश कर देते। जो लोग सड़के के किनारे आइसक्रीम खा रहे हैं जरा उनके जैकेट स्वेटर जूते वगैरह निकाल दिये जायें और कुछ देर बाद फिर आइसक्रीम खाने के लिये दी जाये तो क्या होगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
Sunday, January 17, 2010
AHSAAS........
अहसास....
हम लोगों को प्रतिदिन कहते सुनते हैं कि मैं तुम्हारी खुशियों या गमों को महसूस करता हूं। खुशियों के बारे में तो नही कह सकते क्योंकि उनके महसूस करने का विधान ही अलग है लेकिन अगर बात गमों की करें तो यह नामुमकिन है कि किसी दूसरे के दुखों को कोई दूसरा महसूस कर पाये। इस तथ्य को सीधे सीधे शब्दों में कहा जाये तो, किसी का सुख महसूस करना आसान है। इसका साधारण सा तरीका है कि उसके खुशियों में शरीक हो जाओ...खाओ, गाओ, मौज मनाओ। कहते हैं, कि इसी से तो खुशियाँ दुगुनी होती हैं।
लेकिन अगर गम बाँटना हो तो...कैसे बाँटें, उसे सांत्वना देकर...या फिर उसे पुरानी खुशियों की याद दिलाकर, शायद नहीं, क्योंकि यदि हम सांत्वना देने का प्रयास करेंगे तो हम उसके वर्तमान दुखों की याद करायेंगे जो उसके दुखों में वृद््धि ही करेंगे, और यदि हम उसके बीते हुये अच्छे पलों की याद कराकर उसे खुशी प्रदान करने की कोशिश करेंगे तो स्थिति और भी जटिल हो जायेगी क्योंकि जब आदमी पर दुखों का पहाड़ टूटता है तो खुशी के पल भी उसे कष्ट प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ भारतीय वैवाहिक परंपरा में दूल्हे के खाना खाने या फिर दूल्हे के पिताजी के आगमन से संबधित शुभ अवसरों पर गाली देने का रिवाज है, मतलब खुशी के समय पर गालियाँ भी अच्छी लगने लगती है और दुख के अवसर पर अच्छी बातें भी खराब।
तो बात हो रही थी, किसी के सुख या फिर दुख को महसूस करने की। मेरा मानना है कि हम किसी के सुख या फिर दुख को महसूस नही कर सकते। मैं इसका एक उदाहरण देना चाहूंगा जो आजकल मैं बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं, स्मरणीय है कि मैं महसूस कर रहा हूँ, इसका मतलब यह नही है कि मैं उसमें शामिल हूँ, एक संवेदनशील द्ष्टा की तरह मैं देख रहा हूँ और उसपर अपने विचार व्यक्त कर रहा हूँ, किंतु इतना अवश्य है कि ये घटना किसी को भी विचलित कर सकती है।
इस समय मैं गुड़गाँव में रह रहा हूं, विकास सर के साथ। हम जहाँ रहते हैं, रहते क्या हैं, बस नहाते हैं और कपड़े चेंज करते हैं, वहाँ की स्थिति थोड़ी अजीब है। मकान के मालिक दो भाई हैं, जिनके मकान में दो भाग हैं। हम दाये वाले भाग में रहते हैं। जिसमें चार कमरे नीचे और एक कमरा ऊपर है। नीचे वाले कमरों में हम
रहते हैं। पहले वाले कमरे में एक परिवार रहता हैं जिसमें पति-पत्नी और उनके तीन बच्चे रहते हैं। ये लोग हरियाणा से बिलांग करते हैं। दूसरे वाले कमरे में हम लोग रहते हैं, विकास सर और मैं। तीसरे कमरे में दो लड़के रहते हैं जो किसी कंपनी में काम करते हैं, वे कहाँ के हैं, नही जानता। चौथे कमरे में भी लड़के रहते हैं। सारी पाँचवा कमरा भी है, मैं बताना भूल गया था, जिसमें एक पति-पत्नी रहते हैं जो बिहार के हैं। सर उनको बिहारी और बिहारन कहते हैं। अच्छी बात यह है कि दोनो काम पर जाते हैं, और शायद बहुत खुश भी हैं। अब आते हैं मुख्य कहानी पर, घर का दूसरा हिस्सा, दूसरे भाई का है। उसमें किरायेदार रहते हैं कि नही मैं नही जानता हूँ। दूसरे भाई का परिवार रहता है, यह पता है। मेरे कहानी का पात्र दूसरा भाई और उसकी पत्नी हैं। उनके बच्चे भी हैं पर कितने हैं, कह नही सकता, कभी जानने का मौका नही मिला। या फिर जानने की कोशिश नही की। कहानी का प्लाट यह है कि दिन भर उस घर में क्या होता है नही पता क्योंकि दिन भर हम रहते ही, रहते तो रात में भी नही हैं, लेकिन खाना खाने चले जाते हैं। जैसे ही रात के दस बजे के आसपास का समय होता है, दूसरा भाई घर में प्रवेश करता है, पूरी तरह धुत होकर, शराब के नशे में। आते ही वह अपनी पत्नी को भद्दी-भद्दी गालियाँ देना शुरू कर देता है। और गालियाँ भी ऐसी की गोलियाँ भी शर्मा जायें। वह कुछ सेलेक्टेड गालियों को बार-बार दोहराता है और ना जाने कैसी-कैसी आवाजें निकालता है, कभी लगता है कि वह रो रहा है कभी लगता है कि वह हँस रहा है। कभी लगता है कि किसी को मार रहा है और कभी लगता है कि अपने पैर पटक रहा है। उसकी पत्नी की आवाज कभी सुनाई नही देती और ना ही उसके बच्चों की। बस आवाज आती है तो उसके गालियों की, और यह सिलसिला ना जाने कबसे चल रहा है ना जाने कब तक चलेगा। हम सुनते हैं और बस सुनते हैं, कभी-कभी लगता है कि वो कमरा छो़ड़ दिया जाय, शुरु में तो मैं बर्दाश्त ही नही कर पाता था, और लगता था कि कहाँ आ गये हैं हम, कैसे कैसे लोग हैं संसार में। लेकिन धीरे धीरे ये लगने लगा कि क्या हम इस आदमी के रुप में किसी कैरेक्टर का निर्माण कर सकते हैं कि नही, लगा कि हाँ, निर्माण कर सकते हैं। तबसे उसका चीखना चिल्लाना और गालियाँ देना मैंने कैरेक्टर के रूप में लेना शुरु कर दिया, और मेरे कैरेक्टर का निर्माण शुरू हो गया। मैं उसकी गालियों पर ध्यान देता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ। यह शायद मानवता नही है लेकिन एक कोशिश है, इन परिस्थितियों से सबको अवगत कराने की। उस व्यक्ति की पत्नी पर क्या गुजरती होगी, शायद कोई महसूस नही कर सकता। प्रतिदिन शाम को एक मानसिक अत्याचार, स्ट्रेट फारवर्ड कहें तो मेंटल रेप.....। सुबह यदि वो सामने आ जाती है तो उसके चिह्न उसके चेहरे पर साफ दिखाई देते हैं। एक मुरझाया हुआ चेहरा, जिसपर बेबसी और बिखराव की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे जाती हैं। उसकी क्या गलती है शायद उसे नही पता। उसके साथ ऐसा क्यों होता है, वह कभी भी नही जान पायेगी। आमतौर पर ऐसी स्थितियाँ उस घर में उत्पन्न होती हैं जहाँ पर आर्थिक, या फिर नैतिक संकट हो, या फिर अशिक्षा भी एक कारण हो सकती है। लेकिन यहाँ पर ऐसा कोई कारण नही है। उसका परिवार संपन्न तो नही फिर भी आराम से घर चल जाता है। सामने दो दुकाने हैं जिनसे अच्छा खासा किराया आ जाता है। पत्नी अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी निष्ठा से निभाती है, लेकिन फिर भी ये सारी घटनाये होती है। क्यों, पता नही क्यों। इन सारी बातों में एक बात बहुत ही अजीब है कि वह व्यक्ति किसी और से बात करते समय पूरी तरह सामान्य रहता है, अगर वह घर में से गाली ही देकर क्यों ना निकला हो। देखने में भी शराबी या फिर गाली बकने वाला नही लगता। कभी-कभी स्वयं ही कहता है जब उसका सामना सर से हो जाता है कि वह रिसर्च कर रहा है। क्या रिसर्च कर रहा है, उसे ही पता होगा। शायद किसी को कितनी बेरहमी से टार्चर किया जा सकता है, उस विषय पर।
क्या उस पत्नी के दुख को महसूस करके उसे कम किया जा सकता है......उत्तर मिले तो अवश्य बतायें।
हम लोगों को प्रतिदिन कहते सुनते हैं कि मैं तुम्हारी खुशियों या गमों को महसूस करता हूं। खुशियों के बारे में तो नही कह सकते क्योंकि उनके महसूस करने का विधान ही अलग है लेकिन अगर बात गमों की करें तो यह नामुमकिन है कि किसी दूसरे के दुखों को कोई दूसरा महसूस कर पाये। इस तथ्य को सीधे सीधे शब्दों में कहा जाये तो, किसी का सुख महसूस करना आसान है। इसका साधारण सा तरीका है कि उसके खुशियों में शरीक हो जाओ...खाओ, गाओ, मौज मनाओ। कहते हैं, कि इसी से तो खुशियाँ दुगुनी होती हैं।
लेकिन अगर गम बाँटना हो तो...कैसे बाँटें, उसे सांत्वना देकर...या फिर उसे पुरानी खुशियों की याद दिलाकर, शायद नहीं, क्योंकि यदि हम सांत्वना देने का प्रयास करेंगे तो हम उसके वर्तमान दुखों की याद करायेंगे जो उसके दुखों में वृद््धि ही करेंगे, और यदि हम उसके बीते हुये अच्छे पलों की याद कराकर उसे खुशी प्रदान करने की कोशिश करेंगे तो स्थिति और भी जटिल हो जायेगी क्योंकि जब आदमी पर दुखों का पहाड़ टूटता है तो खुशी के पल भी उसे कष्ट प्रदान करते हैं। उदाहरणार्थ भारतीय वैवाहिक परंपरा में दूल्हे के खाना खाने या फिर दूल्हे के पिताजी के आगमन से संबधित शुभ अवसरों पर गाली देने का रिवाज है, मतलब खुशी के समय पर गालियाँ भी अच्छी लगने लगती है और दुख के अवसर पर अच्छी बातें भी खराब।
तो बात हो रही थी, किसी के सुख या फिर दुख को महसूस करने की। मेरा मानना है कि हम किसी के सुख या फिर दुख को महसूस नही कर सकते। मैं इसका एक उदाहरण देना चाहूंगा जो आजकल मैं बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं, स्मरणीय है कि मैं महसूस कर रहा हूँ, इसका मतलब यह नही है कि मैं उसमें शामिल हूँ, एक संवेदनशील द्ष्टा की तरह मैं देख रहा हूँ और उसपर अपने विचार व्यक्त कर रहा हूँ, किंतु इतना अवश्य है कि ये घटना किसी को भी विचलित कर सकती है।
इस समय मैं गुड़गाँव में रह रहा हूं, विकास सर के साथ। हम जहाँ रहते हैं, रहते क्या हैं, बस नहाते हैं और कपड़े चेंज करते हैं, वहाँ की स्थिति थोड़ी अजीब है। मकान के मालिक दो भाई हैं, जिनके मकान में दो भाग हैं। हम दाये वाले भाग में रहते हैं। जिसमें चार कमरे नीचे और एक कमरा ऊपर है। नीचे वाले कमरों में हम
रहते हैं। पहले वाले कमरे में एक परिवार रहता हैं जिसमें पति-पत्नी और उनके तीन बच्चे रहते हैं। ये लोग हरियाणा से बिलांग करते हैं। दूसरे वाले कमरे में हम लोग रहते हैं, विकास सर और मैं। तीसरे कमरे में दो लड़के रहते हैं जो किसी कंपनी में काम करते हैं, वे कहाँ के हैं, नही जानता। चौथे कमरे में भी लड़के रहते हैं। सारी पाँचवा कमरा भी है, मैं बताना भूल गया था, जिसमें एक पति-पत्नी रहते हैं जो बिहार के हैं। सर उनको बिहारी और बिहारन कहते हैं। अच्छी बात यह है कि दोनो काम पर जाते हैं, और शायद बहुत खुश भी हैं। अब आते हैं मुख्य कहानी पर, घर का दूसरा हिस्सा, दूसरे भाई का है। उसमें किरायेदार रहते हैं कि नही मैं नही जानता हूँ। दूसरे भाई का परिवार रहता है, यह पता है। मेरे कहानी का पात्र दूसरा भाई और उसकी पत्नी हैं। उनके बच्चे भी हैं पर कितने हैं, कह नही सकता, कभी जानने का मौका नही मिला। या फिर जानने की कोशिश नही की। कहानी का प्लाट यह है कि दिन भर उस घर में क्या होता है नही पता क्योंकि दिन भर हम रहते ही, रहते तो रात में भी नही हैं, लेकिन खाना खाने चले जाते हैं। जैसे ही रात के दस बजे के आसपास का समय होता है, दूसरा भाई घर में प्रवेश करता है, पूरी तरह धुत होकर, शराब के नशे में। आते ही वह अपनी पत्नी को भद्दी-भद्दी गालियाँ देना शुरू कर देता है। और गालियाँ भी ऐसी की गोलियाँ भी शर्मा जायें। वह कुछ सेलेक्टेड गालियों को बार-बार दोहराता है और ना जाने कैसी-कैसी आवाजें निकालता है, कभी लगता है कि वह रो रहा है कभी लगता है कि वह हँस रहा है। कभी लगता है कि किसी को मार रहा है और कभी लगता है कि अपने पैर पटक रहा है। उसकी पत्नी की आवाज कभी सुनाई नही देती और ना ही उसके बच्चों की। बस आवाज आती है तो उसके गालियों की, और यह सिलसिला ना जाने कबसे चल रहा है ना जाने कब तक चलेगा। हम सुनते हैं और बस सुनते हैं, कभी-कभी लगता है कि वो कमरा छो़ड़ दिया जाय, शुरु में तो मैं बर्दाश्त ही नही कर पाता था, और लगता था कि कहाँ आ गये हैं हम, कैसे कैसे लोग हैं संसार में। लेकिन धीरे धीरे ये लगने लगा कि क्या हम इस आदमी के रुप में किसी कैरेक्टर का निर्माण कर सकते हैं कि नही, लगा कि हाँ, निर्माण कर सकते हैं। तबसे उसका चीखना चिल्लाना और गालियाँ देना मैंने कैरेक्टर के रूप में लेना शुरु कर दिया, और मेरे कैरेक्टर का निर्माण शुरू हो गया। मैं उसकी गालियों पर ध्यान देता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ। यह शायद मानवता नही है लेकिन एक कोशिश है, इन परिस्थितियों से सबको अवगत कराने की। उस व्यक्ति की पत्नी पर क्या गुजरती होगी, शायद कोई महसूस नही कर सकता। प्रतिदिन शाम को एक मानसिक अत्याचार, स्ट्रेट फारवर्ड कहें तो मेंटल रेप.....। सुबह यदि वो सामने आ जाती है तो उसके चिह्न उसके चेहरे पर साफ दिखाई देते हैं। एक मुरझाया हुआ चेहरा, जिसपर बेबसी और बिखराव की झुर्रियाँ साफ दिखाई दे जाती हैं। उसकी क्या गलती है शायद उसे नही पता। उसके साथ ऐसा क्यों होता है, वह कभी भी नही जान पायेगी। आमतौर पर ऐसी स्थितियाँ उस घर में उत्पन्न होती हैं जहाँ पर आर्थिक, या फिर नैतिक संकट हो, या फिर अशिक्षा भी एक कारण हो सकती है। लेकिन यहाँ पर ऐसा कोई कारण नही है। उसका परिवार संपन्न तो नही फिर भी आराम से घर चल जाता है। सामने दो दुकाने हैं जिनसे अच्छा खासा किराया आ जाता है। पत्नी अपनी सारी जिम्मेदारियाँ पूरी निष्ठा से निभाती है, लेकिन फिर भी ये सारी घटनाये होती है। क्यों, पता नही क्यों। इन सारी बातों में एक बात बहुत ही अजीब है कि वह व्यक्ति किसी और से बात करते समय पूरी तरह सामान्य रहता है, अगर वह घर में से गाली ही देकर क्यों ना निकला हो। देखने में भी शराबी या फिर गाली बकने वाला नही लगता। कभी-कभी स्वयं ही कहता है जब उसका सामना सर से हो जाता है कि वह रिसर्च कर रहा है। क्या रिसर्च कर रहा है, उसे ही पता होगा। शायद किसी को कितनी बेरहमी से टार्चर किया जा सकता है, उस विषय पर।
क्या उस पत्नी के दुख को महसूस करके उसे कम किया जा सकता है......उत्तर मिले तो अवश्य बतायें।
Saturday, January 16, 2010
DASTUK....
हो गया वीरान घर है, हर गली सुनसान सी।
खेलती खुशियाँ जहाँ थी, बिन बुलाये हर घड़ी,
आज पसरा है धुँआ, खामोशी है शमशान सी।
दस्तक...
किसी की भी हो सकती है, जाने की, अनजाने की, खुशियों की, गमों की, जीवन की या फिर मृत्यु की भी...। महत्वपूर्ण यह है कि उसके पूर्व का वातावरण क्या रहा है। यदि खुशियाँ दस्तक देती हैं तो उसके पूर्व की घटनायें काफी कुछ उसके विषय में बता देती हैं। इसके अतिरिक्त कुछेक खुशियाँ ऐसी भी होती हैं जिनके आने का पूर्वाभास नही होता और वे एकदम से सामने आ जाती हैं और हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं। इसी तरह कोई अनजाना सा चेहरा हमारे सामने आ जाता है और हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, और उस अनजाने का प्रभाव हमारे जीवन पर काफी समय तक रहता है।
इस ब्लाग पर कुछ ऐसे ही दस्तकों के विषय में चर्चा होगी, जो हमारे जीवन, हमारे जीवन शैली, हमारे समाज और हमारे देश के दरवाजे पर ना जाने कबसे हो रहे हैं और हम जाने अनजाने में उसके लिये अपने दरवाजे खोल रहे हैं और बंद भी कर रहे हैं।
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