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अपेक्षायें प्रदर्शन को प्रभावित करती हैं। |
अपेक्षाओं का दबाव
एक छोटी सी कहानी जो
मैं अक्सर सुनाता हूँ, आपको भी सुनाना चाहता हूँ।
एक छोटे से गाँव में
रूई धुनने वाला धुनिया रहता था। गाँव में छोटे-मोटे रजाई गद्दे बनाकर उसका और
परिवार का गुजारा नही हो पा रहा था इसलिये वह शहर चला गया। शहर भी कोई ऐसा-वैसा
नहीं, मुंबई। एक परिचित के साथ वह घूमने के लिये यूँ ही बन्दरगाह चला गया जहाँ एक
गोदाम में उसने पहाड़ जैसे रूई के गट्ठर देखे। जहाँ तक नजर जाती थी बस उसे रूई ही
रूई दिखाई देती थी। देखते ही देखते उसे चक्कर आया और वह बेहोश हो गया। गोदाम के
अंदर हल्ला मच गया। थोड़ी देर में वहाँ भीड़ जुट गई और देखते ही देखते उसे
हास्पिटल पहुँचा दिया गया। डाक्टर को कुछ समझ नहीं आ रहा था क्योंकि उसकी शरीर
पूरी तरह से ठीक था और धड़कन सामान्य रूप से चल रही थी। सभी लोग उसके परिचित की
तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे। डाक्टर ने विस्तार से उससे पूरी बात सुनी और
उसे धुनिये की बीमारी के बारे में पता चल गया। वह बाहर गया और थोड़ी देर में कमरे
के बाहर शोर मच गया कि “रूई के गोदाम में आग लग गई-रूई के गोदाम में आग लग गई....” काफी देर तक यह शोर
आस-पास गूँजता रहा और सबकी आँखें आश्चर्य से फैल गईं जब उन्होने देखा कि धुनिया
बड़बड़ाते हुये उठा- “बहुत अच्छा हुआ कि रूई के गोदाम में आग लग गई वरना सारी रूई मुझे ही धुननी
पड़ती...मैं तो मर जाता”
ठीक यही स्थित भारतीय क्रिकेट टीम के सामने अक्सर उपस्थित होती रहती है। हर
बार वह अपने ऊपर बेजा अपेक्षाओं का इतना अधिक दबाव ले लेती है कि रेशम के कीड़े की
भाँति अपने द्वारा ही बनाये गये रेशम में उलझकर दम तोड़ देती है। और बात जब
भारत-पाकिस्तान मैच की हो तो यह दबाव युद्ध स्तर का हो जाता है जहाँ शुरुआती
पिछड़ाव पूरा युद्ध हरवा देता है।
जब भारत दूसरी इनिंग में बल्लेबाजी करने उतरा तो रोहित शर्मा से लगायत,
शिखर धवन, विराट कोहली, युवराज सिंह और महेन्द्र सिंह धोनी शायद यही सोचकर उतरे कि
सारा दारोमदार उन्ही के ऊपर है और अगर वह आउट हो गये तो भारत मैच हार जायेगा। और
अगर भारत मैच हार जायेगा तो उनकी तो छोड़ो, देशवासियों का दिल टूट जायेगा। एक अरब
लोगों को पाकिस्तान से हारने का दुख वर्षों तक सालता रहेगा। अब क्या कहें ऐसे
देशवासियों और क्रिकेट प्रेमियों को जिनका दिल, मासूम बच्चियों और औरतों से बर्बर
बलात्कार और हत्या से नहीं टूटता। उनका दिल तब नहीं टूटता जब पैसे के अभाव में
अस्पताल में कोई गरीब दम तोड़ देता है और उसके परिवार वालों को शव कंधे पर लादकर
ले जाना पड़ता है। उनका दिल तब भी नहीं टूटता है जब गुंडे ताकत और धनवान पैसे के
दमपर लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करते हैं। लेकिन उनका दिल भारत के क्रिकेट मैच
हार जाने पर जरूर टूट जाता है और पाकिस्तान से हारने पर तो उनको हार्ट अटैक आ जाता
है।
बार-बार ऐसा क्यों हो जाता है क्रिकेट खिलाड़ियों से हम इतनी उम्मीद क्यों
लगाकर रखते हैं। क्यों उसी शाम को कदांबी श्रीकान्त और हाकी टीम के जीतने की खबर
भारत के हारने की खबर के नीचे दब जाती है। इसकी एकमात्र वजह है क्रिकेट की ब्राडिंग
और खिलाड़ियों को सुपर हीरो की तरह पेश करना। भारत में दस साल पहले तक कोई ऐसा खेल
नहीं था जिसपर भारतीय गर्व कर सकें। हाकी की प्रतिष्ठा कई दशकों पहले ही मिट्टी
में मिल चुकी थी। इसके अलावा कोई और खेल था ही नहीं जिसमें भारतीय चुनौती
गंभीरतापूर्वक ली जाती। क्रिकेट में भी ऐसा कुछ था नहीं...वो तो 1983 का वर्ड कप
था जिसमें भाग्य के सहारे भारतीय टीम ने दो बार के चैंपियन वेस्टइंडीज को हरा दिया।
किसी को इसकी उम्मीद नहीं थी और कहा तो यहाँ तक गया कि यदि अगले 100 मैच भारतीय
टीम वेस्टइंडीज के साथ खेलती तो उसके एक भी मैच जीतने की उम्मीद नहीं थी। भाग्य के
सहारे जीत का सिलसिला 2011 में महेन्द्र सिंह धोनी की अगुवाई में टूटता हुआ दिखाई
दिया और वर्तमान टीम हर मायने से पुरानी टीम से बेहतर है। वह चैंपियन्स ट्राफी
जीतने की दावेदार थी लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई।
जब विश्वास रूपी नाव में भय रूपी छेद हो जाता है तो नाव के डूबने का समय तो
नहीं लेकिन परिणाम तभी तय हो जाता है। कल समाचार चैनलों को शायद कोई खबर ही नहीं मिली
सिवाय भारत पाकिस्तान क्रिकेट मैच के कवरेज के। महासंग्राम, सदी का मुकाबला, रणभूमि,
जीता है जीतेंगे....और भी ना जाने क्या क्या शीर्षकों से समाचार दिखाये जा रहे थे।
और जब भारत हार गया तब भी वह भिन्न-भिन्न शीर्षकों से समाचार दिखा रहे होंगे। एक
बात तो साफ है...किसी की हार हो किसी की जीत हो, कोई मरे-कोई जिये, कहीं फसल अच्छी
हो-कहीं सूखा पड़ जाये, कुछ भी हो, मीडिया की पाँचों उंगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई
में रहता है।
फिलहाल कोई कुछ भी कहे, भारतीय टीम चैंपियन्स ट्राफी जीत सकती थी, यदि वह
हार गई है तो इसकी एकमात्र वजह है....दबाव। 10 विकेट मात्र दस गेंदों पर ही गिरते
हैं...और एक गेंद को गेंदबाज के हाथ से निकलने और बल्ले पर पहुँचने में सेंकेन्ड
भी नहीं लगता है...उसके बीच में यदि बैट और बाल के अतिरिक्त उसे कुछ भी
दिखाई-सुनाई दिया तो आउट होना तय है। भारतीय टीम इसी दस सेकेण्ड में हारी...बाकी
तो पूरे टूर्नामेन्ट में वह विजेता की तरह खेली।
दस्तक सुरेन्द्र पटेलनिदेशक माइलस्टोन हेरिटेज स्कूल
लर्निंग विद सेन्स-एजुकेशन विद डिफरेन्स