Sunday, April 23, 2017

तेरा लाइक-मेरा लाइक

बहुत दिन नही हुये जब फेसबुक को कोई जानता नही था। पिछले कुछ सालों में इसके इस्तेमाल करने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक इजाफा हुआ है। फेसबुक ही नहीं बल्कि हर प्रकार के सोशल मीडिया प्लेटफार्म के इस्तेमाल करने वालों की संख्या बढ़ी है। मास कम्यूनिकेशन के साधनों में सोशल मीडिया ने अपनी पकड़ बहुत बजबूत बनाई है। निःसन्देह यह काबिले तारीफ है। इन्टरनेट और सोशल मीडिया ने विश्व को और ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया है। बीते कुुछ सालों की बात करें तो हमें अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने के लिये कम्यूनिकेशन के पारंपरिक माध्यमों पर निर्भर रहना पड़ता था। जिसमें पत्र, टेलीफोन, बैनर, पोस्टर इत्यादि शामिल थे। ये तरीके धीमे, खर्चीले और कम लोगों तक पहुँचने वाले थे। इसके उलट सोशल मीडिया ने आज इसको बहुत ही ज्यादा आसान बना दिया है। आज कोई भी व्यक्ति जिसके फ्रेन्डलिस्ट में हजार-पाँच सौ लोग भी हैं, और वह फेसबुक पर छींकता भी है तो उसका संक्रमण उतने लोगों तक पहुँचता है। अच्छी बात है।
आक्सीजन जीवधारियों के लिये सबसे ज्यादा आवश्यक अवयय है जिसके बिना जिन्दगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इंसान और जानवर तो क्या पेड़-पौधे भी आक्सीजन के बिना नहीं रह सकते लेकिन इसी आक्सीजन की एक सबसे बड़ी खामी है कि यह जलने के लिये भी आवश्यक है। यह खामी भी है और खासियत भी। जब कहीं आग लग जाती है तो यह खामी नहीं तो खासियत के रूप में सृष्टि की सेवा करती रहती है। यही बात सोशल मीडिया पर भी लागू होती है। पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी, जो कालेज, स्कूल यहाँ तक कि प्राइमरी तक में पढ़ रहे हैं, इन माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैंऔर किसलिये सिर्फ अपने फोटोज शेयर करने के लिये। दिमागी तौर पर उनकी सोच इतनी ज्यादा विकसित ही नहीं हुई कि वो इन माध्यमों के जरिये कुछ रचनात्मक या फिर सर्जनात्मक विचारों का आदान-प्रदान कर सकें। अफसोस होता है जब छोटे-छोटे बच्चे फेसबुक पर प्यार और मोहब्बत के बारे में अपनी राय और उनसे जुड़े अनाप-शनाप फोटोज शेयर करते हैं। पहले के स्कूलो में मेेरे पढ़ाये हुये बच्चे जो आज छठवीं से लेकर बारहवीं कक्षाओं में पढ़ रहे हैं वो बेधड़क लव, हेट, आफेक्शन पर अपने विचार रख रहे हैं। उससे भी बुरी बात कि उनको लाइक करने वालों की कमी भी नही है। 
बच्चे अपनी सेल्फी लेते हैंं, एडिट करते हैं, कैप्शन लिखते हैं और पोस्ट कर देते हैं। फिर शुरू होता है उसको लाइक और कमेंट करने का सिलसिला, जिसमें नाइस, आसम, डैशिंग, गुड लुकिंग, झक्कास इत्यादि शब्दों की भरमार होती है। हर कमेंट के लिये शेयर करने वाला थैंक्स ब्रो, थैंक्स भाई और थैंक्स दोस्त इत्यादि की कृतज्ञता दिखाता  है। बच्चे समझ नहीं पा रहे हैं कि इन शब्दों की वास्तविक जिन्दगी में कोई अहमियत ही नही हैं। असली नाइस, आसम और हैण्डसम इत्यादि का कंप्लेन्ट तब मिलता है जब बच्चा पढ़ लिख कर लायक बन जाता है और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के काबिल हो जाता है। असली कमेंट फोटो में बाइक, कार या फिर नदी के किनारे फोटो खिंचवाने नहीं बल्कि रियल लाइफ में उसे अपने दम पर खरीद कर चलाने में हैं। 
दुख की बात है कि आजकल के बच्चे इस आभासी दुनिया में इतना रम गये हैं कि वो हकीकत की तरफ मुँह करना ही नहीं चाहते। मैं कई ऐसे बच्चों को जानता हूँ जो इण्टर की क्लासेज में फेल हो चुके हैं लेकिन फेसबुक पर उन्हे लाइक करने वालों की संख्या सैकड़ों हैं। असल में ये लाइक करने वाले भी उसी कैटगरी के बच्चे हैं।  बच्चे दूसरों को देखकर बहुत प्रभावित होते हैं। वो सेलिब्रिटीज की फैन फालोइंग को देखकर अपनी भी समांतर फैन फालोइंग बनाना चाहते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि अमिताभ की करोड़ों फैन फालोइंग फेसबुक इस्तेमाल करने से नहीं बल्कि पचासों साल से की गई मेहनत का परिणाम है। जिन नाम शख्सियतों के सोशल मीडिया पर फैन बेस को देखकर हम प्रभावित होते हैं वो उनके काम की वजह से है ना कि फेसबुक इस्तेमाल करने की वजह से है। मुझे याद है कि मैं जब मुंबई में था तब सचिन ने 2008-2009 मे ट्विटर अकाउंट ओपेन किया था और उनके अकाउंट ओपेन करते ही फालोअर्स की संख्या करोड़ों के पार चली गई। उस समय ट्विटर मिड डे में प्रतिदिन उनके बढ़ते फालोअर्स की संख्या प्रकाशित करता था। अगर सचिन क्रिकेट के भगवान नहीं होते तो उनको ये फैन फालोइंग की  संख्या पाते ना जाने कितना समय लगता। मैं खुद भी फेसबुक का 2008 जनवरी से इस्तेमाल करता हूँ। उस समय बहुत कम लोग इसके बारे में जानते थे। मैं खुद भी एक दोस्त के द्वारा ही जान सका जो उस समय दुबई से आई थी। लेकिन आज भी मेरे दोस्तों की संख्या 1000 तक नहीं पहुँची हालाँकि सैकड़ों फ्रैन्ड रिक्वेस्ट को मैने अभी एसेप्ट नहीं किया। 
सवाल यह है कि फ्रेन्ड लिस्ट बढ़ाने से क्या फायदा जब आप समाज और दूसरों के जीवन के लिये सार्थक योगदान नहीं कर सकते। गलतफहमी किसी हद तक ठीक हो सकती है लेकिन खुशफहमी निश्चित तौर पर इंसान के आगे बढ़ने में रूकावटें पैदा करती है। 
पढने वाले बच्चों से मेरी यही गुजारिश है कि वो पहले अपने पढ़ाई पर ध्यान दें और बाद में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करें क्योंकि यह धीरे-धीरे हमारी आदत में शुमार होता जा रहा है और आदतें अच्छी भी होती हैं और बुरी भी।

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