सही कहूँ तो यह छोटा सा लेख मैं 6 अप्रेल को ही लिखना चाहता था, पर शायद उस दिन लिखता तो हो सकता है कि रिफरेंस नही दे पाता। आज प्लस प्वाइंट है कि रिफरेंस दे सकता हूँ।
आशा करता हूँ आपको 6 अप्रेल 2010 याद होगा, अगर नही है तो भी कोई बात नही, क्योंकि हमारे देश में ज्यादातार लोगों को भूलने की खतरनाक बीमारी है। चलिये मैं याद दिला देता हूँ कि 6 अप्रेल 2010 को क्या हुआ था। 6 अप्रेल 2010 को दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने आपरेशन ग्रीन हंट के तहत जंगल में कांबिंग कर रहे लघभग 100 जवानों को चारों ओर से घेरकर हमला किया और 76 जवान शहीद हो गये, और कल उसी दंतेवाड़ा में उन्ही नक्सलियों न बम लगाकर एक बस को उड़ा दिया जिसमें 40 लोग मारे गये, जिसमें ज्यादातार पुलिस वाले ही थे।
7 अप्रेल 2010 को देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, रक्षामंत्री इत्यादि लोगों ने यही रोना रोया था जो आज 18 मई 2010 को रो रहे हैं। सवाल यह उठता है कि हमारी सरकार क्या कर रही है जबकि देश के आधे से अधिक राज्य नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं। लघभग प्रतिदिन नक्सलियों से जुड़ी कोई ना कोई घटनायें होती है पर सरकार के कानों पर जूँ नही रेंगती।
मजाक लगता है जब सरकार इस तरह के नक्सली हमलों के बाद मारे गये जवानों को शहीद का दर्जा देती है, कैसा शहीद और क्यों शहीद। हमारी निकम्मी सरकार, जिसके मंत्रियों के घुटनों में दम नही, जिनकी कुछ देर चलते ही साँस फूल जाती है, जो वोटों की राजनीति करते हैं और जनता के बीच में नफरत फैलाते हैं, जो दिनदहाड़े हजारों करोड़ रुपये जो कि जनता के हैं, डकार लिये बिना खा जाते हैं, वे एक भ्रम फैलाते हैं कि जवान शहीद हुए, असलियत तो यह है कि हमारे जवान कुत्तों की मौत मारे जाते हैं नक्सल प्रभावित इलाकों में। हरपल डर के साये में अपना एक एक कदम बढ़ाते हमारे जवानों को पता ही नही चलता कि उनकी मौत किस कदम पर लिखी है, और हमारी सरकार नक्सलियों के उन्मूलन के लिये कुछ नही करती क्योंकि ना जाने कितने क्षेत्रीय दलों की दाल रोटी इन नक्सलियों के दिये गये चंदो से चलती है।
इन नक्सलियों जिनकी संख्या के बारे में हमेशा हउआ खड़ा किया जाता है कि उनकी संख्या पुलिस वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है, कि उनके ट्रेनिंग कैंप सैकड़ों जगहों पर चल रहे हैं, कि उनके हथियार हमारे
हथियारों से ज्यादा लेटेस्ट हैं। गीदड़ हमेशा झुंड में हमला करते हैं, क्या होगा इन नक्सलियों का जब हमारी वायु सेना इन नक्सलियों को एक घंटे में मटियामेट कर देगी। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से बाहर कोई भी धमाका या फिर कोई भी हिंसात्मक कार्यवाही होती है और दुर्भाग्य से उसमें किसी मुस्लिम संगठन का हाथ होता है तो तुरंत ही आतंकी हमले की दुहाई दी जाने लगती है और फिर भी कुछ नही होता। कई दशकों से चल रहे नक्सलवादियों के इस खूनी खेल को क्या कहा जायेगा, स्वतंत्रता के लिये संघर्ष या उनका बचाव करते हुए ये, कि उनकी हिंसात्मक कार्यवाहियाँ विकास के दोहरे मापदंड और पुलिस अत्याचार के फलस्वरूप उपजे आक्रोश का नतीजा हैं। इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित कुछ क्षेत्रों में विकास की गति बहुत धीमी है, पर विकास की गति देश के बहुत सारे भागों में धीमी है, वहाँ गरीबी है, भूख है, लाचारी है, पर क्या वहाँ भी लोग हथियारों के बल पर विकास लाने का प्रयास करें, ऐसे तो हमारा पूरा देश गृहयुद्ध की चपेट में आ जायेगा। हथियारों के दम पर विकास नही लाया जा सकता ना ही हथियार किसी समस्या की जड़ हैं, सबसे बड़े गुनाहगार हमारे नेता और हमारी सरकार है, जो पहले नक्सलवाद जैसी समस्या को मुँह उठाने का मौका देती है और बाद में जब वह भस्मासुर बनकर खुद पर ही खतरा बन जाता है तब भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर डाल कर निश्चिंत रहती है।
नक्सलवादी अगर अपना रोष जाहिर ही करना चाहते हैं तो वे दिल्ली या राज्य की राजधानी में बैठे बड़े स्तर के नेता को क्यों नही मारते, जिससे कम से कम समाज की गंदगी तो कम होती। वे जानते हैं कि अगर उन्होने किसी नेता को मारा तो हमारे नेताओं के कान में धमाका हो जायेगा और कोई ना कोई कार्यवाही हो ही जायेगी। इस तरह पुलिस के जवानों और आम जनता को मार कर वे अपनी लगातार उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं, लेकिन कायरों की तरह, और हमारे नेता ये तमाशा देखते हैं...अंधों की तरह।
सुरेन्द्र पटेल...
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इस बात में कोई सन्देह नहीं कि आपने अपनी बात बेहतर तरीके से प्रस्तुत की है, लेकिन नक्सलवादियों के दर्द को आपने केवल एक पंक्ति में समटे दिया। यह ठीक बात नहीं है। कोई भी मरने-मारने के लिये केवल इतनी सी बात पर तैयार नहीं हो जाता है। आपने केवल इतना सा लिखा है-इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित कुछ क्षेत्रों में विकास की गति बहुत धीमी है, पर विकास की गति देश के बहुत सारे भागों में धीमी है, वहाँ गरीबी है, भूख है, लाचारी है, पर क्या वहाँ भी लोग हथियारों के बल पर विकास लाने का प्रयास करें, ऐसे तो हमारा पूरा देश गृहयुद्ध की चपेट में आ जायेगा।-कुछ क्षेत्रों में विकास की गति बहुत धीमी है,...मैं फिर से कहँूगा कि केवल इतने भर से कोई मरने मारने को तैयार नहीं हो जाता है। इसीलिये दूसरे क्षेत्रों के लोग अभी तक शान्त है। नक्सलवाद के पीछे बडे कारण हैं। महरबानी करके उन्हें जानें और अपनी लेखनी के माध्यम से अन्य लोगों तक भी सच्चाई को बतलायें। हाँ आपके आलेख के अन्तिम चरण में, आपने बहुत कुछ स्वीकार किया है, लेकिन पूरी सच्चाई को जाने बिना कुछ भी निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। इस सम्बन्ध में, मैंने विनम्रता पूर्वक कुछ लिखने का प्रयास किया है, जिसे आप निम्न साइट पर और अन्यत्र अनेक साइटों पर पढ सकते हैं :-
ReplyDeletehttp://www.pravakta.com/?p=8065
http://presspalika.blogspot.com/2010/03/blog-post_19.html
शुभकामनाओं सहित।-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इसमें वर्तमान में ४२८० आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
dr. purshottam laal meenaa ko ek patra:
ReplyDeletehttp://presspalika.blogspot.com/2010/03/blog-post_19.html
आपका लेख तो काफी जानकारियाँ देता ही है.
पर एक प्रश्न ज़हन में है कृपया बताएँगे.
जब एससी और एसटी की सूचियाँ बन रही थीं, तब एक कार्यालयी त्रुटि या कहें चालाकी हुयी थी वह यह कि
आर्थिक आधार पर "आदिवासी मीणा" को एसटी वर्ग दिया जाना था और मीणा किसी भी सूची में नहीं थे. तब आदिवासी और मीणा के मध्य कॉमा (,) लगा कर आदिवासियों और मीणाओं दोनों को एसटी वर्ग का लाभ दिया गया. और मीणाओं ने आदिवासी मीणाओं को दिया जाने वाला लाभ भी स्वयं ले लिया.
इस बात में कितना सच है? कृपया राज खोलें.
आपके लिखने का अंदाज़ और भाषा पर पकड़ अच्छी लगी.
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